कर्नाटक के हुबली का ईदगाह मैदान चर्चा में बना हुआ है। चर्चा में इसीलिए, क्योंकि यहाँ गणेश उत्सव के आयोजन के विरोध में राज्य का वक्फ बोर्ड खड़ा हो गया है। तमाम मुस्लिम संगठन आयोजन के विरोध में हैं। कर्नाटक उच्च-न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस मामले की सुनवाई हुई। अंततः हाईकोर्ट ने आयोजन के लिए स्वीकृति दे दी। मुस्लिम पक्षों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में दलील पेश करते हुए अधिवक्ता और सपा नेता कपिल सिब्बल ने दलील दी कि ये ‘ईदगाह’ मैदान है, इसीलिए यहाँ धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं हो सकते।
ईदगाह मैदान पर तिरंगा फहराने का ऐलान, आंदोलन के केंद्र में थीं उमा भारती
वैसे हुबली के इस मैदान का इतिहास भी कुछ ऐसा ही रहा है। कभी यहाँ राष्ट्रध्वज तिरंगा फहराए जाने पर बवाल हो गया था। चर्चा के केंद्र में थीं उमा भारती, जो तब भाजपा का एक मुखर चेहरा हुआ करती थीं। 1992 में बाहरी विध्वंस होने के बाद देश में माहौल भी संवेदनशील था। ये घटना उसके 2 साल बाद की है, अगस्त 1994 की। ये वो मैदान है, जिसका इतिहास कित्तूर की रानी चेनम्मा से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने सन् 1824 में अंग्रेजों से लोहा लिया था।
इस ‘ईदगाह मैदान’ का विवाद अभी ही नहीं, बल्कि 90 के दशक में भी सामने आया था जब वक्फ बोर्ड ने इसे अपना बताते हुए अन्य प्रकार के कार्यक्रमों को लेकर आपत्ति जताई थी। कर्नाटक में जब चुनाव का माहौल था, तभी ये विवाद सामने आ गया था। याद दिला दें कि नवंबर-दिसंबर 1994 में हुए इन चुनावों में जहाँ कॉन्ग्रेस सिमट गई थी, वहीं एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में ‘जनता दल’ की सरकार बनी थी और बीएस येदियुरप्पा की अगुवाई में भाजपा 40 सीटों के साथ एक बड़ी ताकत बन कर उभरी थी।
अंजुमन-ए-इस्लामिया ने 1.5 एकड़ के मैदान पर अपना दावा ठोक रखा था, जो भाजपा को नागवार गुजरा। हालाँकि, भाजपा का कहना है कि नगरपालिका के अधीन होने के कारण ये सरकारी संपत्ति है। कानूनी लड़ाई के बाद अंजुमन-ए-इस्लामिया ने इसका अधिकार ले लिया था और यहाँ उसे साल में 2 बार नमाज की अनुमति मिली थी। बाकी किसी कार्यक्रम के लिए यहाँ अनुमति नहीं थी। किन्हीं अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए इसका इस्तेमाल हो न हो, तब भी ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित चल रहा था।
भाजपा का वहाँ तिरंगा फहराने का ये पहले प्रयास नहीं था। बीएस येदियुरप्पा राज्य में हिंदुत्व की मुखर आवाज़ बनने लगे थे और लिंगायत मठ व अनुयायियों ने उन्हें अपना नेता मानना शुरू कर दिया था। भाजपा इससे पहले भी 5 बार ईदगाह मैदान में तिरंगा फहराने की कोशिश कर चुकी थी। 1994 में कर्नाटक में कॉन्ग्रेस की सरकार थी और वीरप्पा मोइली मुख्यमंत्री थे, जो बाद में मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार में 10 साल मंत्री भी रहे।
कॉन्ग्रेस सरकार ने देशभक्तों पर चलवाई गोली: 6 मौतें, 100+ घायल
उनकी सरकार ने पहले से ही तिरंगा फहराने से भाजपा नेताओं को रोकने के लिए सारी तैयारियाँ कर ली थीं। स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले ही हुबली को सील कर दिया गया था। ‘रैपिड एक्शन फोर्स (RAF)’ के जवानों को बड़ी संख्या में तैनात किया गया था। वीरप्पा मोइली ने तब कहा था, “मैं कल्याण सिंह नहीं हूँ कि अपनी आँखें मूँद लूँ और हिंसा होने दूँ।” उनका सीधा तंज अयोध्या स्थित बाबरी ढाँचे के विध्वंस की तरफ था, क्योंकि तब भाजपा के कल्याण सिंह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
याद कीजिए, कैसे कल्याण सिंह ने 1992 में बाबरी विध्वंस के समय प्रशासन को आदेश दिया था कि रामभक्तों पर गोली नहीं चलनी चाहिए। इसके लिए उन्हें मुख्यमंत्री का पद तक गँवाना पड़ा, लेकिन फिर भी उन्होंने कहा कि उन्हें इसका न कोई दुःख है और न ही पछतावा। सुप्रीम कोर्ट में उन्हें लिख कर देना पड़ा था था कि वो बाबरी को बचाएँगे, लेकिन उन्होंने एक भी निर्दोष रामभक्त को नुकसान नहीं होना दिया। उन्होंने अपनी सरकार इसके लिए बलिदान कर डाली।
वीरप्पा मोइली ने हुबली में कर्फ्यू लगवा दिया था। बेंगलुरु में भाजपा नेता सिकंदर बख्त को गिरफ्तार कर लिया गया। सिकंदर बख्त भाजपा का एक जाना-पहचाना नाम थे, जो बाद में इंद्र कुमार गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में मंत्री रहे। उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया था। वो भाजपा के उपाध्यक्ष थे। उन्हें 1992 में राज्यसभा में भाजपा का नेता चुना गया था। जून 1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिनों की सरकार को गिरा दिया गया था, उसके बाद फिर से उन्होंने इस पद को सँभाला।
कर्नाटक के हुबली मैदान में झंडा फहराने के लिए अभियान चलाने वाले नेताओं में आगे की पंक्ति में थे, इसीलिए उन्हें कॉन्ग्रेस की राज्य सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। लेकिन, तब सांसद रहीं उमा भारती किसी तरह हुबली में एंट्री करने में कामयाब रहीं और ऐलान किया कि किसी भी कीमत पर ईदगाह मैदान में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त को भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के हुजूम ने मैदान की तरफ कूच कर दिया। कर्नाटक के इस आंदोलन में बेंगलुरु के दिवंगत दिग्गज नेता अनंत सिंह का भी बड़ा योगदान था, जो मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे।
लेकिन, पुलिस ने बल प्रयोग करना शुरू कर दिया। बीएस येदियुरप्पा और उमा भारती जैसे बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। लोगों में भगदड़ मच गई और वो आक्रोशित हो उठे। इसके बाद पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें 5 लोग मारे गए। ठीक उसी तरह, जैसे उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार ने रामभक्तों पर गोली चलवाई थी। बस तबाही का स्तर तब ज्यादा था। 100 के करीब लोग हुबली में पुलिस के बल-प्रयोग और गोली से घायल भी हुए।
भाजपा ने भी कॉन्ग्रेस सरकार की इस करतूत के विरोध में अभियान चलाया। इस घटना के 4 दिनों बाद हुबली में ‘मोइली हटाओ’ सम्मेलन का आयोजन किया गया। पूरे हुबली में ऐसी कई बैठकें हुईं। पुलिस ने लोगों के इस शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को भी बर्दाश्त नहीं किया और फिर से गोलीबारी की। एक महिला मारी गई। लोग भी और उग्र हो गए। वीरप्पा मोइली मुस्लिम तुष्टिकरण में पूरी तरह डूब चुके थे। पुलिस के बल-प्रयोग से बात और बिगड़ ही रही थी।
इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने ‘आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम’, अर्थात TADA लगाने की धमकी दे डाली। बगल के संवेदनशील शहर भद्रावती में भी सांप्रदायिक तनाव हुआ। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कह दिया कि वीरप्पा मोइली का भविष्य तभी तय हो गया था, जब उन्होंने निर्दोष देशभक्तों पर गोली चलाने का आदेश दिया। उन्होंने वीरप्पा मोइली को एक दशक पहले की एक घटना की याद दिलाई।
कर्नाटक में भाजपा का उदय, बाद में उमा भारती को देना पड़ा था था CM पद से इस्तीफा
दरअसल, ये घटना 21 जुलाई, 1980 की थी, जिसकी याद आडवाणी ने मोइली को दिलाई थी। तब किसान विभिन्न माँगों को लेकर नरगुंद में प्रदर्शन कर रहे थे। पूरे देश में विपक्षी दल महँगाई के विरोध में आंदोलन चला रहे थे और यहाँ के किसानों ने उन्हें समर्थन दिया। कॉन्ग्रेस के आर गुंडु राव ने किसानों पर गोली चलवा दी, जिससे कई किसान मारे गए थे। परिणाम ये हुआ कि उनकी सरकार चली गई। आडवाणी की भविष्यवाणी सच हुई और 1994 में भी मोइली की बुरी हार हुई।
हालाँकि, इसके अगले साल जब स्वतंत्रता दिवस आया तो एचडी देवगौड़ा मुख्यमंत्री थे। वो एक चतुर नेता हैं, जिन्होंने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अपनी शातिर बुद्धि लगाई। विधानसभा में बीएस येदियुरप्पा से उनकी बहस भी हुई। बाद में उन्होंने भी कई नेताओं को हिरासत में लेकर मुस्लिमों की सभाओं को संबोधित करना शुरू कर दिया। इससे मुस्लिम समुदाय में वो अपनी पैठ बनाना चाहते थे। कुछ मुस्लिमों से ही ईदगाह मैदान में तिरंगा फहरवा कर उन्होंने दावा कर दिया कि मुद्दा ख़त्म हो गया है। उन्होंने मुस्लिमों को खुश करने 4% आरक्षण भी दिया था।
बाद में यही मामला उमा भारती के लिए तब सिरदर्द बन कर आया, जब बंद हुए केस को वापस खोल दिया गया। उमा भारती तब मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं। उन्हें इस्तीफा देकर हुबली की अदालत में आत्म-समर्पण करना पड़ा। इस तरह कर्नाटक की एक घटना से न सिर्फ वहाँ, बल्कि एक दशक बाद एक दूसरे राज्य में भी सीएम बदल गया। उमा भारती का इस्तीफा, आत्म-समर्पण और उनका जेल जाना उस समय की सबसे बड़ी खबर थी।
जिसके फलस्वरुप मनमोहनसिंह जी प्रधानमंत्री बनें, फिर उमा जी से बदला लेने के लिए कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार ने हुबली के तिरंगा आंदोलन के समय के केस निकालकर उमा जी को वारंट भेजा,जिस पर उमा भारती जी ने मुख्यमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया एवं कर्नाटक में जाकर अपनी गिरफ्तारी दी।
— Uma Bharti (@umasribharti) May 4, 2020
भाजपा के लिए ईदगाह अकेला ऐसा मुद्दा नहीं था। इस मैदान से पहले आतंकियों की धमकी के बाद मुरली मनोहर जोशी ने जम्मू कश्मीर स्थित श्रीनगर के लाल चौक पर भी झंडा फहराया था। उसके बाद ये मैदान मुद्दा बना। वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद कॉन्ग्रेस से लिंगायतों में गुस्सा था। उस समय अनंत सिंह ने उनके बीच भाजपा को स्थापित करना शुरू किया। असल में मुस्लिम पक्ष ने ईदगाह मैदान में जो तिरंगा फहराया, उसका उद्देश्य भाजपा से क्रेडिट लूटना और आडवाणी की चेतावनी भी थी।
2001 में जब VHP (विश्व हिन्दू परिषद) के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल हुगली पहुँचे थे, तब भी उनके दौरे का खासा विरोध हुआ और हिंसा भड़क गई थी। तब भी एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। 1994 के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें 10 गुना बढ़ कर 4 से 40 हो गई थी। पार्टी का वोट प्रतिशत भी 12.85% बढ़ गया था। कॉन्ग्रेस 178 से सीधा 34 पर पहुँच गई, ये था लोगों के गुस्सा का अंजाम। मोइली को कुर्सी गँवानी पड़ी।