देश की आज़ादी के बाद से अधिकतर नेहरू-गाँधी का ही शासन नई दिल्ली में रहा, कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से भी। ये भी गौर करने वाली बात है कि नेहरू-गाँधी परिवार के तीनों प्रधानमंत्रियों को भारत रत्न से नवाज़ा गया – जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी। नेहरू और इंदिरा को तो उनके ही कार्यकाल में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया, वहीं राजीव गाँधी को उनके निधन के बाद देश के इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया।
सिख नरसंहार की वजह से राजीव गाँधी को ‘भारत रत्न’ दिए जाने का मुद्दा भी जिंदा रहता है और गाहे-बगाहे उठता रहता है। दिसंबर 2018 में ये मुद्दा फिर से उठा था, जब दिल्ली विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर के भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का ‘भारत रत्न’ वापस लेने की माँग की। सिख नरसंहार को इसका कारण बताया गया। AAP विधायक जरनैल सिंह के प्रस्ताव को विधानसभा ने विश्वासमत से पारित किया।
इस प्रस्ताव में कहा गया था कि भारत की राष्ट्रीय राजधानी के सबसे बड़े नरसंहार के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए दिल्ली सरकार केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिखे। उसी साल कॉन्ग्रेस नेता सज्जन कुमार के खिलाफ भी दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला आया था। सिख नरसंहार के बारे में ज्यादा बताने की ज़रूरत नहीं है। स्वर्ण मंदिर में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के बाद तत्कालीन पीएम इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव ने सत्ता संभाली।
फिर पूरी दिल्ली में सिखों के खिलाफ नरसंहार शुरू हुआ, जिसमें कई कॉन्ग्रेस नेताओं पर क्रूरता के आरोप लगे। राजीव गाँधी ने ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी सी हिलती ही है’ वाला बयान दिया, जिसकी आज भी आलोचना होती है। इंदिरा गाँधी की सहानुभूति लहर में राजीव गाँधी के नेतृत्व में 1984 में कॉन्ग्रेस को 414 सीटें मिलीं। अब तक देश में लोकसभा के 17 चुनाव हुए हैं, लेकिन किसी पार्टी ने इस मौके के अलावा कभी 375 का आँकड़ा भी पार नहीं किया।
राजीव गाँधी को ‘भारत रत्न’ दिए जाने की बात करने से पहले हमें 80 के दशक के अंत और 90 के दशक के शुरुआत की राजनीति को समझना पड़ेगा। 1984 में जिस कॉन्ग्रेस पार्टी को 414 सीटें मिली थीं, वही पार्टी 5 साल बाद हुए चुनावों में इसका आधा पाने को भी तरस गई। 195 सीटों पर सिमटी कॉन्ग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में ही नहीं थी। यही वो दौर था, जब भारत में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हुआ।
कॉन्ग्रेस विरोधी गठबंधनों का दौर तो 70 के दशक में ही शुरू हो गया था, जब इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लगाया। राजीव गाँधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार ने शाहबानो मामले में इस्लामी कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया। फिर डैमेज कंट्रोल के लिए राम मंदिर का ताला खुलवाया गया। बोफोर्स घोटाला हुआ, जिसे तब तक भारत का सबसे बड़ा घोटाला बताया गया।
श्रीलंका में भारत ने सैन्य दखल दिया। सिंख दंगों के घाव तो पंजाब और दिल्ली के कई इलाकों में थे ही। प्रचंड बहुमत का इस्तेमाल प्रचंड गलतियों के लिए किया गया। बोफोर्स तोप घोटाला के समय विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के रक्षा मंत्री हुआ करते थे, लेकिन घोटाला के सामने आने के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और जनता पार्टी के कई गुटों को मिला कर जनता दल का गठन किया। ‘राजाजी’ के नाम से जाने जाने वाले वीपी सिंह का प्रभाव पूरे भारत में था।
वीपी सिंह का प्रभाव और राजीव गाँधी के विरोध ने कुछ ऐसा काम किया कि ‘मिस्टर क्लीन’ सेंट्रिस्ट, लेफ्टिस्ट और दक्षिणपंथी पार्टियों को एक साथ लाने में कामयाब हो गए और सरकार बना ली। उनकी सरकार पर भी दाम कम नहीं लगे। कभी ‘मिस्टर क्लीन’ के रूप में जाने जाने वाले वीपी सिंह के कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन हुआ, रिलायंस का सरकार से पंगा हुआ, राम मंदिर मुद्दा सामने आया, मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई और SC-ST एक्ट प्रभाव में आया।
लेकिन, राम मंदिर के लिए आंदोलन तेज़ होता जा रहा था और इसी बीच अक्टूबर 1990 में उत्तर प्रदेश में कारसेवकों पर अयोध्या में गोली चलवा कर मुलायम सिंह यादव ने ‘मुल्ला मुलायम’ का ख़िताब हासिल किया। इस प्रकरण के आक्रोश में भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया। वीपी सिंह संसद में विश्वासमत हासिल करने में नाकाम रहे। उन्होंने नैतिकता, बाबरी मस्जिद बचाने और सेक्युलरिज्म का गान करते हुए पद छोड़ा।
लेकिन, उससे पहले वो बोफोर्स को लेकर कार्रवाई शुरू कर चुके थे। जनवरी 1990 में ही भारत सरकार ने इस मामले में आपराधिक प्रोसिडिंग शुरू कर दी थी। स्वीडन और स्विट्जरलैंड तक की सरकारों से इस मामले में जवाब माँगा जाना था। तब वीपी सिंह ने ही कहा था कि जिन्होंने बोफोर्स घोटाले में रुपया बनाया है, उनके नाम जानने का हक़ देश को है। FIR दर्ज कर ली गई थी। कॉन्ग्रेस के कई पूर्व नेता नेशनल फ्रंट सरकार के इर्दगिर्द भी थे, ऐसे में ये एक मुश्किल कार्य था।
वीपी सिंह के पद छोड़ने के बाद एक बार फिर से कॉन्ग्रेस ने अपना दाँव खेला और चंद्रशेखर को पीएम बनाया, जिन्होंने मौके का फायदा उठाते हुए अपनी पार्टी तोड़ दी और पीएम बन गए। कॉन्ग्रेस ने उन्हें समर्थन दिया। कहते हैं, राजीव गाँधी ने प्रणब मुखर्जी की जगह चंद्रशेखर को प्राथमिकता दी थी। अयोध्या मुद्दे, मंडल कमिशन और देश के कई हिस्सों में फैलते अलगाववाद के बीच वो प्रधानमंत्री बने। ऊपर से राजीव गाँधी के साथ उनके मतभेद बढ़ते जा रहे थे।
इसी बीच लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई और चुनाव प्रचार के दौरान ही तमिलनाडु के श्रीपेरुमबुदूर में एक चुनावी रैली के दौरान आत्मघाती हमले में राजीव गाँधी का निधन हो गया। LTTE की आतंकी उनका पाँव छूने के लिए झुकी और ब्लास्ट हो गया। देश में मध्यावधि चुनाव चल रहे थे, इसीलिए उस समय कार्यवाहक सरकार थी, जिसके मुखिया चंद्रशेखर थे। इसी सरकार ने राजीव गाँधी को ‘भारत रत्न’ देने का निर्णय लिया।
वो जून 17, 1991 की तारीख थी जब राजीव गाँधी को भारत रत्न का अवॉर्ड दिए जाने की घोषणा की गई। मई 21, 1991 को उनका निधन हुआ था। ऐसे में निधन के मात्र 26 दिनों बाद ही उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित कर दिया गया। बताया गया कि पक्ष-विपक्ष ने एकमत से ये फैसला लिया है। उस समय देश के प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर, जिनकी सरकार अगले महीने ही चली गई। चंद्रशेखर, राजीव गाँधी की कृपा से ही पीएम बने थे।
इसीलिए, जब औपचारिक रूप से राजीव गाँधी को मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया, तब पीवी नरसिंह राव की सरकार आ चुकी थी। सोनिया गाँधी ने ये अवॉर्ड रिसीव किया था। राव ने 5 सालों तक पार्टी और सरकार, दोनों को बड़ी चालाकी से चलाया था। तेलुगु पार्टियाँ उनके लिए भी कई वर्षों से ‘भारत रत्न’ की माँग करती रही हैं। लेकिन, राजीव गाँधी को ‘भारत रत्न’ दिए जाने का विरोध हो भी नहीं सकता था, क्योंकि वो देश के पूर्व पीएम थे और तुरंत निधन के बाद किसी भी वजह से इसका विरोध करना बैकफ़ायर कर सकता था।
एक और बात ध्यान देने लायक है कि राजीव गाँधी के साथ ही देश के प्रथम उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को भी ‘भारत रत्न’ मिला, जिन्हें 40 वर्षों तक उनकी ही पार्टी ने नज़रअंदाज़ किया था। कॉन्ग्रेस ने जब राजीव गाँधी को ‘भारत रत्न’ देने की माँग की तो पीएम चंद्रशेखर ने सरदार पटेल का नाम भी आगे बढ़ाया। तत्कालीन राष्ट्रपति रामास्वामी वेंकटरमन को उन्होंने दोनों नामों का प्रस्ताव भेजा, लेकिन सरदार पटेल के लिए न कॉन्ग्रेस इच्छुक थी और न ही राष्ट्रपति।
जिस समारोह में सरदार पटेल को ‘भारत रत्न’ दिया गया, उसमें तत्कालीन राष्ट्रपति मौजूद ही नहीं थे। वेंकटरमन राजीव गाँधी के प्रधानमंत्रित्व काल में 1987 में ही राष्ट्रपति चुने गए थे और कॉन्ग्रेस ने उनका समर्थन किया था। इन सबसे ये बात साफ़ है कि कॉन्ग्रेस ने जितनी तत्परता गाँधी-नेहरू परिवार की सेवा में दिखाई, उतनी महात्मा गाँधी तक के लिए भी नहीं दिखाई, सरदार पटेल और बीआर आंबेडकर तो दूर की बात थे।