ऐसा लग रहा है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं में कोई आतंरिक प्रतियोगिता चल रही है राजनीतिक बयानों के स्तर को निम्नतम करने की। इसमें आप सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल से लेकर नीचे तक सभी प्रतिभागी हैं।
इसी ‘रेस’ में ‘शानदार परफॉरमेंस’ देते हुए आप विधायक सुश्री अल्का लाम्बा जी ने ये क्रान्तिकारी ट्वीट किया:
प्रिय #भारतवासियों
— Alka Lamba (@LambaAlka) March 12, 2019
“कृप्या इस बार #प्रधानमंत्री चुनियेगा,#चौकीदार तो #नेपाल से भी मंगवा सकते हैं”.
नेपाल के #चौकीदार #चोर नही होते ;).#LokSabhaElections2019
एक बार फिर ऊपर स्क्रॉल करिए और इस ट्वीट को ध्यान से पढ़िए- ताकि कोई ग़लतफ़हमी रह न जाए। आप विधायक ने न केवल प्रधानमंत्री मोदी को एक बार फिर “चोर” कहा है बल्कि यह आशय भी जताया है कि नेपाली-गोरखा समाज की पहचान चौकीदारी के काम से होती है।
इतिहास के प्रति अनभिज्ञता और मोदी से नफ़रत में अंधापन
इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि “आम आदमी” का दल होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी की जनप्रतिनिधि अल्का लाम्बा न केवल खुले तौर पर नस्लभेदी टिप्पणी करतीं हैं बल्कि यह भी विस्मृत कर देतीं हैं कि इस देश ने यूरोपियनों की नस्लभेदी मानसिकता के चलते ही दो सौ साल तक दासत्व झेला है।
अल्का लाम्बा जी के लिए यह भी जान लेना ज़रूरी है कि जिन गोरखाओं की ‘चौकीदारी’ का उपहास वह उड़ा रही हैं, उन गोरखाओं का इतिहास कितना गौरवशाली रहा है। इन गोरखाओं का लोहा अंग्रेज़ इतना मानते थे कि लन्दन के वेस्टमिन्स्टर में गोरखाओं की वीरता के सम्मान में एक स्मारक है और भारत से जाते समय भी 10 गोरखा टुकड़ियों में से 4 वह ब्रिटिश सेना के लिए लेते गए थे।
भारतीय सेना में भी गोरखा लड़ाकों की वीरता की सानी देना मुश्किल है, अल्का लाम्बा जी! 1947 की पाकिस्तानी कबायली घुसपैठ से लेकर 1999 में कारगिल की लड़ाई तक गोरखाओं ने अपनी जान की कीमत पर हमारे देश की रक्षा की है। यही नहीं, भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र की शांति सेनाओं में भी गोरखा सैनिकों का शौर्य दांतों तले उँगली दबवा देता है। यदि आपको विश्वास न हो तो श्रीलंका जा कर बचे-खुचे लिट्टे सदस्यों से पूछ लीजिये कि कैसे हमारे गोरखे आतंकवादियों पर मौत का कहर बन कर टूटे।
मोदी से नफ़रत में सीमाएँ लाँघना आम आदमी पार्टी कीआदत है
यदि स्मृति पर थोड़ा भी जोर डालें तो पाएँगे कि मोदी विरोध के लिए प्रतिबद्ध आप में मोदी का विरोध करते-करते बेकाबू हो जाना नया नहीं है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल कभी मोदी को ‘कायर साइकोपाथ’ कहते हैं तो कभी निराधार आरोप लगाते हैं सहारा और बिरला से रिश्वत लेने का। कभी वह एक के बाद एक नौकरशाहों पर मोदी के इशारे पर काम करने का आरोप लगाते हैं तो कभी उन पर ही अपने कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली के चीफ़ सेक्रेटरी के साथ शारीरिक हिंसा कराने का आरोप लगता है। सुप्रीम कोर्ट तो उन्हें इतनी बार फटकार लगा चुका है कि शायद कोर्ट के पास भी इसका हिसाब नहीं होगा।
खुद अल्का लाम्बा पर भी दिल्ली में एक तथाकथित भाजपा समर्थक दुकानदार के खिलाफ़ राजनीतिक हिंसा में व्यक्तिगत रूप से भागीदार होने के आरोप लग चुके हैं।
आत्ममंथन का है समय
यह कहना बिलकुल भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश के जन का मानस मथने वाले अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम को आज खुद गंभीर आत्ममंथन की आवश्यकता है। जनता का भरोसा उन पर किस स्तर का बचा है इसकी बानगी दिल्ली के नगरपालिका चुनावों में मिल गई है।
राजनीतिक विरोधी तो दूर की बात, एक दशक से भी कम समय में पार्टी के अधिकांश महत्वपूर्ण संस्थापक या तो किनारा कर चुके हैं या खदेड़ दिए गए हैं। कभी शीला दीक्षित और कॉन्ग्रेस पर भ्रष्टाचार के सबूतों का पुलिंदा लहराने से शुरुआत कर वह आज उसी कॉन्ग्रेस के दर पर गठबंधन के लिए खड़े हैं- लोकसभा चुनाव चाहे कोई जीते, चाहे कोई हारे, अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए यह राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई है और इसे वह हारती हुई ही दिख रही है।