Monday, December 23, 2024
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‘कॉन्ग्रेसी राज्य कृषि कानूनों को रद्द करें’ – सोनिया गाँधी का ‘फर्जी’ निर्देश, क्योंकि इसमें है राष्ट्रपति की मंजूरी का पेंच

कॉन्ग्रेस के भीतर ही इस बात को लेकर मतभेद है कि इन कृषि क़ानूनों का विरोध कैसे किया जाए। पार्टी के कुछ नेता मानते हैं कि इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करना सही नहीं होगा। और तो और, राष्ट्रपति की मंजूरी वाले नियम को लेकर अभिषेक मनु सिंघवी ने...

कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के शासन वाले सभी राज्यों को उन क़ानूनी विकल्पों पर विचार करने को कहा है, जिससे केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि क़ानूनों को वहाँ लागू नहीं किया जा सके। देश भर में पार्टी इन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में लगी हुई है और पंजाब में उसने सबसे ज्यादा आक्रामक रवैया अख्यितार कर रखा है। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इन कृषि कानून के खिलाफ एक दिवसीय धरना भी दिया।

कॉन्ग्रेस अब इसे केंद्र सरकार द्वारा राज्य के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण का मुद्दा बनाना चाहती है और इसीलिए सोनिया गाँधी ने अपने शासन वाले सभी राज्यों को निर्देश दिया है कि वो अनुच्छेद 254(2) के तहत ऐसे विकल्पों पर विचार करें, जिससे केंद्र के इन कानूनों को उन राज्यों में रद्द किया जा सके। कॉन्ग्रेस ने इन क़ानूनों को अस्वीकार्य करार देते हुए अपने शासन वाले राज्यों में इसे बाईपास करने को कहा है।

कोंग्रेस पार्टी ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार ने इन कानूनों के जरिए न सिर्फ ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ को ख़त्म कर दिया है बल्कि ‘कृषि उपज विपणन समिति’ के क्रियाकलापों पर भी रोक लगा दी है। पार्टी ने कहा कि जब वो अपने शासन वाले राज्यों में इसे लागू होने से रोकेगी तो किसानों के साथ हो रहा अन्याय ख़त्म हो जाएगा। जिस अनुच्छेद की सोनिया गाँधी बात कर रही हैं, वो राज्यों को केंद्र के प्रतिकूल कानून बनाने का अधिकार तो देती है, लेकिन इसके लिए राष्ट्रपति की मंजूरी अनिवार्य है।

2015 में भी तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राज्यों को इसी अनुच्छेद के प्रावधानों के तहत पिछले यूपीए सरकार द्वारा पास किए गए ‘भूमि अधिग्रहण क़ानून’ को लागू न करने की सलाह दी थी। केंद्र सरकार बार-बार कह रही है कि वो अनाज की खरीद पूर्ववत जारी रखेगी लेकिन इन क़ानूनों से किसान सीधे प्राइवेट कंपनियों को अपनी उपज बेच सकेंगे। साथ ही इसका एमएसपी पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा।

हालाँकि, कॉन्ग्रेस के भीतर ही इस बात को लेकर मतभेद है कि इन कृषि क़ानूनों का विरोध कैसे किया जाए। पार्टी के कुछ नेता मानते हैं कि इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करना सही नहीं होगा। उसे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट इन क़ानूनों को रद्द नहीं करेगी। इसीलिए, इसे ‘केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के अधिकार-क्षेत्र में हस्तक्षेप करने’ का मुद्दा बनाया जा रहा है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में धड़ल्ले से याचिकाएँ जा रही हैं, जिन्हें दायर करने वालों में कुछ कॉन्ग्रेस से जुड़े वकील भी शामिल हैं।

राज्यों को ये निर्देश देने से पहले कॉन्ग्रेस आलाकमान ने वरिष्ठ अधिवक्ता और पार्टी के नेता अभिषेक मनु सिंघवी से विचार-विमर्श किया, जिन्होंने राष्ट्रपति की मंजूरी वाले नियम को इसे लागू करने में बाधा करार दिया। उन्होंने कहा कि अगर गृह मंत्रालय अपनी समीक्षा कर के राष्ट्रपति को इस पर हस्ताक्षर न करने को कहती है तो कॉन्ग्रेस की ये चाल फेल हो जाएगी। ‘TOI’ के सूत्रों का कहना है कि इस निर्देश का उद्देश्य कानून बनाना कम और राजनीतिक माइलेज लेना ज्यादा है।

इधर अमूल नाम से मशहूर गुजरात कॉपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड के मैनेजिंग डॉयरेक्टर आरएस सोढ़ी ने रविवार (सितंबर 27, 2020) को ट्विटर पर किसानों के लिए मुक्त बाजार के फायदे बताए। सोढ़ी ने समझाया कि कैसे कृषि उपज के रूप में दूध की कीमत 8 लाख करोड़ रुपए है। यह गेहूँ, धान और गन्ने के संयुक्त मूल्य से भी अधिक है। उन्होंने बताया कि डेयरी किसान GCMMF से जुड़े हों या नहीं, वे अपनी उपज/ उत्पाद कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र हैं और खरीदार कहीं से भी उसे खरीदने के लिए स्वतंत्र हैं।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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