पश्चिम बंगाल। साल 2021, तारीख 2 मई। कुछ जीत रहे थे सत्ता की कुर्सी। कई हार रहे थे जिंदगी की जंग। कहीं उड़ रहा था हरा गुलाल। कइयों का बह रहा था लहू। जीत के साथ कुछ कहला रहे थे माननीय। बहुतों की लूटी जा रही थी इज्जत-आबरू।
2 मई 2021 – यह दिन कइयों के लिए थम सा गया है। ये कई लोग पश्चिम बंगाल नाम के राज्य से हैं। यह राज्य विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में ही है। यह वो राज्य है, जिनके लोगों को जान बचा कर दूसरे राज्य भागना पड़ा। उस दिन जब लोकतंत्र के सत्ताधारी जीत रहे थे… खुद लोकतंत्र हार रहा था। लोकतंत्र के असली सिपाहियों को रौंदा जा रहा था।
आपातकाल में क्या स्थिति थी – नागरिकों की, नेताओं की, सत्ता-प्रशासन की? 40 साल से कम उम्र वाले लोग इसकी कथा-कहानियाँ सिर्फ सुन-पढ़ सकते हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में 2 मई 2021 को जो किया गया, वो 21वीं सदी के भारत का आपातकाल ही था। ममता बनर्जी की सरकार इसे लेकर लाख सफाई दे, उस दिन हुआ हर एक दमन, हत्या, ज्यादती, लूट… सब कुछ दर्ज है। ममता बनर्जी को यह आसानी से भूलने नहीं दिया जाएगा।
राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता से इसी मुद्दे को लेकर बंगाल की राजनीति, समाज आदि पर ऑपइंडिया की लंबी बातचीत हुई।
सवाल: बीजेपी ने बंगाल के कार्यकर्ताओं के लिए कुछ नहीं किया या जितना करना चाहिए था, उतना नहीं किया – यह आरोप बीजेपी के ही चाहने वाले लगाते हैं, ट्विटर-फेसबुक पर लिखते हैं। इस पर आप की प्रतिक्रिया।
जवाब: यह सच है। यह हिंसा अप्रत्याशित थी। किसी ने उम्मीद नहीं की थी। चुनाव में किसी की हार और जीत होती है लेकिन काउंटिंग की जगह से ही जिस तरह हिंसा की शुरुआत हुई, ऐसा कभी देखा नहीं गया। आज तक भारत में किसी भी जगह ऐसा देखा नहीं गया। इस स्तर की हिंसा के लिए बीजेपी का कार्यकर्ता या संगठन तैयार नहीं था – यह आरोप बिल्कुल सही है।
हमारे कार्यकर्ताओं के ऊपर हमले हुए हैं। 50000 हजार के करीब कार्यकर्ताओं को घर से बेघर होना पड़ा। 20 के आप-पास लोगों का हत्या कर दी गई। इन सब के बावजूद हमारा संगठन अपने कार्यकर्ताओं की थोड़ी-बहुत भी मदद नहीं कर पाया। बहुत कोशिश करने के बाद भी अभी तक बहुत जगह 5-10 हजार रुपया भी अपने कार्यकर्ताओं तक हम नहीं पहुँचा पाए हैं। राजनीतिक रूप से हम इस आधार पर फेल रहे हैं – इस बात को मैं स्वीकारता हूँ।
सवाल: पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के बाद हिंसा – इसका राजनीतिक अर्थ या मैसेज आप क्या समझते हैं?
जवाब: 2 मई 2021 की दोपहर के बाद जो हिंसा शुरू हुई, उसका एक ही उद्देश्य था – बीजेपी का जो संगठन है, उसकी रीढ़ तोड़ दी जाए। 38% वोट बीजेपी को मिला। बहुसंख्यक हिंदू का वोट बीजेपी के पक्ष में रहा। मतलब एक निर्णायक वोट का समर्थन हमारे साथ था। इसलिए उनका उद्देश्य था कि हिंसा से ऐसा माहौल पैदा किया जाए, जिससे भविष्य में बीजेपी के समर्थकों को खत्म कर दिया जाए, संगठन की रीढ़ तोड़ दी जाए। खौफ ऐसा हो कि बीजेपी का समर्थक घर से ही नहीं निकले और यही हुआ भी।
पश्चिम बंगाल में 2021 विधानसभा चुनाव के बाद जो उपचुनाव हुए, जो नगरपालिका चुनाव हुए, इनमें आप वो खौफ देख सकते हैं। इन चुनावों में कई जगह बीजेपी के लोग नामांकन तक कराने नहीं गए। इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं। बोलपुर एक छोटा सा शहर है। शांतिनिकेतन से सटा हुआ। विधानसभा चुनाव में यहाँ के नगरपालिका वाले एरिया में बीजेपी को बहुमत था। अब इस बार जब नगरपालिका का चुनाव हुआ तो हमारे किसी उम्मीदवार ने नामांकन तक नहीं भरा।
यह सब छोटे-छोटे उदाहरण हैं। लेकिन हकीकत यह है कि बहुत सारे जगहों में जहाँ बीजेपी को जीत मिली थी, वहाँ अब बूथ मैनेज करने की स्थिति भी नहीं है संगठन के पास। बीजेपी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बहुत नीचे है। इनमें से बहुत यह भी कहते हैं कि केंद्र सरकार क्या कर रही है, हमारी तो केंद्र में सरकार भी है। लेकिन कानून-व्यवस्था राज्य को देखना होता है, इसमें केंद्र सरकार चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती। अगर हाई कोर्ट ने संज्ञान नहीं लिया होता तो कुछ भी नहीं होता, कोई एक्शन नहीं लिया जाता।
पश्चिम बंगाल में संगठन के तौर पर बीजेपी पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। लेकिन यह भी सच है कि आज हिंसा का जो माहौल बनाया गया है, इसकी प्रतिक्रिया तय है। बीजेपी को अभी से धीरे-धीरे संगठन के तौर पर काम करना होगा। कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना सबसे बड़ा काम होगा बीजेपी के लिए। इस समय उनका मनोबल टूटा हुआ है। इन कार्यकर्ताओं को एक सक्षम नेता और राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।
सवाल: देश की राजधानी और व्यापार वाला बंगाल… साहित्य और क्रांति वाले बंगाल से लेकर अब तक का बंगाल – इस बहुआयामी पतन को कितना राजनीतिक, कितना सामाजिक मानते हैं आप?
जवाब: यह पतन राजनीतिक भी है, सामाजिक भी है। इस पतन की शुरुआत होती है 60 के दशक से। नक्सल आंदोलन, सीपीएम वाली राजनाति… 50-60 साल में जो-जो हुआ, वही सब मिल कर अब वापस रूप दिखा रहा है। इसके असर साफ दिख रहे हैं। बंगाल से हो रहा आर्थिक पलायन स्पष्ट है। बंगाल पहले उद्योग-व्यवसाय का लीडर हुआ करता था। तब बॉम्बे के समान था कलकत्ता। अब कहाँ से कहाँ पहुँच गया। दुर्गा पूजा, छुट्टी, त्योहार… बंगाल के हर शहर को आप ‘सिटी ऑफ फेस्टिवल’ कह सकते हैं लेकिन ‘सिटी ऑफ प्रोडक्शन’ नहीं कह सकते यहाँ के किसी भी शहर को।
बंगाल में उद्योग का जो ह्रास हो रहा है, उससे वहाँ की संस्कृति पर असर पड़ेगा, लोगों की सृजन क्षमता प्रभावित होगी इसके कारण। ऐसा नहीं है कि बंगाल में रहने वालों की सृजन क्षमता बिल्कुल खत्म हो गई है। लेकिन यह भी सच है कि अपनी क्षमता का 50% भी ऐसे वातावरण में वहाँ की जनता उपयोग में नहीं ला पाती है। राज्य में जब शांति का माहौल होता है, तभी कला-संस्कृति का विकास-विस्तार संभव होता है। और प्रशासन की इन्हीं सब अच्छी चीजों का बंगाल में अभाव है।
पश्चिम बंगाल में 60 के दशक से जो शुरुआत राजनीतिक स्तर पर हुई थी, अब उसका पूरा असर यहाँ के सामाजिक जीवन पर पड़ा है। दुखद यह है कि अगर इसी तरह की राजनीति कुछ और दिन चली तो समाज का बचा-खुचा ढाँचा भी खत्म हो जाएगा।
सवाल: बंगाल में डेमोग्राफी चेंज के कारण हिंदू-मुस्लिम समीकरण या कुछ इलाकों में हिंदुओं से घृणा वाली बात को आप कैसे देखते हैं?
जवाब: इससे इनकार नहीं किया जा सकता। बंगाल में ये हो रहा है। वहाँ की कुल आबादी का 30% मुस्लिम (कोई 23 बोलता है, कोई 25%… लेकिन वोटिंग वाला आँकड़ा मानें तो 30%) हैं। बांग्लादेश से लगे बॉर्डर जिलों में जैसे – नदिया का बड़ा भाग, दिनाजपुर, मुर्शिदाबाद, मालदा, दक्षिण 24 परगना का बड़ा हिस्सा… ये सब पूरा मुस्लिम बहुल हो चुका है।
इसके पीछे 2 कारण हैं: पहला कारण – सीपीएम की राजनीति के कारण 1990 और 2000 के दशक में बांग्लादेश से अच्छी-खासी संख्या में अवैध घुसपैठ। दूसरा कारण – बहुत सारे बंगाली अच्छे काम, अच्छी सुविधा जैसी चीजों की खोज में पश्चिम बंगाल को छोड़ कर दूसरे राज्यों में पलायन कर गए। आज बैंगलोर में 12 लाख बंगाली हैं। दिल्ली में भी बंगाली भरे हुए हैं। यह एक छोटा सा उदाहरण है। आखिर इसका कारण क्या है? क्या वजह है कि ज्यादातर बंगाली हिंदुओं ने ही पश्चिम बंगाल से पलायन किया है?
इन 2 कारणों के अलावा एक तीसरी समस्या भी है – रोहिंग्या। बड़ी तादाद में रोहिंग्या घुसपैठिए भी यहाँ आकर बस रहे हैं। इन सब को मिला कर पश्चिम बंगाल की डेमोग्राफी बहुत हद तक बदल चुकी है, बिगड़ चुकी है।
पश्चिम बंगाल क्यों बना? पहले यूनाइटेड बंगाल था। फिर विभाजन क्यों हुआ? ये सोचिए। जो ईस्ट बंगाल था, वहाँ हिंदुओं की जनसंख्या 30% थी, आज वहाँ हम 10% भी नहीं हैं। तो ये 20% हिंदू आबादी कहाँ गई? ज्यादातर तो पश्चिम बंगाल में ही आए। क्यों आए? क्योंकि उन लोगों को लगा कि यह उनकी मातृभूमि है। बंगाली हिंदुओं को रहने के लिए जमीन मिले, यही वह वजह थी कि बंगाल विभाजन के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने माँग रखी। इसी सोच के आधार पर ही पश्चिम बंगाल तैयार हुआ। लेकिन अफसोस ‘पश्चिम बंगाल बंगाली हिंदुओं का घर’ आज यह मौलिक सोच ही नष्ट हो रही है। डेमोग्राफी चेंज के कारण ही यह हो रहा है। डेमोग्राफी चेंज कितनी बड़ी समस्या है, इसको असम से भी समझ सकते हैं। 80-90 के दशक में वहाँ इसको लेकर इतना बड़ा आंदोलन भी हुआ।
पश्चिम बंगाल में डेमोग्राफी चेंज के राजनीतिक पहलू को देखें तो आज वहाँ मुस्लिम समुदाय का पॉलिटिकल वीटो है। इसका मतलब हुआ कि मुस्लिम समुदाय ही यह निर्णय करता है कि कौन राज करेगा… और कैसे राज करेगा। इसका मतलब यह भी हुआ कि सत्ता के ऊपर में नाम ममता बनर्जी का हो सकता है, 10 और बंगाली हिंदू नेता-मंत्री हो सकते हैं लेकिन पीछे जो इनको हाँक रहा होगा, वो मुस्लिम समुदाय ही होगा। इसको एक छोटे से उदाहरण से ऐसे समझिए कि कोलकाता में आप मुस्लिम लड़कों को बिना हेलमेट लगाए बाइक चलाते देख सकते हैं, पुलिस हाथ बाँधे खड़ी रहती है। इस राजनीति ने पश्चिम बंगाल में ऐसा ही परिवेश तैयार किया है।
सवाल: आप खुद मीडिया से जुड़े रहे हैं। ऐसे में रेप-हत्या जैसी घटनाओं को कम कर दिखाना या एकदम से छिपाने वाले मीडिया संस्थानों को लेकर सरकारी पहल क्या होनी चाहिए? बंगाल हिंसा के दौरान कुछ मीडिया हाउस ने जिस तरह की कवरेज की, टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट पर कलकत्ता हाई कोर्ट के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने तो मीडिया हाउस से माफी माँगने को भी कहा। इन मीडिया/पत्रकारों पर आपकी प्रतिक्रिया।
जवाब: बंगाल में आज जो मीडिया है, यह फ्री मीडिया नहीं है। वहाँ की मीडिया पर कोई बंदूक ताने खड़ा नहीं रहता है। बंदूक के खौफ से ये लोग सच या खबर को नहीं छुपाते बल्कि छुपाते हैं पैसों के कारण। सरकार पैसे देती है, सरकार के अनुसार खबरों की रिपोर्टिंग होती है। लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होते हैं। मान लीजिए कि बंगाल हिंसा को लेकर भविष्य में कोई इतिहासकार जानकारी जुटा रहा होगा तो क्या पाएगा? वो जब अभी की खबरों-अखबारों को पलटेगा तो ‘कुछ भी नहीं हुआ, छोटी-मोटी घटना हुई’ सोचकर बैठ जाएगा।
बंगाल की मीडिया में आज आप पाएँगे कि ममता बनर्जी को लेकर एक कंपीटिशन है – कौन कितनी बार उनकी फोटो फ्रंट पेज पर छाप रहा है। इससे भी बड़ा एक उदाहरण देखिए। इंडिया गेट के सामने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति लगाने का निर्णय हुआ। यह बंगालियों की भावना के लिए एक बड़ी बात है। लेकिन पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार के फ्रंट पेज तो छोड़िए, अंदर के 10वें पेज पर भी इस खबर को जगह नहीं मिली। ऐसा इसलिए क्योंकि यह मोदी सरकार का निर्णय था। यह वहाँ की मीडिया की मानसिक अवस्था है। यह फ्री प्रेस नहीं है। यह मीडिया भी नहीं है। ये ज्यादा से ज्यादा टाइपिस्ट भर हैं।
सवाल: मीडिया, सच, इतिहास, लेखन आदि से जुड़ा है यह सवाल। विक्रम संपथ पर जब लिबरल लॉबी टूट पड़ी थी तो आपने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक आर्टिकल लिखा। बंगाल हिंसा का जब इतिहास लिखा जाएगा, क्या तब तक इतिहासकारों की राष्ट्रवादी फौज तैयार रहेगी या इक्के-दूक्के होने के कारण तब भी ये वोक लोगों के हमले झेलते रहेंगे?
जवाब: राजनीतिक चश्मे से देखें तो राष्ट्रवादी शक्ति आज बहुत आगे बढ़ चुकी है। सच लेकिन यह भी है कि राष्ट्रवादी सोच से प्रेरित बौद्धिक चेतना या प्रभाव में अभी भी कमी है। यह चिंता का विषय है और हमें सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? तथाकथित बुद्धिजीवी संस्थानों पर आज भी लिबरल/वामपंथी/वोक आदि लोगों का कंट्रोल है। ऐसे में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम लोग अपनी कमियों को पहचानें, अपने लोगों को तैयार करें।
विक्रम संपथ पर लिबरलों का अटैक क्यों हुआ? इसलिए हुआ क्योंकि उसने राष्ट्रवादी एंगल से ऐसा इतिहास लिख डाला, जिसे खारिज नहीं किया जा सकता है। लिबरलों/वामपंथियों की जबकि सोच यह है कि ये तो राष्ट्रवादी है, दक्षिणपंथी है… ये क्या लिखेगा! लेकिन विक्रम संपथ ने ऐसा बेजोड़ लिखा, तभी लिबरल-लॉबी का अटैक भी बहुत तेज और देर तक रहा। अगर घटिया लिखा गया होता तो निश्चित ही वो ज्यादा ध्यान नहीं देते और खिल्ली भी उड़ाते।
राष्ट्रवादी सोच और इससे जुड़े लोगों को लेकर लिबरलों/वामपंथियों की मानसिकता यही है। विक्रम संपथ ने उनकी इसी मानसिकता पर चोट की। कैसे? उसने शानदार लिखा, परिष्कृत लिखा, ऐसा लिखा जो अकाट्य था… इसलिए उस पर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों (लिबरलों/वामपंथियों) ने हमले किए।
इस प्रकरण से हमें सीख लेनी चाहिए। अगर हमें सच में लिबरलों/वामपंथियों के सबसे मजबूत हिस्से पर चोट करनी है तो हमें खुद को बौद्धिक स्तर पर मजबूत बनाना होगा, तथाकथित बुद्धिजीवी संस्थानों पर अपना कंट्रोल करना होगा।
सवाल: पश्चिम बंगाल में हिंसा की राजनीति और उससे उपजे माहौल को लेकर प्रतिक्रिया की बात आपने कही। बंगाल के लोग बदलाव चाहते हैं, यह RSS के एक प्रतिनिधि से भी सुनने को मिला। बीजेपी नेता या एक सासंद के तौर पर इस बदलाव का रोडमैप क्या होगा, बीजेपी सत्ता में कैसे आएगी?
जवाब: सबसे पहले यह जान लीजिए कि बीजेपी बंगाल में एक नई पार्टी है। पूरे भारत भर में बीजेपी की यात्रा को आप जनसंघ तक देख सकते हैं। लेकिन बंगाल में यह 3-4 साल भी पुरानी पार्टी नहीं कही जा सकती। सही मायने में एक पार्टी के स्तर पर जो प्रभाव होना चाहिए, जो नेतृत्व दिखना चाहिए, बंगाल में बीजेपी अभी उस स्तर तक नहीं पहुँची है। हमें बंगाल में नेतृत्व का सृजन करना होगा।
2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बीजेपी को ग्रामीणों इलाकों में शानदार समर्थन मिला। लेकिन शहरी क्षेत्रों में, जिसको बंगाली भद्रलोक कहते हैं, वहाँ इस समर्थन का अभाव रहा… एकदम जीरो। कोलकाता और आस-पास के जो एरिया हैं, जैसे – कोलकाता, हावड़ा आदि… वहाँ 109 सीट है, पुराना प्रेसिडेंसी डिविजन जिसे कहते थे। यहाँ बीजेपी को 1-2 सीट ही मिल पाया। इसका मतलब हुआ कि हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग पर प्रभाव या ऐसे लोगों पर प्रभाव जो ऑपिनियन मेकर हैं, नहीं के बराबर है। कुल मिलाकर प्रभावशाली बंगालियों को अपने प्रभाव में नहीं ले पाई है बीजेपी।
पश्चिम बंगाल में बीजेपी के लिए यह एक बड़ा प्रोजेक्ट है। सांगठनिक स्तर की बात करें तो ओबीसी बंगाली, अनुसूचित जाति-जनजाति आदि लोगों के बीच हमें बहुत समर्थन है। लेकिन शहरी क्षेत्र में यह नदारद है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम 30% वोटिंग वीटो के साथ शुरुआत करते हैं, ऐसे में बीजेपी को सबको साथ लेकर चलना होगा। इसलिए बंगाल के शहरी क्षेत्र, प्रभावशाली बंगाली, तथाकथित बुद्धिजीवी वर्गों को अपने साथ जोड़ने वाला प्रोजेक्ट बीजेपी के लिए सबसे अहम है।