अमेरिका में हुए 9/11 हमले के बाद वह दुनिया के सर्वाधिक मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाला देश बन गया है। खुलेआम गाली-गलौज के बावजूद संयुक्त राज्य अमेरिका ने कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन पर दूसरों को व्याख्यान देते हुए दुर्व्यवहार के लिए दोषी होने से खुद को बचाने में कामयाबी हासिल की है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि उसके पास मीडिया का ऐसा शक्तिशाली ग्रुप है जो अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान और रक्षा ठेकेदारों से बहुत अधिक प्रभावित है।
दूसरी बात यह है कि पश्चिमी शिक्षाविद अमेरिकी साम्राज्यवाद की नीतियों को बहुत अधिक पसंद करते हैं। ताकि इस बात पर विचार कर सकें कि दुनिया भर के कई देशों पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। जब भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले पर चर्चा के लिए परिस्थितियाँ प्रतिकूल होती हैं तो उनका मीडिया और पश्चिमी शिक्षाविदों का एक समूह तुरंत उसके बचाव में आ जाता है और किसी दूसरे मुद्दे को उठाना शुरू कर देता है। ऐसे में हमें भी ‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ सम्मेलन को भी इसी तरह से देखना चाहिए।
‘वैश्विक हिंदुत्व’ का दावा अपने आप में बहुत ही हास्यास्पद है क्योंकि ‘वैश्विक हिंदुत्व’ जैसा कुछ है नहीं। इस्लामी आतंकवाद के अलावा इस दिन और युग में सही मायने में देखा जाय तो केवल वैश्विक राजनीतिक घटना अमेरिकी साम्राज्यवाद है। इसके अलावा दूसरी कोई राजनीतिक विचारधारा वैश्विक स्तर की नहीं है।
यहाँ तक कि अपनी अधिनायकवादी प्रवृतियों के बावजूद चीन भी अपने राजनीतिक दर्शन का विदेशों में प्रसार नहीं करता है। रूस भी इस तरीके की हरकतें नहीं करता है। जबकि, काबुल में हमने ये देखा कि तालिबानी जॉर्ज फ्लॉयड के एक भित्ति चित्र पर पेंटिंग कर रहा था। अब हमें आप य़े बताएँ कि आखिर अफगानों का जॉर्ज फ्लॉयड से क्या लेना-देना है? काबुल में सभी जगहों पर फ़्लॉइड का भित्ति चित्र क्यों है? ये घटनाएँ ऐसी हैं, जिनके बारे में पश्चिमी शिक्षाविद बात तक नहीं करना पसंद करते हैं।
इन तथ्यों को दरकिनार कर वे वैश्विक साजिश का दावा कर दूसरों पर उंगली उठाने में बहुत तेज होते हैं। इसी तरह से टकर कार्लसन को यह कहने का शौक है, “वे आप पर जो भी आरोप लगाते हैं, वे खुद इसके लिए दोषी हैं।”
इसी क्रम में भारत को पराजित करने के लिए पश्चिमी शिक्षाविदों के एक समूह ने एक नई तकनीक की खोज की है। अफगानिस्तान में तालिबान के कब्जे के बाद अब अमेरिका जिहादी संगठन के साथ साझेदारी करना चाहता है। ऐसे में ये पश्चिमी शिक्षाविद इसे हिंदुत्व पर हमला करने का सबसे अच्छा वक्त मान रहे हैं। हम यह पूछने के लिए विवश हैं कि अगर इन शिक्षाविदों को मानवाधिकारों की वास्तव में इतनी ही फिक्र है तो ये लोग पहले अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठान से जवाबदेही क्यों नहीं माँगते? आखिर दान की शुरुआत घर से होती है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी अत्याचार
यह खुद को उन अत्याचारों की याद दिलाने का सबसे सही समय है, जो अमेरिका और उसका समर्थन प्राप्त मिलिशिया ने अफगानिस्तान में किए हैं। अमेरिका के लगातार चार राष्ट्रपति महिलाओं और बच्चों की हत्या के दोषी हैं। ऐसे में ये पश्चिमी शिक्षाविद जो बाइडेन को बचकर निकल जाने का मौका दे रहे हैं।
आनंद गोपाल ने हाल ही में न्यू यॉर्कर में लिखा था, “एक लड़ाई के दौरान शकीरा के पति के चाचा अब्दुल सलाम ने एक दोस्त के घर में शरण ली। लड़ाई समाप्त होने के बाद, वह नमाज़ अदा करने के लिए एक मस्जिद में गया। वहाँ पर कुछ तालिबान भी थे। इसके बाद एक कोएलिशन एयर स्ट्राइक में अंदर लगभग सभी लोग मारे गए। अगले दिन शोक मनाने वाले अंतिम संस्कार के लिए एकत्रित हुए, जिसके बाद दूसरी हड़ताल में एक दर्जन से अधिक लोग मारे गए। लौटाए गए शवों में अब्दुल सलाम उनके चचेरे भाई और छह से पंद्रह साल के उनके तीन भतीजे थे।”
उन्होंने लिखा, “अब्दुल रहमान नाम का एक किसान अपने छोटे बेटे के साथ कूड़ा-करकट बीन रहा था तभी उसे आसमान में अफगान सेना की गनशिप दिखाई दी। वो इतना नीचे उड़ रही थी कि उसने याद किया, “कलाश्निकोव भी उस पर गोली चला सकते थे।” हालाँकि, अच्छी बात ये थी कि वहाँ केवल आम लोग थे कोई तालिबानी नहीं। जैसा कि अपेक्षित था उन्होंने गोलियाँ चला दी और ग्रामीण दाएँ-बाएँ गिरने लगे। इसके बाद भी वे लगातार हमले करते रहे।” एक अन्य गवाह ने कहा, “जमीन पर कई लाशें पड़ी हुई थीं, खून बह रहा था और लोग कराह रहे थे।” ग्रामीणों के मुताबिक, कई छोटे बच्चों समेत कम से कम पचास नागरिक मारे गए थे।
ये कोई अलग-अलग घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि अफगानिस्तान में अमेरिकी कब्जे की सामान्य ट्रेंड है। इतना ही नहीं अमेरिकी सेनाओं का मिलिशिया के साथ भी संबंध है, जिन पर महिलाओं और लड़कों के साथ बलात्कार और हत्या करने का आरोप है। खुद को अफगान महिलाओं का रक्षक बताने वाली अमेरिकी सेना और मिलिशिया दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से कई महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी। लेकिन, पश्चिमी शिक्षाविद इस मामले में अमेरिकी नेताओं से जवाबदेही की माँग करने के बजाय दूसरों पर उंगली उठाने में लगे हैं।
इस्लामी आतंकवाद का सबसे बड़ा समर्थक है अमेरिका
अफगानिस्तान में 20 साल के युद्ध की समाप्ति के बाद अब संयुक्त राज्य अमेरिका ने यह संकेत दे दिया है कि वो तालिबान के साथ एक कार्यशील साझेदारी स्थापित करना चाहता है। ऐसे कई हैरान कर देने वाले उदाहरण हैं, जहाँ अमेरिका ने अपनी विदेश नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए जिहादी समूहों के साथ सशस्त्र गठबंधन किया।
यह सभी जानते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने सीरिया में बशर अल-असद को सत्ता से हटाने के लिए जिहादी संगठनों को हथियार सप्लाई किए थे। अमेरिका ने इसको लेकर दावा किया था कि वो वहाँ के ‘उदारवादी विद्रोही समूहों’ को हथियार दे रहा है, जबकि वो इस बात को भलीभाँति जानता था कि ये हथियार अल कायदा से जुड़े समूहों के हाथों में जा रहे थे। अमेरिका के इन्हीं हथियारों में से कई ISIS के हाथ लग गए, जिसके दम पर उसने एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया था।
अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का बुरी तरह से उल्लंघन करने के बावजूद अमेरिकी साम्राज्यवाद की शायद ही किसी पश्चिमी शिक्षाविद और मीडिया ने कभी आलोचना की हो। इनकी असलियत ये है कि ये लोग साम्राज्यवाद और दूसरे देशों के अंदरूनी मामलों में दखल देने को बढ़ावा देते हैं। उदाहरण के तौर पर देखें तो ये शिक्षाविद नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा कथित मानवाधिकारों के हनन के लिए भारत के खिलाफ सख्त रुख अपनाने के लिए जो बाइडेन प्रशासन से माँग कर रहे हैं।
वर्तमान ‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ सम्मेलन ऐसे व्यक्तियों की शाही कल्पना है, जिन्हें विभिन्न पश्चिमी विश्वविद्यालयों के विभागों द्वारा समर्थन दिया गया है। सवाल ये है कि आखिर अमेरिका किस अधिकार से भारत और हिंदुत्ववादियों, या उस मामले के लिए किसी और को मानवाधिकारों के मामलों पर व्याख्यान करने देता है?
मुस्लिमों का नरसंहार हिंदुत्व ने नहीं, बल्कि अमेरिकी साम्राज्यवाद ने किया है। हिंदुत्व ने मुस्लिम महिलाओं और बच्चों की हत्या नहीं की, अमेरिकी साम्राज्यवाद ने किया है। हिंदुत्व ने दुनिया भर में जिहादी समूहों को सशस्त्र और समर्थित नहीं किया है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका ने ऐसा किया है। लेकिन फिर भी ‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ सम्मेलन करने वाले चाहते हैं कि दुनिया हिंदुत्व को लेकर चिंता करे।
ऐसे लोग पहले अपना घर देखें
‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ सम्मेलन के आयोजकों का हिंदूफोबिया स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। जबकि वे दावा करते हैं कि वे एक ‘राजनीतिक विचारधारा’ के खिलाफ हैं, न कि एक धर्म के। जबकि यह अक्सर देखा गया है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में हिंदुओं को केवल उनकी आस्था के कारण निशाना बनाया जाता है।
उन्होंने यह भी दावा किया कि 20 वीं शताब्दी में हिंदुओं ने जो नरसंहार झेले हैं और आज भी उत्पीड़न जारी है, इसके बावजूद ये सभी ‘हिंदुफोबिया’ से ग्रसित हैं। वे दावा करते हैं कि वे हिन्दुओं नहीं बल्कि हिंदुत्व के खिलाफ हैं, लेकिन उनकी हर कार्रवाई से यह साबित होता है कि हिंदुत्व और हिंदू धर्म एक ही हैं।
दूसरों पर उंगली उठाने से पहले ऐसे शिक्षाविदों को अमेरिकी साम्राज्यवाद के विनाशकारी परिणामों और दुनिया भर में इसके कहर के बारे में जरूर विचार करना चाहिए। जब तक वे युद्ध अपराधों के अमेरिकी अपराधियों को न्याय के दायरे में नहीं लाते उन्हें बाकी सभी के बारे में शांत रहना चाहिए।