अक्सर भारत और हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने के लिए ऐसा प्रदर्शित किया जाता है जैसे हमारे पास जो कुछ भी है, उसके लिए हमें विदेशियों का एहसानमंद होना चाहिए। हमें आक्रांता मुगलों के प्रति आभार जताने के लिए पल-पल मजबूर करने की कोशिश होती है, जिन्होंने देश को लूटा व हिन्दुओं का नरसंहार किया। सोशल मीडिया पर अभी अब्बाजान (#AbbaJaan) भी खूब ट्रेंड करवाया गया। शायद आपको पता न हो, लेकिन समोसा-जलेबी-मिठाई लेकर आने वाले मुगलों (और उसके पहले के इस्लामी आक्रांताओं) की कहानियों के अलावा यह तक गढ़ने की कोशिश की गई कि ‘माताश्री’ और ‘पिताश्री’ जैसे शब्द भी उर्दू की देन हैं। मतलब हमारा अपना कुछ नहीं। इसके लिए लेख तक लिखे गए।
दिसंबर 2017 में आए ‘स्क्रॉल’ के एक लेख का कहना था कि 1988 में आई बीआर चोपड़ा की ‘महाभारत’ के डायलॉग्स के जरिए लेखक राही मासूम रजा ने ‘माताश्री’ और ‘पिताश्री’ जैसे शब्द गढ़े, जो उर्दू के अब्बाजान और अम्मीजान जैसे शब्दों से प्रेरित हैं। इसी तरह भ्राताश्री, भाईजान से बना। ‘स्क्रॉल’ का कहना है कि एक उर्दू लेखक ने उर्दू शब्दों से प्रेरित होकर ऐसे शब्द गढ़े, वरना हिंदी में तो ऐसे शब्द कभी थे ही नहीं। क्या ऐसा सच में है? या यह सिर्फ प्रोपेगेंडा है? समझते हैं।
अगर आप रामायण देखेंगे तो उसमें मेघनाद अपने पिता रावण को ‘पिताश्री’ कह कर सम्बोधित करता है, तो क्या राही मासूम रजा ने इन शब्दों को ईजाद किया, ऐसा उर्दू के पैरोकार कैसे कह सकते हैं? रामानंद सागर ने रामायण के संवाद ख़ुद लिखे थे, ऐसे में इन शब्दों को गढ़ना तो नहीं लेकिन लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें क्यों नहीं मिलना चाहिए? ‘रामायण’ 1987 में ही आई थी, ‘महाभारत’ से भी पहले।
अब कुछ ऐसे पुस्तकों की बात करते हैं, जिनका प्रकाशन 1988 से पहले हुआ और उनमें ‘माताश्री’ व ‘पिताश्री’ जैसे शब्द मिलते हैं। तो क्या ऐसा माना जाना चाहिए कि उन्होंने ‘टाइम मशीन’ में आगे आकर देख लिया था कि राही मासूम रजा ऐसे शब्द गढ़ने वाले हैं, इसीलिए उन्होंने इसका प्रयोग किया? नीचे वाले स्क्रीनशॉट में आप ‘ज्ञानोदय’ नामक पुस्तक के स्क्रीनशॉट्स देख सकते हैं, जिसका प्रकाशन 50 के दशक में हुआ था।
जैसा कि आप देख सकते हैं, इस पुस्तक में कई बार ‘पिताश्री’ शब्द का जिक्र है, जो ये बताता है कि ये शब्द पहले से ही हिंदी काव्य/साहित्य में मौजूद था और इसके उपयोग होता रहा था। इसी तरह लोकप्रिय लेखक मनोहर श्याम जोशी द्वारा 1983 में लिखित पुस्तक ‘बातों-बातों में’ में कई बार ‘पिताश्री’ शब्द का जिक्र है। यहाँ देखिए, जहाँ एक ही पन्ने में तीन बार ‘पिताश्री’ का सम्बोधन दिया गया है:
अब उर्दू भाषा ही संस्कृत के बाद आई है, अतः भारतीय उप-महाद्वीप की अन्य भाषाओं की तरह ये भी उसी मूल से निकली है। इसीलिए, ये कहना बेमानी है कि फलाँ शब्द हिंदी में था ही नहीं, उर्दू से लाया गया है। मुंशी प्रेमचंद ने भी अपने उपन्यासों में इन शब्दों का प्रयोग किया था, जो हिंदी के महान लेखक थे। उनका समय ब्रिटिश काल का है। इसीलिए, इसके श्रेय राही मासूम रजा को देना प्रोपेगेंडा के अलावा और कुछ नहीं है।
ये भी जानने लायक बाद है कि पंडित नरेंद्र शर्मा ने क़दम-क़दम पर राही मासूम रजा की महाभारत के संवाद लिखने में मदद की थी। चाहे पटकथा हो या संवाद, दोनों ही लेखकों की भूमिका अहम थी। ख़ुद राही मासूम रजा कहते थे कि वो महाभारत की भूल-भुलैया वाली गलियों में पंडित जी की ऊँगली पकड़ कर आगे बढ़ते थे। राही जो भी लिखा करते थे, उसे नरेंद्र शर्मा की सहमति के बाद ही आगे भेजा जाता था।