किस्सा कुछ यूँ है कि एक राजा किसी देश पर बरसों से राज कर रहे थे। सालों में उन्होंने आस पास के कई इलाके भी जीत लिए थे और अपना वर्चस्व संधियों के जरिये भी बढ़ाया था। राजा वृद्ध हो चले थे तो जाहिर है उनके युवराज-राजकुमारी भी युवा हो चुके थे। युवराज के लिए समस्या वही अकबर-सलीम वाली थी। जैसे पचास साल राज करने वाला अकबर कब गद्दी छोड़ेगा, कब सलीम खुद राजा बन पाएगा- ये इंतज़ार सलीम से बर्दाश्त नहीं हुआ, वैसा ही युवराज का भी हाल था। वो भी सलीम की तरह राजा को मारकर राजा बनना चाहता था।
उधर बीतती उम्र में परेशान तो राजकुमारी भी हो रही थी। जैसे राजकुमार मन-ही-मन राजा की हत्या करके गद्दी हथियाने की सोच रहा था, वैसे ही उस रात राजकुमारी भी महावत के साथ भाग निकलने की योजना बना रही थी।
राजा साहब के लिए उधर एक दूसरी, अकबर वाली समस्या भी थी। वो बड़े राजा थे, तो जाहिर है बेटी का वैवाहिक सम्बन्ध भी बराबरी वालों में ही करना चाहते थे। इस वजह से राजकुमारी के लिए कोई उचित वर नहीं मिल रहा था।
एक आयोजन करके राजा साहब ने आस-पास के कई राजाओं-सामंतों और अपने गुरु को बुलवा लिया था। वो सोचते थे कई लोगों की सलाह से शायद वो राज्य से संन्यास लेने, सेवानिवृत्त होने के बारे में कुछ फैसला कर पाएँ। आयोजन था तो नाच-रंग का भी प्रबंध था, और राज्य की विख्यात नर्तकी को भी बुलाया गया था। सभा जमी थी तो पूरी रात ही नाच-गाने में बीत चली थी। इतने में सुबह होने से कुछ ही पहले नर्तकी ने देखा कि उसका तबालची ऊँघ रहा है। उसे जगाने के लिए नर्तकी ने इशारों में कहा,
“बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गई बिताय।
एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय।“
इतना सुनना था कि वहीं बैठे राजा के गुरु अपने आसन से उछल कर खड़े हुए और अपना इकलौता कम्बल तबलची को दान कर दिया। उसके बाद वो फौरन वन की ओर चल पड़े। उन्होंने सोचा जीवन पूरा तो साधना में बिताया, अंत समय में कहाँ मैं नर्तकी की महफ़िल में आ बैठा हूँ? उनके रवाना होते होते युवराज हाथ जोड़े खड़ा हो गया। उसे लगा आज मिले या कल, राज्य तो मेरा ही है, कहाँ जरा सी बेचैनी में मैं पिता की हत्या का कलंक सर पर लेने जा रहा था। राजकुमारी भी जरा-से लोभ में गलती करने का इरादा बदल कर उठी, उसने भी महावत के साथ भागने का इरादा बदला।
राजा ने सोचा बुढ़ापे में भी सिंहासन का लोभ छोड़ने के लिए मुझे इतने लोगों की सलाह चाहिए? पूरे जीवन तो मैं अपनी मर्जी से फैसले लेता रहा, आज तो धब्बा लगता। उसने भी मुकुट उतार कर युवराज के सर पर रख दिया। अपने गुरु के पीछे पीछे वो भी वन की ओर चला।
इतने तक की कहानी सुनाते आपको कई कथावाचक मिल जाएँगे। इसे थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर अलग अलग रूप में सुनाया जाता है। भावविभोर होती हिन्दू जनता इसे सुनकर आह-वाह करती अश्रुधारा से पंडाल को सिक्त भी कर देती है। हमारे लिय ये कहानी यहाँ ख़त्म नहीं यहाँ शुरू होती है। ये संवाद यानी कम्युनिकेशन का सिद्धांत है। आप जो भी संवाद करते हैं उसका एक टारगेट ऑडिएंस (target audience) होता है। नर्तकी का टारगेट ऑडिएंस उसका तबालची था। बाकी लोगों के लिए ये संदेश था ही नहीं। उन्होंने जो अर्थ लिया वो सही मतलब नहीं था।
इसका ये मतलब तो कतई नहीं कि बाकी लोगों के लिए नर्तकी की बात का कोई मतलब नहीं निकला। सबने अपने अपने हिसाब से अर्थ तो निकाला ही। आपकी बात का भी ऐसा ही होता है। सुनने-पढ़ने वाले व्यक्ति की मनोस्थिति पर भी आपकी बात का निकाला गया अर्थ निर्भर करता है। वो क्या सोच रहा है, किस हाल में है, गुस्से में है, खुश है, इस पर भी आपके कहे का अर्थ निर्भर करेगा। मनोस्थिति का ठीक ना होना, संवाद में एक किस्म का नॉइज़ (noise) यानी शोर कहलाता है। मन का शांत होना सही अर्थ निकालने के लिए जरूरी है।
ये भी गौर कीजिए कि जिस तबालची को दोहा सुनाया गया था, उस पर क्या असर हुआ ये आपको कहानी से पता नहीं चला है। संवाद में हमेशा दो पक्ष होते हैं- सन्देश भेजने वाले के साथ सन्देश पाने वाले की भी बात होनी थी। कथा इस बारे में कुछ नहीं कहती। ये बिलकुल वैसा है जैसे टीवी, जो आप तक सन्देश तो पहुँचाता है, लेकिन उस सन्देश को आपने कैसे लिया इस बारे में सन्देश भेजने वाले चैनल को कुछ नहीं बताता। यानी टीवी एक कम्युनिकेशन का माध्यम- मीडिया नहीं है, ना ही उसके चैनल में काम करने वाले मीडियाकर्मी हुए।
तो कहा जा सकता है कि तबालची को सन्देश भेज रही नर्तकी अगर अपने दोहे का प्रभाव देखकर खुद को ईश्वरीय सन्देश प्रसारित करने वाला “नबी” घोषित करने लगे तो वो छल होगा। बिलकुल वैसे ही जैसे ब्रॉडकास्ट के माध्यम को कम्युनिकेशन का माध्यम बताने वाले जब खुद को मीडियाकर्मी बताकर “निष्पक्षता” का गुण “ओढ़ते” हैं तब छल होता है। बाकी शोर-शराबा तो सुनाई दे ही रहा है- कोई न कोई छल करने की कोशिश की जा रही है, ये भी समझ लीजिए।