उनका प्रिय सवाल आपने न सुना हो, ऐसा तो नहीं हो सकता! चाहे आप किसी भी क्षेत्र में प्रगति की बातें कर लें, ये नारेबाज गिरोह का प्रिय सवाल आएगा ही। आप मंगलयान कहेंगे तो वो पूछेंगे, इससे ग़रीब को रोटी मिलेगी क्या? आप शिक्षा के क्षेत्र में नए विषयों को जोड़े जाने की बात करें तो वो पूछेंगे, इससे ग़रीब को रोटी मिलेगी क्या? आप बुलेट ट्रेन कहें, सड़कों का निर्माण कहें, उत्तर-पूर्व में कोई पुल बनने की बात करें, कुछ भी कह लें वो हर बार पूछेंगे, इससे ग़रीब को रोटी मिलेगी क्या? उनके आपसी झगड़े भी देखेंगे तो वो सरकार के किसी फ़ैसले के समर्थन में एक भी शब्द कह बैठे अपने ही साथी को फ़ौरन ‘टुकड़ाखोर’ बुलाना शुरू कर देते हैं।
ऐसे में जब नारेबाज गिरोहों की ‘वैज्ञानिक सोच’ की बात होगी तो ज़ाहिर है कि रोटी जहाँ से आती है, उस कृषि पर ही चर्चा होगी। भारत तो वैसे भी कृषि प्रधान देश माना जाता है, इसलिए भी कृषि पर हुए ‘वैज्ञानिक शोध’ की चर्चा होनी चाहिए। हमारा ये किस्सा हमें पिछली शताब्दी के शुरुआत के दौर में आज से करीब सौ साल पहले ले जाता है। ये दौर रूस में कम्युनिस्ट शासन का ‘लाल काल’ कहा जा सकता है। इस काल में, स्टालिन के नेतृत्व में, कम्युनिस्ट शासन (शोषण) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले हज़ारों लोग गुलाग (नाज़ी कंसंट्रेशन कैंप जैसी जेलों) में फिंकवा दिए गए। मारे गए लोगों की गिनती भी लाखों में की जाती है।
इसी दौर में एक अज्ञात से तथाकथित कृषि वैज्ञानिक हुए जिनका नाम था ट्रोफिम ल्यिसेंको (Trofim Lysenko)। इन्होंने 1928 में गेहूँ उपजाने की एक नई विधि ढूँढने का दावा किया। उनका कहना था कि इस विधि से खेती करने पर उपज तीन से चार गुना तक बढ़ाई जा सकती है। इस विधि में कम तापमान और अधिक आर्द्रता वाले माहौल में गेहूँ उपजाना था। खेती से थोड़ा बहुत भी वास्ता रखने वाले जानते हैं कि नवम्बर में जब गेहूँ बोया जाता है, तब जाड़ा आना शुरू ही होता है। मार्च के अंत में इसकी फसल काटने तक, ठण्ड और आर्द्रता वाला मौसम ही होता है। ल्यिसेंको का दावा था कि ठण्ड और आर्द्रता के एक ख़ास अनुपात से पैदावार कई गुना बढ़ेगी।
ऐसे दावे करते वक्त उन्होंने विज्ञान और अनुवांशिकता सम्बन्धी जो नियम बीजों और खेती पर लागू होते, उन्हें ताक पर रख दिया। इस अनूठी सोच के विरोधियों को उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा (अगर इस नाम की कोई चीज़ होती हो तो) का शत्रु घोषित करना शुरू कर दिया। अपने विरोधियों की तुलना वो साझा खेती का विरोध कर रहे किसानों से भी करने लगे। सन् 1930 के दौर में रूस खेती के नियमों को जबरन बदलने की कोशिशों के कारण खाद्य संकट के दौर से गुजर रहा था। सन् 1935 में जब ल्यिसेंको ने अपने तरीके के विरोधियों को मार्क्सवाद का विरोधी बताया तो स्टालिन भी वो भाषण सुन रहे थे। भाषण ख़त्म होते ही स्टालिन उठ खड़े हुए तो ‘वाह कॉमरेड वाह’ कहते ताली बजाने लगे।
इसके बाद तो ल्यिसेंको के तरीकों पर सवाल उठाना जैसे कुफ्र हो गया! वैसे तो ‘वैज्ञानिक सोच’ का मतलब सवालों को सुनना और विरोधी तर्कों को परखना होता है, लेकिन वैसा कुछ गिरोहों की “वैज्ञानिक सोच” में नहीं होता। लेनिन अकैडमी ऑफ़ एग्रीकल्चरल साइंसेज ने 7 अगस्त 1948 को घोषणा कर दी कि ‘ल्यिसेंकोइज्म’ को ही ‘इकलौते सही तरीके’ के तौर पर पढ़ाया जाएगा। बाकी सभी सिद्धांतों को बुर्जुआ वर्ग का और फासीवादी विचारों का कहते हुए हटा दिया गया। 1934 से 1940 के बीच कई वैज्ञानिकों को स्टालिन की सहमति से, ल्यिसेंकोइज्म का विरोधी होने के कारण मरवा दिया गया, या जेलों में फेंक दिया गया।
निकोलाई वाविलोव को 1940 में गिरफ़्तार किया गया था और कम्युनिस्ट कंसंट्रेशन कैंप में ही उनकी 1943 में मौत हो गई। गिरफ़्तार किए गए या कंसंट्रेशन कैंप में डालकर मरवा दिए गए वैज्ञानिकों में आइजेक अगोल, सोलोमन लेविट भी थे। हरमन जोसफ मुलर को अनुवांशिकता (जेनेटिक्स) पर बातचीत जारी रखने के कारण भागना पड़ा और वो स्पेन के रास्ते अमेरिका चले गए। 1948 में ही अनुवांशिकता (जेनेटिक्स) को रूस ने सरकारी तौर पर बुर्जुआ वर्ग की (फासीवादी) सोच घोषित करते हुए, ‘फ़र्ज़ी विज्ञान’ (सूडो-साइंस) घोषित कर दिया। जो भी अनुवांशिकता पर शोध कर रहे वैज्ञानिक थे, उन्हें नौकरियों से निकाल दिया गया।
इस पूरे प्रकरण में 3000 से ज्यादा वैज्ञानिकों को गिरफ़्तार किया या मार डाला गया था। उनकी नौकरियाँ छीन ली गईं और कइयों को देश से भागने पर मजबूर होना पड़ा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि कृषि की दुर्दशा ऐसे फ़र्ज़ी विज्ञान से पूरे ल्यिनकोइज्म के दौर में जारी रही। ये सब 1953 में स्टालिन की मौत होने तक जारी रहा था। बाकी और दूसरी चीज़ों की तरह ही ‘वैज्ञानिक सोच’ के मामले में भी होता है। ‘कॉमरेड की वैज्ञानिक सोच’ का हाल काफी कुछ भस्मासुर से छू देने जैसा है। जिस चीज़ को वो छू दें, उसका समूल नाश होना तय ही है।