बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से पाला बदल लिया है और उनकी पार्टी जदयू राजद छोड़ कर भाजपा के साथ आ गई है। जहाँ कई भाजपा समर्थक नाराज़ हैं कि बार-बार धोखा खाने के बावजूद भाजपा आखिर नीतीश कुमार को क्यों स्वीकार कर रही है। वहीं I.N.D.I. गठबंधन के समर्थक सोच ही नहीं पा रहे हैं कि नीतीश कुमार की आलोचना करें या प्रशंसा, क्योंकि कुछ दिनों पहले तक नीतीश कुमार ही राया-राज्य घूम कर गठबंधन बनाने की कोशिशों में लगे थे, लगातार सक्रिय थे।
आखिर क्या कारण है कि राजद हो या भाजपा, नीतीश कुमार को साथ लेने में कोई नहीं हिचकता और खुद नीतीश कुमार भी किसी के साथ भी जाने में नहीं हिचकते। इसका जवाब नीतीश कुमार की वर्तमान ‘पलटूराम’ वाली छवि नहीं, बल्कि इतिहास में है। उस इतिहास में, जब लालू यादव और रामविलास पासवान एक साथ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। उस इतिहास में, जब लालू यादव गाँव-जवार के पिछड़ों के नेता के रूप में उभर रहे थे, और उनका साथ दे रहे थे नीतीश कुमार।
न सिर्फ पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ का अध्यक्ष बनने में, बल्कि 1988 में कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद नेता प्रतिपक्ष बनने में, और 1990 में मुख्यमंत्री बनने में भी नीतीश कुमार ने लालू यादव की मदद की थी। ये वो दौर था, जब नीतीश कुमार मानते थे कि लालू यादव को आगे बढ़ाने में ही समाजवादी विचारधारा वाले धरे की भलाई है। लालू यादव ट्रांसफर-पोस्टिंग वाले हिसाब-किताब में दक्ष थे (जिससे उन दिनों विधायकों की कमाई होती थी), ड्रामा करने में उनका कोई सानी नहीं था और दिल्ली से लेकर पटना तक सेटिंग करने में भी उनकी दक्षता थी।
इसे एक वाकये से समझिए। एक बार लालू यादव एक श्रद्धांजलि सभा में गए। वहाँ रोना-धोना किया, शोक जताया, परिवार को ढाँढस बँधाया और फिर वापस जाने लगे। तभी वहाँ कुछ पत्रकार आ गए। लालू यादव उन्हें देख कर वापस गए और हूबहू अपना वही ड्रामा दोहरा दिया। जबकि नीतीश कुमार की छवि एक पढ़े-लिखे नौजवान की थी, एक सज्जन की थी, अच्छी वेशभूषा में रहने वाले एक युवा नेता की थी, विचारधारा पर चलने वाले व्यक्ति की थी।
इसके उलट लालू यादव की कोई विचारधारा ही नहीं थी। ‘नीतीश सबके हैं’, इसका एक कारण ये भी है कि लालू यादव, भाजपा और नीतीश कुमार – शुरू में इन सबका ‘दुश्मन’ एक ही हुआ करता था। JP आंदोलन से निकले लालू-नीतीश का ‘दुश्मन’ थी कॉन्ग्रेस। कॉन्ग्रेस पार्टी को सत्ता से बेदखल करने के लिए ही जनसंघ का जन्म हुआ था, जो बाद में भाजपा में परिवर्तित हो गई। इस तरह 1990 के वर्ष को उदाहरण लें तो बिहार में ये सारी शक्तियाँ एक थीं।
इनके एक होने की फिर वही वजह थी – कॉन्ग्रेस। लालू यादव जब पहली बार मुख्यमंत्री बने, तब उन्हें न सिर्फ नीतीश कुमार बल्कि भाजपा का समर्थन भी हासिल था। भले ही ये अल्प समय के लिए ही था। इसके बाद राम मंदिर वाला मुद्दा जोर पकड़ा, लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली और तत्कालीन प्रधानमंत्री VP सिंह के कहने पर लालू यादव ने आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार करवा दिया। मुलायम सिंह यादव कहीं क्रेडिट न लूट ले जाएँ, इस डर ने ऐसा किया गया था।
ऊपर से लालू यादव इसके बाद सेक्युलरिज्म के मसीहा बने सो अलग। लालू यादव हमेशा से महत्वाकांक्षी रहे थे, एक बार एक बड़े नेता का इंतज़ार करने के लिए जब मीडिया से लेकर छोटे-छोटे नेतागण एयरपोर्ट पर खड़े थे तभी लालू यादव ने कहा था कि एक दिन उनका भी ऐसे ही इंतज़ार किया जाएगा। राजनीति का खून जो उन्होंने चखा था, सत्ता का खुमार जो उन्होंने सूँघा था, वो उन्हें मतवाला किए जा रहा था। नीतीश कुमार तब ऐसे नहीं हुआ करते थे।
1994 ने जॉर्ज फर्नांडिस समता पार्टी का गठन करते हैं। भाजपा को भी समाजवाद वाली लहर की आवश्यकता थी। ऐसे समय में जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता को वो साथ लेना चाहती थी और इस तरह लालू यादव के खिलाफ एक गठबंधन बनता है। जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार के साथ भाजपा की साझेदारी की शुरुआत होती है। विपक्ष की राजनीति तब न तो भाजपा के लिए नई बात थी, न ही जॉर्ज-नीतीश के लिए। विपक्षी राजनीति उन्हें सूट करती थी, वो इसके आदी भी हो चले थे।
चूँकि लालू यादव 1990 में ही सत्ता में पहुँच गए और नीतीश कुमार को इसके बाद 15 वर्ष और इंतज़ार करना पड़ा, उनकी छवि एक जुझारू नेता की बन गई। एक ऐसे नेता की, जो लगातार चुनावों में हार के बावजूद रुका नहीं, एक ऐसा नेता जिसने एक साथी को पकड़ा तो लंबे समय तक उसका साथ निभाया, एक ऐसा नेता जो नब्बे के दशक में अंग्रेजी बोल सकता था, एक ऐसा नेता जो एक दुर्घटना के बाद केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे सकता था, एक ऐसा नेता जो जंगलराज के खिलाफ सबसे बड़ा चेहरा बन कर उभरा।
नीतीश कुमार को कभी किसी भाषण में चिल्लाते हुए, ड्रामा करते हुए या फिर उग्र होते हुए नहीं देखा गया। इस ‘सज्जन शहरी बाबू’ ने जब सत्ता सँभाली तो पहले 5 वर्ष में बहुत कुछ बदल गया। नक्सली वारदातों पर लगाम लगी, सड़कों का निर्माण शुरू हुआ, साइकिल योजना के कारण लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा में तेज़ी आई, गाँवों में कैबिनेट बैठक होने लगी, जिले-जिले में CM की यात्राएँ निकलने लगीं, जनता दरबार तक आम लोगों की पहुँच बनी और नेताओं की दबंगई की जगह ब्यूरोक्रेसी ताकतवर हुई।
2013 तक सब ठीक-ठाक चला और आज भी नीतीश कुमार विपक्ष में किए गए संघर्षों और 8 साल किए गए काम की ही मलाई खा रहे हैं। यही कारण है कि इसके एक दशक बाद भी वो ‘सबके’ हैं। 2013 में वो राजद द्वारा बाहर से समर्थन लेकर सरकार बनाते हैं, 2014 के लोकसभा चुनावों में बुरी तरह पटखनी खाते हैं, जीतन राम माँझी को CM बना कर हार की जिम्मेदार लेकर सहानुभूति लहर का फायदा उठाना चाहते हैं, 2015 में राजद के साथ विधानसभा चुनाव जीतते हैं, 2017 में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के नाम पर राजद से गठबंधन तोड़ देते हैं, 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ मिल कर बंपर सीटें जीतते हैं, 2020 के विधानसभा चुनाव में फिर भाजपा के साथ मिल कर सत्ता पर काबिज होते हैं, 2022 में वापस लालू की पार्टी के साथ जाते हैं और 2024 में उनका फिर से मोहभंग होता है और वो भाजपा के साथ आ जाते हैं।
अतः, नीतीश कुमार के सबके साथ चले जाने और सहज हो जाने के पीछे कारण यही है कि वो उस दौर में संघर्षों में रत रहे हैं जब इसी भाजपा के कई नेता उनके मित्र हुआ करते थे और ‘कॉमन एनिमी’ से लड़ रहे थे। खुद लालू यादव उनके जवानी के मित्र हैं। सुशील मोदी जैसे भाजपा नेता कॉलेज के दिनों के मित्र हैं। उस समय की उनकी सज्जन, सौम्य और फिर बाद में सुशासन वाली छवि आज तक उनके काम आ रही है। जो सोशल इंजीनियरिंग उन्होंने पहले की थी और ‘महादलित’ समुदाय वाला दर्जा कई तबकों को दिया, वो आज तक उनके काम आ रहा है।
नीतीश कुमार को पता है कि ये वोट बैंक ऐसा नहीं है कि अकेले 240 सीटों में लड़ कर वो CM बन जाएँ, लेकिन इतना ज़रूर है कि अगर वो किसी के साथ जुड़ जाते हैं तो उनका मुख्यमंत्री पद बरकरार रहे। नीतीश कुमार आज ‘मोदी लहर’ को स्वीकार कर रहे हैं, तभी लोकसभा चुनाव से ऐन पहने पाला बदल रहे हैं। ‘नीतीश सबके हैं’ – क्योंकि I.N.D.I. गठबंधन में उन्हें भाव नहीं मिला, संयोजक का पद नहीं मिला। ‘सबके’ बन कर रहना आज उनकी मजबूरी भी बन गई है।
‘नीतीश सबके हैं’, क्योंकि लालू यादव की ‘गँवार’ वाली छवि के विकल्प के रूप में लोगों ने उनमें एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति दिखा। क्योंकि मंच पर ड्रामेबाजी के विकल्प के रूप में आम जनता ने सामान्य तरीके से दिल की बात करने वाले एक नेता के रूप में उन्हें देखा। क्योंकि एक पार्टी विशेष के गुंडों की दबंगई से त्रस्त जनता ने उनमें एक ‘सुशासन बाबू’ को देखा। क्योंकि लोगों ने इतने बुरे दौर देखे हैं कि ‘सामान्य’ भी बेहतर लगता है। नीतीश पहले विकल्प थे, अब मजबूरी हैं। उनकी राजनीति का ये अंतिम अध्याय है, शायद इसका अंत किसी संवैधानिक पद पर हो!