लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ चुके हैं। बीजेपी की अगुवाई में एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। इस बीच, तीन लोकसभा सीटों पर जनता से चौंकाया है। पंजाब की 2 और जम्मू-कश्मीर की 1 लोकसभा सीट पर अलगाववादी नेताओं को जीत मिली है। इनमें खडूर साहिब (पंजाब) से अमृतपाल सिंह, फरीदकोट (पंजाब) से सरबजीत सिंह खालसा और बारामूला (जम्मू-कश्मीर) से अब्दुल रशीद शेख को चुनाव में जीत हासिल हुई। खास बात ये है कि इन 3 में से दो उम्मीदवार जेल में बंद हैं। दोनों पर ही यूएपीए जैसे बड़े मामले दर्ज हैं। वैसे, ऊपरी तौर पर इन तीनों की जीत देश में लोकतंत्र की मजबूत जड़ों को दिखाते हैं, लेकिन गंभीरता से देखें तो तीनों ही उम्मीदवारों की जीत देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा भी साबित हो सकता है।
बारामूला में अलगाववादी नेता की जीत
जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश की बारामूला लोकसभा सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार अब्दुल रशीद शेख को 45.7 प्रतिशत मत मिले, और उन्होंने 4 लाख 72 हजार 481 मत पाकर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को आसानी से हरा दिया। उमर अब्दुल्ला को महज 25.95% यानी 2 लाख 68 हजार 339 मत ही मिले। अब्दुल रशीद शेख मौजूदा समय में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है।
अब्दुल रशीद शेख जम्मू कश्मीर आवामी इत्तेहाद पार्टी का संस्थापक है और इंजीनियर राशिद के नाम से भी जाना जाता है। इंजीनियर राशिद ने साल 2008 और 2014 का विधानसभा चुनाव भी निर्दलीय ही जाता था। साल 2019 के चुनाव में उसे हार झेलने पड़ी थी। वो साल 2019 से ही आतंकी फंडिंग केस में गिरफ्तार होने के बाद से जेल में बंद है। यूएपीए के तहत जेल में बंद होने वाले पहले बड़े नेता के तौर पर इंजीनियर राशिद का नाम लिया जाता है। इंजीनियर राशिद ऐसे गुट का नेतृत्व करता है, जो जम्मू-कश्मीर में भारत की संप्रभुता को चुनौती देता है। राशिद की जीत इस बात का सबूत है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों का दिल जीतने में अभी भारत सरकार को लंबा सफर तय करता है, क्योंकि अलगाववादी भावनाओं को नियंत्रित करने में समय लगता दिख रहा है।
फरीदकोट में खालिस्तानी नेता की जीत, पिता बेअंत सिंह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का हत्यारा
फरीदकोट में सरबजीत सिंह खालसा चौथी बार चुनाव लड़ा। तीन बार चुनाव हार चुका सरबजीत सिंह खालता बेअंत सिंह का बेटा है। बेअंत सिंह ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या की थी। सरबजीत को 2,98,062 वोट मिले, यानी 29.38% वोट शेयर। उनसे आम आदमी पार्टी के करमजीत सिंह अनमोल को हराया, जिन्हें 2,28,009 वोट मिले, यानी 22.48% वोट शेयर। सरबजीत का परिवार खालिस्तानी भावनाओं के लिए जाना जाता है और खालिस्तान की माँग करता है। सरबजीत सिंह खालसा की जीत ये बताती है कि पंजाब में अब भी खालिस्तानी आँदोलन खत्म नहीं हुआ है और देश की खतरा के लिए पंजाब के ऐसे तत्व बड़ा खतरा बना हुए हैं।
खडूर साहिब में अमृतपाल की जीत बड़ी चुनौती
खडूर साहिब में खालिस्तान समर्थक अलगाववादी नेता अमृतपाल सिंह ने महत्वपूर्ण अंतर से जीत हासिल की। अमृतपाल सिंह को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत केंद्रीय एजेंसियों द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद फिलहाल डिब्रूगढ़ जेल में रखा गया है। अमृतपाल को 4,04,430 वोट मिले, जो 38.62% वोट शेयर के बराबर है। उसने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के कुलबुर सिंह जीरा को हराया, जिन्हें 2,07,310 वोट मिले, जो 19.8% वोट शेयर के बराबर है। दीप सिद्धू के संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ की कमान संभालने के बाद अमृतपाल सिंह ने पंजाब में लोकप्रियता हासिल की। सिद्धू एक खालिस्तान समर्थक नेता भी थे। विशेष रूप से, अमृतपाल को पंजाब में खालिस्तान समर्थक तत्वों द्वारा भिंडरावाले 2.0 के रूप में देखा जाता है।
बता दें कि साल 2023 में अमृतपाल की तलाश में केंद्रीय एजेंसियों और पंजाब पुलिस ने बड़ा अभियान चलाया था। मार्च 2023 से अप्रैल 2023 तक ये अभियान चला और फिर उसे गिरफ्तार किया गया। पंजाब में अमृतपाल खुद को खालिस्तानी आथंकी जरनैल सिंह भिंडरावाले की तरह पेश करता था और वो दावा करता था कि वो ड्रग्स के खिलाफ अभियान चला रहा है। लेकिन अमृतपाल की गिरफ्तारी तक उसके पास लोगों को लड़ाई के लिए ट्रेंड करने वाला एक ट्रेनिंग सेंटर था और उसके हजारों-लाखों अनुयायी बन चुके थे। उसे 4 लाख से ज्यादा वोट मिलना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कतई अच्छा संकेत नहीं है।
संवेदनशील संसदीय दस्तावेजों तक पहुँच
सांसद होने के नाते इन तीनों को केंद्र सरकार से जुड़े संवेदनशील दस्तावेजों तक पहुँच मिल जाएगी, जिन तक आम जनता की पहुँच नहीं है। ऐसी जानकारी का इस्तेमाल लंबे समय में जनता की भावनाओं को प्रभावित करने के लिए किया जा सकता है। इस बात के सबूत हैं कि कुछ सांसदों ने अपने पासवर्ड अनधिकृत व्यक्तियों के साथ साझा किए हैं, महुआ मोइत्रा का उदाहरण लें, जिन्हें पिछले साल दिसंबर में लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया था। कई स्तरों की सुरक्षा के बावजूद, दस्तावेजों तक इस तरह की पहुँच खतरनाक हो सकती है।
लोकतंत्र के नजरिए से सही, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा बढ़ा
लोकतांत्रिक व्यवस्था में पार्टी और विचारधारा से परे स्वतंत्र उम्मीदवारों की सफलता निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया का प्रमाण है। हालाँकि, अलगाववादी नेताओं की ऐसी जीत खतरे की घंटी बजाती है और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संभावित खतरा बन सकती है। इन नेताओं की अलगाववादी और खालिस्तान समर्थक विचारधाराएँ इसी तरह के आंदोलनों को बढ़ावा दे सकती हैं, जिससे क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संतुलन अस्थिर हो सकता है।
इन जीतों को राष्ट्र के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखते हुए उन मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है, जिनकी वजह से अलगाववादी और चरमपंथी विचारधाराओं को पनपने का मौका मिलता है। अब्दुल रशीद शेख, सरबजीत सिंह खालसा और अमृतपाल सिंह की जीत एक स्पष्ट इशारा भी है कि लोकतंत्र, स्वतंत्रता का एक स्तंभ होने के साथ-साथ सतर्क सुरक्षा उपायों के बिना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक दोधारी तलवार भी हो सकता है।
मूल रूप से यह लेख अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है। मूल लेख को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।