कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोटरों को एक साथ लुभाने के लिए एक कॉन्ग्रेस नेता सीमा लांघ गया। पूर्व MLA अजीमपीर खदरी ने एक मुस्लिम उम्मीदवार के लिए वोट माँगते हुए दावा कर दिया कि डॉ भीमराव अम्बेडकर इस्लाम कबूल करने वाले थे और इसके लिए उन्होंने तैयारी भी कर ली थी। खदरी ने कहा कि अगर डॉ अम्बेडकर इस्लाम कबूल कर लेते तो देश के सभी दलित भी मुस्लिम बन गए होते। इसके बाद उन्होंने कॉन्ग्रेस सरकार के दलित मंत्रियों के मुस्लिम नाम भी दे दिए।
खदरी ने क्या कहा?
कर्नाटक के हावेरी में दलितों के आदि जाम्बव समुदाय के एक समारोह में बोलते हुए अजीमपीर खदरी ने कहा, “डॉ. बीआर अंबेडकर इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार थे। लेकिन आखिरी समय में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया… अगर अंबेडकर ने इस्लाम धर्म अपना लिया होता तो देश के सभी दलित मुसलमान बन जाते। तब मंत्री G परमेश्वर को पीर साब, आरबी तिम्मापुर को रहीम साब खान और एल हनुमंतैया को हुसैन साब कहा जाता।” खदरी के इस बयान पर विवाद हो गया। लोगों ने इस पर नाराजगी जताई तो खदरी ने माफ़ी माँग ली।
खदरी ने बाद में डैमेज कंट्रोल के लिए भले ही माफी माँग ली हो लेकिन उनका यह बयान कि डॉ अम्बेडकर इस्लाम कबूल करने वाले थे, सत्यता के पैमाने पर रंच मात्र भी सही उतरता। डॉ अम्बेडकर इस्लाम की खामियों के धुर आलोचक थे और अब्रामिक मजहबों (यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम) में इस्लाम की आलोचना सबसे अधिक करते थे।
डॉ अम्बेडकर ने क्यों नहीं अपनाया इस्लाम?
डॉ अम्बेडकर ने इस्लाम और ईसाइयत को विदेशी मजहब माना। वह धर्म के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं मानते थे, लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल स्वीकार्य था। इसी वजह से उन्होंने ईसाइयों और इस्लाम के मौलवियों का आग्रह ठुकरा कर बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि बौद्ध भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है।
इस्लाम को लेकर क्या सोचते थे अम्बेडकर?
इस्लाम को लेकर जो विचार 1940 के दशक में छपी एक किताब में डॉ अम्बेडकर ने दिए थे, इससे उन्हें आज इस्लामोफोबिक कह दिया जाता। ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ किताब में अम्बेडकर के अनुसार, “हिंदू धर्म के बारे में कहा जाता है कि यह लोगों को बाँटता है और इसके उलट इस्लाम के बारे में कहा जाता है कि यह लोगों को आपस में जोड़ता है। असल में यह केवल आधा सच है। क्योंकि इस्लाम जितनी मजबूती से जोड़ता है, उतनी ही मजबूती से बांटता भी है।”
आगे उन्होंने लिखा, “इस्लाम एक बंद कॉर्पोरेशन है और यह मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद करता है, वह असल में काफी तगड़ा अलगाववादी है। इस्लाम का भाईचारा विश्व के सभी लोगों का आपस में भाईचारा नहीं है। यह मुसलमानों का केवल मुसलमानों के लिए भाईचारा है। यह है भाईचारा, लेकिन इसका फायदा सिर्फ इसी कॉर्पोरेशन के लोगों तक ही सीमित है। जो लोग इस कॉर्पोरेशन से बाहर हैं, उनके लिए इसमें बेईज्जती और दुश्मनी के अलावा कुछ नहीं है।”
सरकार और इस्लाम साथ में संभव नहीं
डॉक्टर अम्बेडकर के अनुसार, “इस्लाम का दूसरा दोष यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की व्यवस्था है और स्थानीय सरकार की व्यवस्था से मेल नहीं खाती क्योंकि मुसलमान की निष्ठा उसके देश में नहीं बल्कि उस मजहब पर टिकी होती है जिससे वह जुड़ा हुआ है। मुसलमान के लिए इबी बेने इबी पैट्रिया [जहाँ मेरा भला हो, वहाँ मेरा देश है] अकल्पनीय है। जहाँ भी इस्लाम का शासन है, वहाँ उसका अपना देश है। दूसरे शब्दों में, इस्लाम कभी भी एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में अपनाने और एक हिंदू को अपना सगा-संबंधी मानने की अनुमति नहीं दे सकता”
देश के कानून से अपने कानून को ऊपर रखता है मुसलमान
डॉ अम्बेडकर ने मुस्लिमों के जहाँ वह रहते हैं, उस कानून को ना मानने और कुरान को उससे ऊपर रखने को लेकर कहा था, “एक और सिद्धांत पर ध्यान देने की जरूरत है, वह है इस्लाम का सिद्धांत, जो कहता है कि किसी ऐसे देश में, जो मुस्लिम के शासन के अधीन नहीं है, जहाँ कहीं भी मुस्लिम कानून और देश के कानून के बीच संघर्ष है, तो मुस्लिम कानून देश के कानून पर हावी होना चाहिए। एक मुसलमान को मुस्लिम कानून का पालन करने और देश के कानून की अवहेलना करने पर सही माना जाएगा।”
मुसलामानों को हिन्दुओं को शासन स्वीकार नहीं
बीते कुछ समय पहले प्रतिबंधित इस्लामी कट्टरपंथी संगठन PFI के बारे में खुलासा हुआ था कि वह भारत में 1947 तक इस्लामी राज लाना चाहता है। इसको डॉ अम्बेडकर ने काफी पहले पहचान लिया था। उन्होंने इस विषय में कहा, “इस्लाम विश्व को दो भागों में बाँटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम तथा दारुल हरब मानते हैं। जिस देश में मुस्लिमों का शासन है, वह दारुल इस्लाम की श्रेणी में आता है। और जिस किसी देश में जहाँ मुसलमान रहते हैं परन्तु उनका राज नहीं है, वह दारुल-हरब होगा। इसके अनुसार उनके लिए भारत दारुल हरब है। इस तरह वे मानव मात्र में भाईचारे में बिल्कुल भरोसा नहीं रखते हैं। यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।”
मुसलमान के लिए हिन्दू काफिर
यह स्पष्ट है कि जो लोग मुस्लिम नहीं है, उन्हें इस्लाम काफिर मानता है। इसको लेकर डॉ अम्बेडकर ने लिखा, “मुसलमानों के लिए हिंदू काफिर है और काफिर सम्मान के लायक नहीं है। वह निम्न कुल का है और उसका कोई स्टेटस नहीं है। इसलिए काफिर द्वारा शासित देश मुसलमान के लिए दार-उल-हरब है। ऐसे में यह साबित करने के लिए कोई और सबूत ज़रूरी नहीं लगता कि मुसलमान हिंदू शासन का पालन नहीं करेंगे।”
आगे उन्होंने लिखा, “सम्मान और सहानुभूति की भावना, जो लोगों को सरकार का पालन करने के लिए प्रेरित करती हैं, यहाँ मौजूद नहीं हैं। लेकिन अगर फिर भी सबूत की ज़रूरत है, तो इसकी कोई कमी नहीं है। असल में यह इतने ज्यादा है हैं कि इनमें से क्या पेश किया जाए और क्या छोड़ा जाए, इसकी समस्या है… ख़िलाफ़त आंदोलन के दौरान, जब हिंदू मुसलमानों की मदद करने के लिए इतना कुछ कर रहे थे, मुसलमान यह नहीं भूले कि उनकी तुलना में हिंदू एक नीच और हीन कौम है।”
डॉक्टर अम्बेडकर के इन विचारों को पढ़ने से स्पष्ट है कि वह इस्लाम कबूल करने की तरफ कभी नहीं बढ़ सकते थे। फिर भी मात्र वोटों के लिए इतिहास को अपने हिसाब तोड़ना मरोड़ना और भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण शख्सियत के बारे में इस तरह से गलत जानकारी फैलाना कॉन्ग्रेस नेता ने सही समझा। दलितों और उनके लिए सम्माननीय लोगों के प्रति कॉन्ग्रेस और उसके नेता कितने संवेदनशील हैं, यह बयान साफ़ दिखाता है। अंत में याद रखना होगा कि इसी कॉन्ग्रेस ने डॉ अम्बेडकर ने दशकों तक वह सम्मान नहीं दिया था, जिसके वह हकदार थे।