Friday, March 29, 2024
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‘हिंदुओं को नापसंद करने के चलते मुसलमानों के पाले में खड़े होना बड़ी भूल होगी’ – कह गए थे आंबेडकर, पढ़िए

हाथरस में दलित संग रेप, हंगामा। दलित संग रेप बलरामपुर में भी लेकिन शांति... हाथरस में आरोपित ठाकुर थे, बलरामपुर में 'मीम'... शांति दिल्ली में भी, जहाँ दलित राहुल को मार डाला जाता है क्योंकि आरोपित यहाँ भी 'मीम' ही! आंबेडकर ने यह भविष्य देख कर ही...

14 अक्टूबर 1956 को नागपुर स्थित दीक्षाभूमि में बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने विधिवत बौद्ध धर्म स्वीकार किया। इसी दिन महाराष्ट्र के चंद्रपुर में आंबेडकर ने सामूहिक धर्म परिवर्तन का एक कार्यक्रम भी किया और अपने 385000 अनुयायियों को 22 प्रतिज्ञाएँ दिलवाईं, जिनका सार ये था कि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद किसी हिंदू देवी देवता और उनकी पूजा में विश्वास नहीं किया जाएगा। हिंदू धर्म के कर्मकांड नहीं होंगे और ब्राह्मणों से किसी किस्म की कोई पूजा अर्चना नहीं करवाई जाएगी। 

इसके अलावा उन्होंने मनुष्य की समानता और नैतिकता को अपनाने संबंधी प्रतिज्ञा ली थी, मगर आज के ‘नवबौद्ध’ उनके मूल्यों से कोसों दूर हैं। आंबेडकर के नाम पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले ‘नवबौद्धों’ में समानता और अहिंसा का कोई रूप नजर नहीं आता। हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुई घटना को लेकर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद उर्फ ‘रावण’ का हंगामा सबने देखा।

यहाँ पर गौर करने वाली बात ये है कि ‘जय भीम जय मीम’ का नारा देने वाले ‘नवबौद्ध’ रावण के लिए बाकी किसी और जाति की तो छोड़िए, दलित भी एकसमान नहीं हैं। वो दलितों को भी एक नजर से नहीं देखते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हाथरस में हुई घटना को लेकर ‘रावण’ की नौटंकी तो हम सबने देखी, लेकिन क्या उसी राज्य के बलरामपुर में एक और दलित लड़की के साथ हुए बलात्कार पर रावण का बयान, ट्वीट या विरोध प्रदर्शन देखने को मिला। नहीं न… क्योंकि यहाँ आरोपित ‘मीम’ थे और हाथरस में आरोपित ठाकुर थे।

इसलिए हाथरस पर ‘संवेदनाओं’ और ‘एकजुटता’ को बोरियों में भर-भर कर उड़ेला गया, लेकिन वही बोरियाँ बलरामपुर की दलित पीड़िता के लिए खाली हो जाती है। खुद को आंबेडकर का अनुयायी बताने वाले ‘नवबौद्ध’ यहाँ पर इसलिए चुप हो जाते हैं, ताकि उनका ‘जय भीम जय मीम’ वाला संतुलन बना रहे और मुस्लिम तुष्टीकरण होता रहे।

इसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के 18 वर्षीय दलित छात्र राहुल की मुस्लिम लड़की के साथ प्रेम प्रसंग होने की वजह से मोहम्मद अफरोज और मोहम्मद राज ने अपने तीन अन्य साथियों के साथ मिलकर उस पर बर्बरतापूर्वक हमला किया। राहुल घायल अवस्था में ही अस्पताल पहुँचा जहाँ इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई।

बलरामपुर और दिल्ली के आदर्श नगर की घटना ने दलित हितैषी कथित बुद्धिजीवियों को नंगा ही नहीं किया बल्कि उदित राज, मायावती और चंद्रशेखर जैसे कथित दलित हितैषी नेताओं की भी पोल खोल कर रख दी है। वे मौन हैं क्योंकि इस मामले में आरोपित न तो सवर्ण हैं और न ही बीजेपी से उनका कोई कनेक्शन। जय भीम-जय मीम के नाम पर दलितों के साथ होने वाले छलावे को यह मामला बेनकाब करता है। इसलिए सबने चुप्पी साध रखी है।

दोनों घटनाओं पर इनकी प्रतिक्रियाओं का अंतर यह भी बताता है कि कैसे मौकापरस्त गिरोह हमारे सामने किसी भी मामले को अपने एजेंडे के अनुसार पेश करता है। अपने नजरिए को ही अंतिम सत्य बताकर हम पर थोपने की कोशिश करता है। हाथरस मामले पर जिस सक्रियता से राणा अय्यूब जैसे कट्टरपंथी, दलित विचारक और उनके हितैषी बन बैठे थे, वह सभी इस घटना पर मौन हो गए।

न किसी ने इस वाकये की निंदा की और न ही दलितों के भविष्य को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। कारण शायद सिर्फ़ एक ही था कि हाथरस में आरोपित सवर्ण निकल आया था, जो इनके एजेंडे के लिए फिट था और दिल्ली में आरोपित मुस्लिम थे, इसलिए ये इनकी राजनीति के लिए फिट नहीं बैठता है।

बाबा साहब ने इस बारे में चेताया था

देश में उथल-पुथल मचा रहे वामपंथियों और बात-बात पर हर किसी को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने वाले यह बताएँ कि क्या किसी ने बाबा साहब को उस शिद्दत से पढ़ा भी है, उनके विचार समझने की कोशिश भी की है, जो कि आज के भारत के निर्माण में जरूरी भी है और समसामयिक भी। बाबा साहब अस्पृश्यता एवं जन्माधारित विशेषाधिकारों पर चल रही समाज व्यवस्था के कट्टर विरोधी थे।

उन्होंने हिन्दू समाज रचना के विविध पहलुओं का गंभीर चिन्तन करने के साथ भारत में मुस्लिम राजनीति का भी विस्तृत अध्ययन किया था। डॉ. आंबेडकर ने भारत पर मुसलमानों के क्रूर तथा रक्तरंजित आक्रमणों का गहराई से अध्ययन किया था। उन चाटुकारों तथा दिशाभ्रमित वामपंथी इतिहासकारों को फटकारते हुए उन्होंने लिखा है, “यह कहना गलत है कि ये सभी आक्रमणकारी केवल लूट या विजय के उद्देश्य से आए थे।”

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

बाबा साहब आंबेडकर ने अनेक उदाहरण देते हुए बताया कि इनका उद्देश्य हिन्दुओं में मूर्ति पूजा तथा बहुदेववाद को नष्ट कर भारत में इस्लाम की स्थापना करना था। इस संदर्भ में उन्होंने कुतुबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक, शाहजहाँ, औरंगजेब और महमूद गजनवी की विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने बताया कि हिंदू मंदिरों को तोड़कर उस पर मस्जिद बनाए गए। बाबा साहब दलितों की जितनी दूरी ब्रह्मणवाद से रखने के पक्ष में थे, उससे कहीं ज्यादा दूरी वो दलितों को इस्लाम से रखने के पक्ष में थे। 

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

आंबेडकर इस्लाम में महिलाओं की स्थिति को लेकर चिंतित थे। वो बहु विवाह प्रथा के खिलाफ थे। आंबेडकर बहु विवाह प्रथा को महिला मुद्दों के साथ जोड़कर देखते थे। वो मानते थे कि इससे स्त्रियों को कष्ट होता है। उनका मानना था कि इस प्रथा में उनका शोषण और दमन होता है। हिन्दू समाज में जितनी कुरीतियाँ हैं, वो सभी मुस्लिमों में हैं ही, साथ ही कुछ ज्यादा भी हैं। मुस्लिम महिलाओं के ‘पर्दा’ प्रथा पर आंबेडकर ने कड़ा प्रहार करते हुए इसकी आलोचना की थी। उनका इशारा बुर्का और हिजाब जैसी चीजों को लेकर था। इन चीजों की आज भी जब बात होती है तो घूँघट को कुरीति बताने वाले लोग चुप हो जाते हैं।

इस्लाम में भाईचारा है, लेकिन कहाँ तक?

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

डॉ आंबेडकर ने साफ-साफ बताया, “मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इस्लाम विश्व को दो भागों में बाँटता है, जिन्हें वे दारुल-इस्लाम तथा दारुल हरब मानते हैं। जिस देश में मुस्लिम शासक है, वह दारुल इस्लाम की श्रेणी में आता है। और जिस किसी देश में जहाँ मुसलमान रहते हैं परन्तु उनका राज नहीं है, वह दारुल-हरब होगा। इसके अनुसार उनके लिए भारत दारुल हरब है। इस तरह वे मानव मात्र में और भाईचारे में बिल्कुल भरोसा नहीं रखते हैं। यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।”

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

इसके अलावा उन्होंने जिहाद पर चर्चा करते हुए कहा था कि हिजरत के अलावा मुस्लिम कानून की एक और निषेधाज्ञा जिहाद है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। ऐसे कई उदाहरण भी हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया। इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

सिर्फ इस्लाम मानने वालों तक सीमित है भाईचारा

आंबेडकर के शब्दों में इस्लाम का भ्रातृत्व सिद्धांत मानव जाति का भ्रातृत्व नहीं है। यह मुसलमानों तक सीमित भाईचारा है। समुदाय के बाहर वालों के लिए उनके पास शत्रुता व तिरस्कार के सिवाय कुछ भी नहीं है। उनके अनुसार इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भी भारत को अपनी मातृभूमि मानने की स्वीकृति नहीं देगा। मुसलमानों की भारत को दारुल इस्लाम बनाने की महत्वाकांक्षा हमेशा रही है। डा. अम्बेडकर ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था, “इस्लाम में राष्ट्रवाद का कोई चिंतन नहीं है। इस्लाम में राष्ट्रवाद की अवधारणा ही नहीं है। वह राष्ट्रवाद को तोड़ने वाला मजहब है।”

साभार: ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’

आखिर क्यों बाबा साहब बौद्ध धर्म की ओर ही गए

आंबेडकर ने इस्लाम और ईसाइयत को विदेशी मजहब माना। वह धर्म के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं मानते थे, लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल स्वीकार्य था। इसी वजह से उन्होंने ईसाइयों और इस्लाम के मौलवियों का आग्रह ठुकरा कर बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि बौद्ध भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है।

बाबा साहब के विचारों को समझने की जरूरत

1945 में डॉ. आंबेडकर की पुस्तक “थाट्स ऑन पाकिस्तान” प्रकाशित हुई, जिसने उनके प्रखर देशभक्त विचारों से अवगत कराया। भारत की राजनीतिक एकता को मूर्तरुप देने का जैसा शानदार कार्य सरदार पटेल ने अंजाम दिया, उसी कोटि का कार्य राष्ट्र की सामाजिक एकता को शक्तिशाली बनाते हुए बाबा साहब डॉक्टर आंबेडकर ने किया।

लेकिन दुखद है कि अलगाववाद की नीति अपनाने वाले भारत में ही रहने वाले कई लोग और वामपंथी ताकतें हमेशा इस देश को और इस एकता को खंडित करने में जुटे रहे हैं। कोरोना महामारी के बीच भी उनके यह प्रयास जारी हैं। जरूरी है कि बाबा साहब को ही नहीं उनके विचारों को भी व्यापक तरीके से तरजीह देते हुए उसे समझा जाए, अपनाया जाए।

उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म को अहिंसा और प्रेम का प्रतीक माना जाता है। सम्राट अशोक ने भी शस्त्र त्याग कर बौद्ध धर्म की शिक्षा-दीक्षा ली थी। लेकिन उसी बौद्ध धर्म और आंबेडकर के नाम पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले आज के ‘नवबौद्ध’ की सेना हिंसा और लोगों को भड़काने के अलावा कुछ नहीं करती है। चाहे वो हालिया हाथरस मामला हो या फिर सीएए के नाम पर दंगा भड़काने का। दलित परिवार को पीटने का आरोप हो या फिर स्वास्थ्यकर्मी पर हमला करने का। इन सभी कृत्यों में भीम आर्मी के नेता, कार्यकर्ता आगे रहते हैं।

आज के भीमवादी और कॉन्ग्रेस उसी नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं, जो बाबा साहब आंबेडकर का बहुप्रतीक्षित सपना था। एनडीए सरकार ने बाबा साहब आंबेडकर के एक लंबे समय से लंबित सपने को पूरा किया है, जिसकी अनुभूति वह अपने जीवनकाल में महसूस नहीं कर सके। सीएए पारित होने के साथ ही भीम आर्मी पार्टी और कॉन्ग्रेस समेत कई विरोधी दल एवं देश के बड़े वर्ग ने इस कानून का उग्र विरोध किया।

उनका कहना था कि यह डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा बनाए गए संविधान के खिलाफ है, क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता और समानता का उल्लंघन करता है। ऐसी स्थिति में गौर करने वाली बात है कि यदि आज आंबेडकर जीवित होते तो इस अधिनियम पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? 

दरअसल 1947 में देश के बँटवारे के बाद पाकिस्तान में हिन्दू और दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार होगा, यह दूरदृष्टा एवं मनीषी डॉ. आंबेडकर को उसी वक्त पूर्वाभास हो गया था। बाबा साहब आंबेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में विभाजन के कई महत्वपूर्ण अनछुए सवाल उठाए हैं। डॉ. आंबेडकर ने कहा था जब तक पाकिस्तान से एक-एक हिन्दू भारत वापस नहीं आ जाएगा तब तक विभाजन की प्रक्रिया शायद समाप्त नहीं होगी।

तो क्या आंबेडकर जानते थे कि जो गरीब पिछड़े, अनुसूचित जाति के हिन्दू पाकिस्तान में रह गए हैं वह इस्लामिक पाकिस्तान से एक दिन वापस जरूर भारत में शरण लेंगे? बाबा साहब को शायद इस बात का भान था कि जिन्ना ने भारत-पाकिस्तान का विभाजन कराते वक्त भले ही यह कहा हो पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क न होकर धर्मनिरपेक्ष मुल्क होगा। लेकिन शायद ही उसके बातों पर किसी को भरोसा रहा हो और बाबा साहब की आशंका इस बात की तस्दीक भी करती है।

उन्होंने सभी दलितों को भी, जो पाकिस्तान में फँस गए थे, कहा था कि मुसलमानों या मुस्लिम लीग पर भरोसा करना उनके लिए घातक होगा। उनको किसी भी तरीके से भारत आ जाना चाहिए। उन्होंने तब सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि निजाम के राज हैदराबाद में रह रहे दलितों को भी चेतावनी देते हुए कहा था कि उच्चवर्गीय हिंदुओं को नापसंद करने के चलते मुसलमानों के पाले में खड़े होना एक बड़ी भूल होगी। कॉन्ग्रेस पार्टी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति को लेकर उन्होंने कहा था कि वह पागलपन की हद तक मुस्लिमों के साथ हैं और अनुसूचित जातियों के लिए उनके हृदय में कोई स्थान नहीं है।

अब सोचने वाली बात है कि जिस मुस्लिम के लिए आंबेडकर ने दलितों को इतना ज्यादा चेताया था, आज भीमवादी उसी मुस्लिम के साथ गठजोड़ बनाकर घूम रहे हैं। क्या यही है उनका आंबेडकर वाला भारत? डॉ. आंबेडकर के बयानों को देखने के बाद तो यह कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने की कोशिश करने वाला कोई भी नेता या पार्टी आंबेडकर की विरासत के साथ धोखा कर रही है।

खुद को ‘दलितों का मसीहा’ कहने वाली मायावती और भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर उर्फ रावण भी सीएए के विरोध में और मुस्लिम के गले में हाथ डाले बैठे हैं। कारण वही वोट बैंक। अब इनके जैसे नेता भी जब डॉ. आंबेडकर का हवाला देकर इस कानून का विरोध कर रहे हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि यदि डॉ. आंबेडकर का वश चलता तो वह देश के बँटवारे के वक्त ही इस समस्या को खत्म कर देते और ओवैसी जैसे नेता पाकिस्तान में होते, क्योंकि डॉ. आंबेडकर के लिए वोट बैंक नहीं, बल्कि देश महत्वपूर्ण था।

बाबा साहब का नाम बेच कर अपनी राजनीतिक फसल काटने वाले दलितों के तथाकथित हितैषियों ने यदि कभी मन से बाबा साहब के विचारों को पढ़ा और समझा होता तो ‘जय भीम-जय मीम’ गठजोड़ की बात ही नहीं करते। इनकी मानें तो मुगल आततायियों ने भारत में केवल ब्राह्मण-ठाकुर और अगड़ी जाति वाले लोगों को ही चुन-चुन कर मारा। उनकी यातनाओं के शिकार केवल और केवल अगड़ी जाति की बेटियाँ और महिलाएँ हुईं। 

मुगलों ने तो जैसे अनुसूचित जातियों के लोगों को गोद में खिलाया हो, मुगलों ने सदैव ही दलित महिलाओं का सम्मान किया हो, शायद यही वजह है जो आजकल के ‘नवबौद्ध’ जिनका वास्तविक ‘बौद्ध धर्म’ के विचारों से कोई सरोकार नहीं होता वो उसी मुगल के वंशजों को अपना हितैषी और हिन्दू धर्मावलंबियों को अपना दुश्मन समझते हैं। 

आए दिन किसी भी मंच पर भारतीय संविधान लहराते हुए पहुँच जाने वाले और अपनी हर दो पंक्ति में तीन बार बाबा साहब का नाम लेने वाले दलितों के स्वयंभू नेता कभी भी मुस्लिमों के प्रति बाबा साहब के विचारों का ज़िक्र तक नहीं करते। वो विभाजन और पाकिस्तान निर्माण पर बात करना भी नहीं चाहते। सम्भवतः उन्हें इस बारे में ज्यादा ज्ञान ना हो या फिर वो इस बारे के बात करके अपनी राजनीतिक दुकान बंद नहीं करवाना चाहते।

खुद को बौद्ध धर्मावलंबी बताना और ‘नमो बुद्धाय’ का नारा देने के पीछे उनकी एक ही मनसा नजर आती है वो है हिन्दू धर्म व ब्राह्मण-क्षत्रिय एवं अगड़ी जातियों से घृणा। इस घृणा के खेल में वो इतने आगे निकल गए कि आज पूरा विश्व जिस इस्लामिक आतंकवाद से त्रस्त है, उसके हितैषी बनने में भी इन्हें कोई गुरेज नहीं। बौद्ध धर्म के मूल समानता व अहिंसावादी विचारों, जिसका जिक्र डॉ. आंबेडकर ने भी किया था, उसको ही अपना आदर्श मान कर यदि ये आगे बढ़ते तो शायद समाज मे आज इतनी वैमनस्यता नहीं होती, किन्तु अपने राजनीतिक हित को साधने हेतु ये उससे कोशों दूर निकल चुके हैं। आंबेडकर को इन्होंने ‘एक हिन्दू से बौद्ध में धर्मांतरित व्यक्ति’ के अलावा कुछ समझा ही नहीं।

मौजूदा परिपेक्ष्य में देखें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, तमिलनाडु और कई राज्यों में दलितों पर हुए अत्याचार, जिसमें आरोपित ‘मीम’ हो, उन विभत्स घटनाओं में भी आधुनिक दलित हितैषियों को साँप सूँघ जाता है, इनके मुँह से संवेदना के दो शब्द भी नहीं निकलते। वहीं आरोपित यदि अगड़ी जाति का हो तो इनके लिए सामाजिक वैमनस्यता फैलाने, दंगे भड़काने और अपनी राजनैतिक ज़मीन तैयार करने का एक सुनहरा मौका बन जाता है।

हाथरस कांड में नक्सल कनेक्शन सामने आना, राजनैतिक गिद्धों द्वारा मामले को तूल देना और नक्सली भाभी का भीम आर्मी से कनेक्शन सामने आना इस बात को दर्शाता है कि बाबा साहब के नाम पर राजनीतिक फसल काटने वाले लोग इस क्रम में इतने नीचे गिर चुके हैं कि आज के परिपेक्ष्य में डॉ. आंबेडकर के विचारों का इनसे कोई सरोकार नहीं। आज ‘जय भीम-जय मीम’ का नारा लगाने वाले शायद इस बात से वाकिफ नहीं हैं कि बाबा साहब मजहबी कट्टरता और पाकिस्तान को जन्म देने वाले ‘द्विराष्ट्रवाद’ के विचार के कितने बड़े विरोधी थे।

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