क्या आपने कभी सोचा है कि देश में आतंकवाद शब्द के इस्तेमाल पर भी सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वालों में एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ही क्यों होते हैं? मुद्दा चाहे इस्लामिक चरमपंथ का हो, मजहबी नारे लगाते हुए भीड़ द्वारा किसी मंदिर को अपवित्र करने का हो या फिर बच्चों को कट्टर बनाने वालों का हो, सबसे पहले बौखलाने वाला नाम असदुद्दीन ओवैसी का ही होता है।
ओवैसी के दुःख का नया कारण सीडीएस जनरल बिपिन रावत का कट्टरता और चरमपंथ को रोकने वाला बयान है। या ये कहें कि एक बार फिर ओवैसी ने उड़ता हुआ तीर ले लिया है। रायसीना डायलॉग के दौरान CDS जनरल बिपिन रावत ने कहा कि कश्मीर में 10 साल से कम उम्र के लड़के-लड़कियों को कट्टरपंथी बनाया जा रहा है। जनरल रावत ने कहा कि ऐसे बच्चों को शांतिवार्ता से कट्टरपंथी बनाए जाने की ऐसी मुहिम से अलग कर सकते हैं।
इसके बाद ओवैसी को खबरों में आने की एक और वजह मिल गई और उन्होंने सवाल किया है कि जनरल बिपिन किस-किस को डिरेडिकलाइज़ करेंगे? साथ ही सीडीएस जनरल रावत को सलाह दी है कि उन्हें नीतियाँ नहीं बनानी चाहिए। यहाँ तक कि ओवैसी ने सीडीएस बिपिन रावत के बयान की तुलना कनाडा में अंग्रेज हुकुमत के द्वारा किए गए जुल्म से कर डाली है।
हालाँकि, इस्लामिक पत्थरबाजों और हर दूसरे दिन 72 हूरों की ख्वाहिश लिए ISIS से जुड़ने वाले युवाओं की तुलना ओवैसी आज तक किसी से नहीं कर पाए हैं। हो सकता है कि वो जानते हों कि किसी और से इस जिहादी विचारधारा की तुलना करना कितना हास्यास्पद और अतार्किक है।
जनरल बिपिन रावत बेवजह ही नीति और योजना बनाने की परेशानी मोल लेते हैं। जबकि, ओवैसी जानते हैं कि नीतियाँ तो सिर्फ वही हैं जो आसमानी किताब में दी गई हैं और उसके अलावा दूसरी कोई नीति होती ही नहीं है ना ही किसी को बनाने पर विचार करना चाहिए।
‘रावत किस-किस का डिरेडिकलाइज़ करेंगे?’ वाला ओवैसी का सवाल भी एकदम सही है। जिस ओवैसी के खुद अपने ही घर में हिन्दुओं को 15 मिनट में सबक सिखाने जैसे भाषण देने वाला भाई हो, उसकी जुबान से ऐसा सवाल पूछना वाजिब लगता है। देखा जाए तो सबसे पहला जवाब तो ओवैसी बंधुओं के अपने घर में मौजूद अकबरुद्दीन ओवैसी है, जिसे शायद अभी भी ठीक से डि-रेडिकलाइज़ किया जाना बाकी है। हालाँकि, इसमें तथ्यात्मक त्रुटि इतनी जरूर हो सकती है कि अकबरुद्दीन की वास्तविक उम्र 10 साल से ज्यादा ही है। लेकिन उनकी मानसिक उम्र नीचे जा सकता है कि वो फिर भी इस पैरामीटर में एकदम फिट बैठते हैं।
एक ओर पूरे देश के मुस्लिमों में असदुद्दीन ओवैसी नागरिकता रजिस्टर (NRC) पर लोगों को डिटेंशन कैम्प भेज दिए जाने जैसी भ्रामक बातों से डराकर उन्हें सरकार के खिलाफ उकसाते हैं, और दूसरी तरफ वही ओवैसी, आतंकवाद से निपटने की सरकार और तंत्र की रणनीतियों में अपनी कट्टरपंथी विचारधारा का नैरेटिव जोड़ देते हैं।
कश्मीर से लेकर हैदराबाद और केरल तक अक्सर छोटे बच्चों को कट्टरपंथियों द्वारा अपने मिशन का हिस्सा बनाया जाता रहा है। खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि फलाँ जगह पर ISIS युवाओं से सम्पर्क कर अपनी कार्यशाला चला रहा था। महीने में कम से कम 2 ख़बरें तो ऐसी होती हैं जिनमें स्पष्ट रूप से किसी बच्चे को इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा ब्रेनवाश किए जाने की घटना शामिल होती है।
अक्सर यह भी देखा गया है कि इस्लाम में दीनी शिक्षा के पहले चरण यानी, मदरसे में ही आतंकवाद और ट्रेनिंग का केंद्र बनाया गया है। वर्ष 2018 में शिया सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड ने भी पीएम नरेंद्र मोदी से अनुरोध किया था कि देश में मदरसों को बंद कर दिया जाए। बोर्ड ने आरोप लगाया था कि ऐसे इस्लामी स्कूलों में दी जा रही शिक्षा छात्रों को आतंकवाद से जुड़ने के लिए प्रेरित करती है।
CAA-NRC के विरोध में बच्चों का इस्तेमाल
हाल ही में सेव चाइल्ड इंडिया NGO ने नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ चाइल्ड राइट्स (NCPCR) में इस बात को लेकर अपनी शिक़ायत भी दर्ज करवाई है कि नागरिकता कानून के खिलाफ हो रहे विरोध-प्रदर्शनों में बच्चों का इस्तेमाल किया जा रहा है। NGO का कहना है कि यह बच्चों के अधिकारों का घोर उल्लंघन है और यह बाल शोषण की श्रेणी में आता है। इन बच्चों का इस्तेमाल दिल्ली के शाहीनबाग में CAA और NRC के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध-प्रदर्शन में भड़काऊ नारे लगाने के लिए किया जा रहा है।
आज ही एक SIT जाँच में खुलासा हुआ है कि मुजफ्फरनगर में एंटी-सीएए विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई झड़प में बच्चों को पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाया था। जाँच एजेंसी ने आरोपितों पर जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 की धाराएँ लगाईं हैं।
जिस सरकार और तंत्र की दुहाई ओवैसी जनरल बिपिन रावत के बयान के विरोध में कह रहे हैं उन्हें यह भी याद रहना चाहिए कि अगस्त 2016 में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के आह्वान को याद करते हुए इस बात पर खेद प्रकट किया था कि कश्मीरी युवकों के हाथ में पत्थर नहीं, लैपटॉप होने चाहिए।
एक रिपोर्ट के अनुसार, जुलाई 2019 में भी एक घटना सामने आई थी जिसमें गृह मंत्रालय ने लोक सभा में एक सवाल के लिखित जवाब में कहा था कि बांग्लादेशी आतंकी संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन-बांग्लादेश द्वारा कट्टरता फैलाने और युवाओं की भर्ती गतिविधियों के लिए बंगाल के बर्धवान और मुर्शिदाबाद स्थित कुछ मदरसों का इस्तेमाल कर रहा है।
अब स्वयं ओवैसी बताएँ कि उन्होंने अपने स्तर पर कितने हिन्दू-मुस्लिम युवाओं को नई शिक्षा पद्दति से जोड़ने के प्रयास किए? मैंने कभी भी ओवैसी को मदरसे में चली आ रही परम्परागत गैर-वैज्ञानिक शिक्षा के खिलाफ बोलते हुए नहीं सुना। ना ही वो कभी इस बात की वकालत करते हैं कि मुस्लिम बच्चों को भी मुख्यधारा की शिक्षा पद्दति से जुड़ने की जरूरत है ताकि वो भी सीबीएससी और एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम से जुड़ सकें।
युवाओं को कट्टरपंथी बनाने की ऐसी ही तमाम घटनाओं को यदि असदुद्दीन ओवैसी जैसों के लिए नजरअंदाज भी कर दिया जाए तो कश्मीर घाटी के पत्थरबाज, जो अब अक्सर दिल्ली जैसे मेट्रो शहर और देहरादून जैसे कस्बाई परम्परा वाले छोटे शहरों में भी देखे गए हैं उन्हें किस तरह से भुलाया जा सकता है? क्या ये युवा एक ही दिन में सरकार और सेना के खिलाफ पत्थर उठाने के लिए तैयार हो गए? जवाब है- नहीं।
ये लोग बचपन से ही संस्थागत तरीके से तैयार किए जाने वाले लोग होते हैं जिन्हें ओवैसी जैसे लोग ही अपनी मानसिकता के जहर के लिए इस्तेमाल करते हैं क्योंकि ओवैसी जानते हैं कि अगर इस तरह के कट्टरपंथी समर्थक ही नहीं रहेंगे तो उनकी दकियानूसी विचारधारा पर वाहवाही कौन करेगा?