घर से बाहर रह रहे लोगों को भले ही साल भर फुरसत ना मिले किन्तु तीज त्योहार पर घर और घर की यादें खींच ले जाती हैं अतीत में।
हमारा भी हाल कमोबेश यही है कुछ कि तीस साल घर से बाहर गुज़ार लेने के कारण घर ज़्यादा याद आता है होली दीवाली पर।
बुंदेलखंडी होने के कारण बचपन की यादों में एक याद ये भी है कि पड़वाँ के दिन होली नहीं खेली जाती है झाँसी में। पड़वाँ यानी कि होली दहन के बाद का दिन झाँसी वालों के लिए शोक दिवस होता था, सो रंगों का कार्यक्रम दूज वाले दिन होता था।
जो कारण यादों में बसा हुआ है या यूँ कहिए बसा हुआ था कल रात तक, वो ये था कि पड़वाँ वाले दिन झाँसी नरेश, महाराज गंगाधर राव का देहांत हो गया था। कल रात जब होली के बारे में कुछ जानकारी एकत्रित कर रहा था तो महराजा के मृत्यु दिवस पर दृष्टि गई।
21 नवम्बर ,1853 की तारीख इतिहास के पन्नों में दर्ज है। ध्यान नहीं गया एक बार और फिर चौंक गया। होली और नवम्बर कुछ जम सा नहीं रहा था।
और खंगालना शुरू किया तो पता ये चला कि महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु दिवस में तो कोई गड़बड़ नहीं है किन्तु ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फरवरी माह में जारी वो काला अध्यादेश, जिसमें महाराज के दत्तक पुत्र को राज्य से बेदखल कर देने की बात थी, 13 मार्च 1854 को झाँसी पहुँचा था। इसी वर्ष 14 मार्च को होली जलाई गई थी। अध्यादेश की जानकारी लोगों को अगले दिन हुई, जिसके बाद होली नहीं मनाई गई। इसके बाद से ही यह परम्परा चली आ रही है।
इतिहास के जानकार और पारिवारिक मित्र श्री मुकुन्द मेहरोत्रा जी की जानकारी के तथ्यों के अनुसार होलिका दहन के अगले दिन महाराजा गंगाधर राव की पुण्यतिथि मनाई जाती थी और इससे भ्रम की स्थिति बन गई।
वैसे क्या आपको पता है कि रंगों के त्योहार की शुरुआत कहाँ से हुई थी?
अगर आप किसी से ये सवाल पूछें भी तो उसका जवाब शायद ब्रज होगा लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल रंगों के त्योहार होली की शुरुआत बुंदेलखंड के एरच कस्बे से हुई है, जो झाँसी जिले में पड़ता है।
क्यूँ चौंक गए ना?
जी हाँ, यही वो कस्बा है, जो कभी असुरराज हिरण्यकश्यप की राजधानी हुआ करता था। इतिहास में इस बात के प्रमाण भी हैं कि सतयुग में इस एरच को ही ‘एरिकच्छ’ के नाम से जाना जाता था।
एरच के पास बेतवा नदी के किनारे डिकोली गाँव है। बताया जाता है कभी इस गाँव की जगह डिंकाचल पर्वत हुआ करता था। इसी पर्वत से प्रह्लाद को वेतवा नदी में फेंकने का प्रयास किया गया था लेकिन वे भगवान विष्णु के आशीर्वाद की वजह से बच गए। बाद में प्रह्लाद को हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर आग में जलाकर मारने का प्रयास किया। लेकिन ये भी संभव नहीं हो पाया और वरदान प्राप्त होने के बावजूद इस आग में खुद होलिका ही जल गई।
कहा जाता है बाद में नरसिंह अवतार में हिरण्यकश्यप को मारने के बाद भगवान ने यहीं असुरों को गुलाल लगाकर उनसे आपसी दुश्मनी को खत्म करने का संदेश दिया था। वहीं लोगों ने बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक इस पर्व पर लोगों को रंग लगाकर उत्सव मनाना शुरू किया।
इस इलाके में पुराने महल के भग्नावशेष भी मिलते हैं, जो हिरण्यकश्यप के महल के बताए जाते हैं। खुदाई के दौरान यहाँ हिरण्यकश्यप काल की शिलाएँ और होलिका की गोद में बैठे प्रह्लाद की मूर्तियाँ भी मिली हैं, जो ये साबित करती हैं कि होलिका, हिरण्यकश्यप का संबंध इसी इलाके से रहा है।
वैसे बुंदेलखंड में पड़वाँ वाले दिन होली ना मनाने का एक कारण कुछ लोग राजा हिरण्यकश्यप और उसकी बहन की मृत्यु को भी बताया करते हैं।
इण्टरनेट को खँगालें तो उत्तर प्रदेश के हरदोई व बिहार के पूर्णिया जनपद को राजा हिरण्यकश्यप की रियासत बताने के साथ होली की शुरुआत वहाँ से होने का दावा किया गया है।
फिलहाल होली शुरू कहीं से भी हुई हो, आप कहीं भी किसी को रंग लगा सकते हैं। आज पड़वाँ है तो हम तो खेलने वाले नहीं होली, आप जी भर कर खेलिए और रंग-अबीर से आसमान को रंगीला राजा बना डालिए।
आप सभी को होली की शुभकामनाएं ❣
भारत की विविधता, संस्कृति, लोक कला, साहित्य को समेटती होली, हर राज्य में अलग रंग
वह दौर जब होली ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी हो गई थी