जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा जिन्हें हम जेआरडी टाटा के नाम से भी जानते हैं किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्हें हवाई क्षेत्र का पिता भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने देश की पहली अंतरराष्ट्रीय विमान सेवा ‘एयर इंडिया’ की नींव रखी थी। इसके अलावा वह सबसे लंबे समय तक टाटा समूह के चेयरमैन भी रहे।
नब्बे के दशक में पत्रकार राजीव मल्होत्रा ने उनका एक साक्षात्कार किया था। यह साक्षात्कार एक शृंखला के तहत किया गया था जिसका प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ था। टाटा समूह की वेबसाइट के मुताबिक़ यह साक्षात्कार साल 1987 में वसंत के दौरान हुआ था। ऐसा बताया जाता है कि यह जेआरडी टाटा का इकलौता साक्षात्कार है। इस बातचीत के दौरान उन्होंने विविध विषयों पर चर्चा की, उनके पेशेवर जीवन से लेकर राजनीतिक प्रभाव और योजनाओं – नीतियों तक। इस बातचीत में उन्होंने एक और मुद्दे पर विस्तार से अपने विचार रखे और वह था पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु की सरकार में आर्थिक विकास की रफ़्तार कम होना। बाद में यह प्रक्रिया कॉन्ग्रेस के शासन में भी जारी रही।
जेआरडी टाटा की विनम्रता
इस साक्षात्कार का एक हिस्सा इन दिनों सोशल मीडिया पर खूब साझा किया जा रहा है। जेआरडी टाटा की अगुवाई में ही टाटा समूह की कुल संपत्ति 101 मिलियन डॉलर से 5 बिलियन डॉलर तक पहुँच गई थी। जेआरडी ने कहा कि एयर इंडिया के अलावा ऐसा कुछ नहीं था जिसे उन्होंने टुकड़ों से उठा कर तैयार किया हो या कुछ नया तैयार किया हो। उनके मुताबिक़ काफी हालात ऐसे थे जो उन्हें पहले से ही मिले थे। जब 1926 में उनके पिता रतनजी दादाभाई टाटा का निधन हुआ
तब भी टाटा समूह की अगुवाई ऐसे लोगों का समूह कर रहा था जो अपने कार्य में कुशल थे। उनका काम सिर्फ कार्य कुशल लोगों के समूह को प्रेरणा और बढ़ावा देना था। कम उम्र में प्राप्त की गई उपलब्धियों को सरलता से बताते हुए फिलांथ्रोपिस्ट (जन हितैषी) जेआरडी टाटा ने इस पर मज़ाक किया। माजाक करते हुए उन्होंने कहा, “मुझे समय से पहले 34 साल की उम्र में टाटा समूह का चेयरमैन बना दिया गया था। यह मेरे लिए किसी मानसिक झटके से कम नहीं था।”
कैसे मोरारजी देसाई ने जेआरडी टाटा से छीनी एयर इंडिया की चैयरमैनशिप
बातचीत के दौरान एयर इंडिया के लिए उनका जुनून साफ़ तौर पर नज़र आ रहा था। उन्होंने कहा, “मुझे ऐसा लगता है एयर इंडिया इकलौती ऐसी चीज़ है जिसके लिए मैं पूरी तरह ज़िम्मेदार हूँ।” इसके बाद उन्होंने यह बताया कि कैसे वह 1978 तक एयर इंडिया की चेयरमैनशिप संभाल रहे थे। जब तक तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने फरवरी में उन्हें सेवाओं से मुक्त नहीं कर दिया था। जेआरडीटाटा ने इस संबंध में कहा, “उन्होंने (मोरारजी देसाई) 8-10 दिन तक मुझे इस बारे में सूचित नहीं किया था। अंत में एक दिन मुझे पत्र मिला जिसमें मुझे मेरी सेवाओं के लिए धन्यवाद दिया गया था।”
प्रधानमंत्री से अपने उतार चढ़ाव भरे रिश्तों को मद्देनज़र रखते हुए जेआरडी टाटा का यह मानना कि उनके लिए यह पूर्णतः अप्रत्याशित था। इसके अलावा उन्होंने कहा, “प्रधानमंत्री मोरारजी उनके बहुत अच्छे मित्र थे फिर भी वह एक जटिल व्यक्ति थे। मेरे लिए उनका यह कदम निराशाजनक था और जिस तरह से उन्होंने कार्रवाई की वह सही नहीं था। साल 1978 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जेआरडी टाटा को एयर इंडिया की चेयरमैनशिप से मुक्त किया और इंडियन एयरलाइंस के निदेशक पद से भी मुक्त कर दिया। इसके ठीक एक साल पहले उन्हें परमाणु ऊर्जा आयोग के बोर्ड से भी निकाला गया था जबकि वह 1948 से इस बोर्ड का हिस्सा थे। उन्हें अपने निष्कासन की सूचना रेडियो के ज़रिए मिली और उस वक्त वह जमशेदपुर में थे।”
9 फरवरी को जेआरडी टाटा को प्रधानमंत्री द्वारा भेजा गया एक पत्र मिला। यह पत्र 4 फरवरी को लिखा गया था और 6 फरवरी को राजधानी दिल्ली से भेजा गया था। इसके बाद 11 फरवरी को समाचार समूहों ने इस बात की आधिकारिक सूचना जारी की कि 1 फरवरी को उन्हें अपनी सेवाओं से मुक्त कर दिया गया था। जेआरडी टाटा ने इस कार्रवाई से बहुत ज़्यादा निराश हुए थे क्योंकि उन्होंने कई दशकों तक एयर इंडिया की कमान संभाली थी।
इसके बावजूद बिना किसी पारिश्रमिक के उन्हें पद से मुक्त कर दिया गया था। इस मुद्दे पर बयान देते हुए जेआरडी टाटा ने कहा, “मुझे इस बात की पूरी उम्मीद थी लेकिन मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरे इस अनुमान को आप घमंड नहीं समझेंगे। मैंने लगभग 45 सालों तक भारतीय विमान क्षेत्र को अपनी सेवाएँ दी हैं इसलिए मुझे इस बात की सूचना सार्वजनिक तौर पर मिलनी चाहिए।”
एयर इंडिया के संबंध में हुए इतने बड़े बदलाव से विमान सेवा के क्रू से लेकर आम जनता तक सभी में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा था। एयर इंडिया की सफलता और विकास का पूरा श्रेय जे आरडी टाटा को ही दिया जाता था। मोरारजी देसाई का यह निर्णय उनकी छवि के लिए बेहद नकारात्मक साबित हुआ। इतना ही नहीं उनके इस फैसले को बतौर प्रधानमंत्री सबसे अनुचित निर्णयों में से एक माना जाता है।
इतना मूर्ख था कि एक पड़ाव पर कॉन्ग्रेस में शामिल होने की सोचता था – जेआरडी टाटा
साक्षात्कार में उनसे यह पूछा गया कि क्या उन्हें कभी स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने की इच्छा हुई थी। इस पर जेआरडी टाटा ने कहा, “मैं इतना मूर्ख था कि कभी कभी ऐसा सोचता था कि कारोबार छोड़ कर कॉन्ग्रेस पार्टी का हिस्सा बन जाऊँ। बेशक मैं जवाहर लाल नेहरु से बहुत प्रभावित था लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ आया कि इसका मतलब होगा गिरफ्तार होकर जेल जाना। जबकि मैंने ऐसा कुछ किया भी नहीं होगा जिसके लिए मुझे जेल जाना पड़ता। यह एक बड़ा कारण था कि वीर सावरकर ने अंग्रेज़ों को पत्र लिखा। उन्हें पता था कि जेल के भीतर रह कर देश के लिए कुछ नहीं किया जा सकता है।”
नीति और योजनाओं से जुड़े फैसलों में नेहरु ने भयावह गलतियाँ की
खुद को गैर राजनीतिक करार देते हुए जेआरडी टाटा ने कहा, “जब मैंने कॉन्ग्रेस की नीतियों को समझना शुरू किया तब महसूस हुआ कि इसका विरोध किया जाना चाहिए। बशर्ते मैं जय प्रकाश नारायण और नेहरु का प्रशंसक था लेकिन खासकर जवाहर लाल नेहरु ने कई बड़ी राजनीतिक त्रुटियाँ की। नेहरु के समाजवाद को जितना मैं समझ पाया वह समाजवाद का सही स्वरूप नहीं था बल्कि वह नौकरशाहीवाद था।”
इसके बाद जेआरडी टाटा ने कहा कि वह कभी किसी लॉबी का हिस्सा नहीं रहे। वह आलोचना करने की बजाय एक मुद्दे पर आवाज़ ऊँची करना बेहतर समझते थे। ख़ासकर उन नीतियों को लेकर जिन्हें लागू किया जाना चाहिए था लेकिन कॉन्ग्रेस ने उन्हें लागू नहीं किया।
टाटा समूह के पूर्व चेयरमैन के मुताबिक़ अंग्रेज़ों से प्रेरित होकर कॉन्ग्रेस ने जिस तरह की लोकतांत्रिक शासन लागू किया था वह असल मायनों में भारत के लिए सही नहीं था। उन्होंने कहा, “मैं भारत में ब्रिटिश संसदीय प्रणाली लागू किए जाने से बहुत ज़्यादा चिंतित था। मैं इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त था कि यह भारत में कारगर नहीं साबित होगा। मैं अक्सर यह सोचता था अगर नियति ने जवाहर लाल नेहरु की जगह सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुना होता तो आज भारत अलग मुकाम पर होता। इतना ही नहीं भारत की आर्थिक स्थिति बहुत मज़बूत होती। जवाहर लाल नेहरु समाजवाद और अर्थव्यवस्था के बारे बहुत कम जानते थे और उनमें नए विचारों को लेकर स्वीकार्यता नहीं थी। सच्चाई यह थी कि बिना आम जनता की आर्थिक स्वतंत्रता प्रभावित किए समाजवाद स्थापित किया जा सकता था। लेकिन अफ़सोस जवाहर लाल नेहरु ऐसी अहम बातें सुनने में रूचि ही नहीं रखते थे।”
इसके बाद कुछ पल के लिए ठहर कर उन्होंने कहा कि इस बात ध्यान रखना होगा कि मैं क्या और कितना बोल रहा हूँ। ऐसा कहते हुए उन्होंने इशारा किया कि कॉन्ग्रेस के शासन में नौकरशाहों और उद्योगपतियों में डर का माहौल था। इसके बाद जेआरडी टाटा ने कहा, “अर्थव्यवस्था, राष्ट्रवाद, नौकरशाही जैसे मुद्दों पर वह (नेहरु) लापरवाह तो थे ही इसके अलावा इन पर बात भी नहीं करते थे। मैंने जितनी बार इन मुद्दों पर चर्चा शुरू करने का प्रयास किया वह खिड़की की ओर देखने लगते थे। फिर मैं समझ जाता था कि वह इन मसलों पर बात करने के इच्छुक नहीं हैं।”
इंदिरा गाँधी भी अपने पिता की तरह लापरवाह थीं
जेआरडी टाटा ने इस बात का भी खुलासा किया कि इंदिरा गाँधी भी इन मामलों में अपने पिता जैसी थीं। वह समाजवाद के विरोध में कुछ भी सुनना नहीं पसंद करती थीं लेकिन उनका बातें टालने का तरीका नेहरु से थोड़ा अलग था। जैसे ही कोई इंदिरा गाँधी से असहमत होता या उनके सामने तर्क रखने का प्रयास करता वह मेज पर रखे लिफ़ाफ़े और कागज़ उठाने लगतीं। जिससे ऐसा लगे कि उनके पास करने के लिए और भी ज़रूरी काम हैं। कुल मिला कर जेआरडी टाटा का यह कहना था कि नेहरु और इंदिरा दोनों को देश के आर्थिक विकास की कोई चिंता नहीं थी। यह बात सोचने लायक है अगर जेआरडी टाटा जैसे उद्योगपतियों को सरकार की तरफ से बढ़ावा मिला होता तो देश के लिए कितना कुछ कर सकते थे।
पहले ही जताई थी राजनैतिक अस्थिरता की सम्भावना
क्योंकि यह साक्षात्कार चुनाव के साल में किया गया था इसलिए उनसे कई राजनीतिक प्रश्न भी पूछे गए थे। राजनीतिक प्रश्नों का उत्तर देते हुए जेआरडी टाटा ने कहा अगर विपक्षी दलों ने राजीव गाँधी और कॉन्ग्रेस पार्टी को बेदख़ल कर दिया होता तो ठीक ऐसे हालात बनते जैसे जनता पार्टी के छोटे कार्यकाल के दौरान बने थे। जेआरडी टाटा ने पहले ही इस बात का अनुमान लगा लिया था कि कॉन्ग्रेस की हार के चलते राजनीतिक अस्थिरता के हालत बनेंगे। राजीव गाँधी की सरकार गिरने के बाद तमाम छोटे दलों से बनी सरकार के साथ यही हुआ। चाहे इन सरकारों के मुखिया वीपी सिंह रहे हों, चौधरी चरण सिंह रहे हों या चंद्रशेखर रहे हों। सभी विफल सिद्ध हुए।
इसके बाद टाटा समूह के पूर्व मुखिया ने कहा देश की कमान जिसके भी हाथ में हो। आम नागरिक यही उम्मीद करता है कि सरकार रोज़गार, कृषि, औद्योगीकरण और जनसंख्या नियंत्रण जैसे अहम मुद्दों पर काम करे। लेकिन सच्चाई यही है कि सरकार ने इनमें से बहुत कम मुद्दों पर काम किया है।
लाइसेंस राज – ‘मेक इन इंडिया’ की राजनीतिक अव्यवस्था
देश के औद्योगिक विकास और आधुनिकरण पर अपने विचार रखते हुए जेआरडी टाटा ने कहा, आधुनिक उपकरणों की मदद से उत्पादन किफ़ायती और आकर्षक बनाया जा सकता है। लेकिन इसके साथ सबसे बड़ी परेशानी थी कि मजदूर संघ आधुनिकरण के विरोध में था। तमाम राजनीतिक दल ऐसे मजदूर संघों का समर्थन भी करते थे। फिर जेआरडी टाटा ने कहा कि लाइसेंस परमिट राज की वजह से उस दौर में औद्योगीकरण बुरी तरह प्रभावित हुआ था। देश की कई इकाइयों पर इसका बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
व्यावसायिक समूहों को कुछ भी करने के लिए लाइसेंस की ज़रूरत पड़ती थी। कोई सरकारी होटल होता तो उसमें कुर्सी एक जगह से दूसरी जगह रखने के लिए भी अनुमति लेना अनिवार्य था। इतना ही नहीं उस दौर में व्यावसायिक समूह बिना अनुमति अपना दायरा नहीं बढ़ा सकते थे, तमाम क्षेत्रों में नए व्यावसायिक समूहों पर पाबंदी थी। इसके अलावा मौजूदा समूहों को नए बदलावों के लिए आर्थिक मदद तक नहीं मिलती थी। लाइसेंस राज ‘मेक इन इंडिया’ के लिए एक नौकरशाही प्रतिरोध की तरह था।
काला धन
जेआरडी टाटा ने इस मुद्दे पर कहा, “जब मैंने व्यवसाय शुरू किया था तब हमारे क्षेत्र में काला धन नहीं था और न ही किसी तरह का भ्रष्टाचार था। आखिर भ्रष्टाचार होता भी कैसे? जब हमारे पास सरकारी नियंत्रण के लिए कोई तंत्र नहीं था तब हमें अनुमति लेने के लिए कहाँ जाना पड़ता। शुरूआती दिनों में टैक्स की दरें भी बहुत कम थी। जब तक ज़्यादा टैक्स लगाया जाएगा और नियंत्रण (सरकारी) को बढ़ावा दिया जाएगा तब तक काला धन रहेगा।
जहाँगीर रतनजी दादाभाई 29 जुलाई साल 1904 को पैदा हुए थे। उन्हें देश के दो सबसे बड़े पुरस्कार मिले थे पद्म विभूषण और भारत रत्न। जेआरडी टाटा बेहतर उद्योगपति ही नहीं बल्कि उनका योगदान उड्डयन क्षेत्र में भी अविस्मरणीय था। वह 34 साल की उम्र में टाटा समूह के चेयरमैन बने। टाटा समूह को देश के सबसे विश्वसनीय ब्रांड के तौर पर स्थापित करने में भी उनकी भूमिका सबसे अहम रही। उनकी अगुवाई में टाटा एयरलाइंस की शुरुआत हुई और बाद में यह एयर इंडिया बनी।