बंगाल में हड़ताल पर बैठे जूनियर डॉक्टरों की दो सीधी-सी माँगें हैं- उन्हें सुरक्षा दी जाए, और उनके साथी को मौत के मुहाने तक पहुँचा देने वालों को जेल भेजा जाए। किसी भी सामान्य नागरिक का किसी भी सभ्य देश और समाज में यह अधिकार होता है कि वह अपने पेशे का बिना किसी भय या प्रताड़ना के अभ्यास कर सके। डॉ. परिबोहो मुखोपाध्याय को भी यह अधिकार था- जिसका उल्लंघन उनका सर फोड़ कर किया गया। यही हक़ डॉ. यश तेकवानी का भी था, जो उनकी रीढ़ में गंभीर चोट पहुँचाकर छीन लिया गया। ममता बनर्जी जिन डॉक्टरों को भाजपा की साजिश का हिस्सा बता रहीं हैं, वह केवल सुरक्षा और न्याय माँग रहे हैं।
हर मरीज की मौत के लिए क्या बलि चढ़ेगा एक डॉक्टर?
मोहम्मद सईद की मौत यकीनन उनके परिवार वालों के लिए दुःखद रही होगी- रिश्तों की पहचान में से एक होता है किसी की मौत पर दुःख होना। लेकिन अपने घर पर किसी के मर जाने के बदले क्या किसी की भी बलि ले लोगे? कोई डॉक्टर किसी मरीज को जान-बूझकर मरने नहीं देता है- उसी का ‘ट्रैक रिकॉर्ड’ ख़राब हो जाता है कि फलाना डॉक्टर नहीं यमदूत है; उसके पास मत जाना। और इस मामले में तो मरीज को तीमारदारों के सामने ही (टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार) दिल का दौरा पड़ा, सामने ही डॉक्टरों ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की, और सामने ही सामने वह कोशिश असफल रही, और शाहिद चल बसे।
अपने प्रियजन को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते देखना किसी के भी लिए तकलीफ़देह होगा, लेकिन दो ट्रक भरकर, 200 लोगों को लाकर 20 डॉक्टरों को पीटने का क्या मतलब था? क्या गलती थी परिबोहो मुखोपाध्याय और यश तेकवानी की जिसके लिए उनपर ईंटों से हमला किया गया? क्या उनकी जान सस्ती थी?
ममता बनर्जी, अल्पसंख्यकों के वोट के लिए आप किस हद तक गिरेंगी?
सारे तीमारदारों का मानसिक संतुलन, अगर मान भी लिया जाए, एक साथ बिगड़ गया, वे शरीफ शहरी से खून के प्यासे पागल बन गए, तो आखिर पुलिस क्या कर रही थी? पथराव शुरू हुआ, डॉक्टरों पर जानलेवा हमले हुए तो पुलिस ने क्यों नहीं रोका? क्यों डॉक्टरों की जान बचाने के लिए दंगाईयों पर नियंत्रण के लिए कड़ी कार्रवाई नहीं की गई? जवाब हम सब को पता है।
क्योंकि हमलावर मजहब विशेष से थे- अगर उन्हें कुछ हो जाता तो ममता के वोट बैंक को खतरा था। और सीएम के वोट बैंक को खतरा मतलब गोली चलाने वाले, दंगाईयों का हाथ पकड़ने वाले का कैरियर खत्म। ममता बनर्जी अल्पसंख्यकों को वोटों के लालच में लुभाने के लिए कुछ भी करने की कमर कस चुकीं हैं- रोहिंग्याओं को हिंदुस्तानी बनाया जा रहा है ताकि उनके वोट से ममता बनर्जी को बहुमत मिलता रहे, ‘जय श्री राम’ को ‘बाहरी नारा’ बताया गया और ‘रामधोनु’ को ‘रॉन्गधोनु’ इसीलिए किया गया, और इसीलिए ममता बनर्जी आरोपियों पर कार्रवाई करने में हिचकिचा रहीं हैं।
देश की बिगड़ी स्वास्थ्य व्यवस्था में कोढ़ में खाज होगी डॉक्टरों की नाराजगी
डॉक्टरों की कमी से वैसे ही देश जूझ रहा है। सरकार कोई भी हो, यह समझ नहीं पा रही कि शिक्षा की गुणवत्ता घटाए बिना डॉक्टर कैसे बढ़ाए जाएँ। अस्पतालों के ओपीडी के बाहर लाइन में खड़े-खड़े लोग मर जाते हैं, क्योंकि अस्पतालों में न तो मरीजों के लिए बिस्तर होते हैं न डबल शिफ्ट कर-कर के थके हुए डॉक्टरों में इलाज करने की ताकत। 2017 की डेंगू महामारी की तरह जब अचानक से कोई बीमारी फैलने लगती है तो मुसीबत और बढ़ जाती है। ऐसे में डॉक्टरों को नाराज करना किस दृष्टिकोण से समझदारी है?
कानून व्यवस्था बनाए रखना ज़िम्मेदारी है
ममता बनर्जी इमोशनल ब्लैकमेलिंग और धमकी का डबल डोज़ इस्तेमाल कर रहीं हैं- एक तरफ डॉक्टरों को बीमार मरीजों की जान का हवाला दे रहीं हैं, और दूसरी ओर धमकी कि जो काम पर नहीं लौटा उसकी (जान-माल की?) जिम्मेदारी सरकार की नहीं है, और हॉस्टल भी खाली करा लिए जाएँगे। इस नरम-गरम नौटंकी से अच्छा 20 डॉक्टरों को पीटने 2 ट्रक भरकर आए लोगों को पकड़कर जेल में क्यों नहीं डाल देतीं? 53 डॉक्टरों ने संयुक्त इस्तीफ़ा मुँह पर मार दिया तो अपना-सा मुँह लेकर लौटा दिया। कुल मिलाकर विशुद्ध अव्यवस्था का माहौल है- क्लासिकल एनार्की, जो हर कम्युनिस्ट के दिल का ख्वाब होती है। (विडंबना यह है कि ‘दीदी’ इन्हीं कम्युनिस्टों से लड़कर सत्ता में आईं थीं)
हर राज्य में हर हाथापाई को मॉब-लिंचिंग बता कर मोदी के इस्तीफे की माँग करने वालीं ममता बनर्जी अगर कानून व्यवस्था नहीं संभाल सकतीं तो इस्तीफा दे देना चाहिए।
शायद अब समय आसन्न है कि गृह मंत्रालय राजधर्म का पालन करे, और ममता बनर्जी को चेतावनी दे कि इतने घंटों में उन गुंडों को जेल में बंद कर दिया जाए वरना उसकी सरकार बर्खास्त कर दी जाएगी। अगर भाजपा राजनीतिक नफे-नुकसान, ‘संघीय ढाँचे’ या ममता बनर्जी को विक्टिम कार्ड न खेलने देने के चक्कर में बेगुनाहों के उत्पीड़न की मूकदर्शक बनी रहेगी तो वह भी इस राजनीतिक पाप की दोषी होगी।