Sunday, September 15, 2024
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हिजाब और बिकनी नहीं, माहवारी के बाद निकाह और हलाला से लड़ाई ज़रूरी: मजहबी दबाव के आगे क्यों झुकें स्कूल-कॉलेज?

प्रियंका गाँधी ने हिजाब मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि चाहे बिकनी हो, घूँघट हो, जींस हो या हिजाब हो...लड़कियाँ जो चाहे अपने मन से पहन सकती हैं...। संविधान ने उन्हें अधिकार दिया है।

ज्यादा बड़ी नहीं थी जब पहली बार देखा था कि स्कूल जाने वाली लड़कियाँ सर्दियों के बिना भी सिर ढकने वाला स्कार्फ पहनती हैं। मुझे तब कोई अंदाजा नहीं था कि ये क्या है, क्यों है, किसलिए पहना गया है। मैं चूँकि उस समय धूल से बचने के लिए मुँह पर रुमाल बाँधा करती थी तो पहले सोचा कि ये स्कार्फ भी शायद ऐसा कोई उपाय है। बहुत लंबे तक मन में इस स्कार्फ को लेकर जद्दोजहद चली… फिर धीरे-धीरे इसके बारे में समझ आया कि इसे मुस्लिमों में सिर ढकने के लिए पहना जाता है। बाकी की जानकारी तब हुई जब एक मुस्लिम सहेली बनी और उसने इसके बारे में सब बताया…

कर्नाटक में हुए हिजाब विवाद से पहले वो पुरानी बातें मेरे जहन से गायब थीं, पर पूरे बखेड़े के बाद जब जगह-जगह तर्क पढ़े, हिजाब को संवैधानिक अधिकार बताने के लिए आतुर लोग देखे, कोर्ट में मुस्लिम पक्ष की दलीलें सुनीं, तो वो पुरानी बातें याद आती गईं। मैं, तब हिजाब शब्द से पूरी तरह अंजान थी इसलिए, सवाल किया था कि इसे पहनकर क्यों आते हो और आते हो तो क्लास में क्यों उतार देते हो? माहौल राजनैतिक नहीं था, इसलिए पहले जवाब मिला- “हमारे में ये जरूरी होता है।” और फिर आगे कहा गया- “हम जिस इलाके में रहते हैं वहाँ ज्यादा मुस्लिम ही हैं। इसलिए घर से निकलते वक्त इसे पहनते हैं और घर जाते समय पहनना पड़ता है। क्लास में इसलिए उतारते हैं क्योंकि यहाँ देखो कोई इसे नहीं पहनता।”

हिजाब का मुद्दा स्वेच्छा से जुड़ा?

उस उम्र में जितनी समझ होनी चाहिए मैंने उसी के हिसाब से उस लड़की की बातें अपने मन में बैठाईं और उसी के नजरिए से मैं आज भी इस पूरे मुद्दे को देखती हूँ। घटना चाहे आज की हो या 15 साल पुरानी…एक बात साफ है कि एक लोकतांत्रिक देश में, समानता के अधिकार के साथ, शिक्षा की चाह रखने वाली लड़की के लिए हिजाब का मुद्दा कभी भी ‘स्वेच्छा’ से जुड़ा नहीं हो सकता। हम माने चाहें न मानें लेकिन यदि कोई लड़की स्कूल के बाहर तक हिजाब पहनकर आई और क्लास में घुसने से पहले उसे उतार दिया तो ये दिखाता है कि किस हद्द तक मजहबी ठेकेदारों ने उस लड़की को गुलाम बनाया हुआ था जो क्लास में बैठकर एक समान दिखने के इच्छुक तो थी, लेकिन बाहर निकलते ही उसे डर भी था कि कहीं उसके आस-पास के लोग उसे कुछ न बोल दें।।

आज समय बदल गया है जो कभी मजहबी ठेकेदारों का डर था वो कट्टरपंथ में तब्दील हो गया है। थोपी गई चीजें स्वेच्छा से जुड़ी बताई जा रही है। हिजाब पहनकर क्लास लेने की लड़कियों की जिद्द दिखाती है कि किस हद्द तक उन्हें मानसिक तौर पर गुलाम बनाया जा चुका है कि वो एक शैक्षणिक संस्थान के बाहर खड़े होकर ये बातें कह रही हैं कि इस्लाम उनकी प्राथमिकता है और शिक्षा उनके लिए सेकेंड्री चीज है। सोचिए, अभी 6 माह ही हुए हैं जब पूरे विश्व ने अफगानिस्तान में तालिबानी शासन आने के बाद वहाँ की लड़कियों को शून्य में जाते देखा। हर कोई सिर्फ यही बता रहा था कि एक बार फिर कट्टरपंथ के आ जाने से लड़कियों का जीवन अंधकार में चला जाएगा।

माहवारी के बाद निकाह, हलाला पर कब लड़ेंगी मुस्लिम लड़कियाँ?

भारत में लोकतंत्र है, समान अधिकार देने वाला संविधान है- बावजूद इसके अगर पूरी लड़ाई मजहब से जुड़ी ही बना ली जाए तो कोई फरिश्ता भी मानसिक गुलामों को आजाद नहीं करवा पाएगा। जिन लड़कियों को ऐसा लग रहा है कि आखिर हिजाब पहनकर क्लास में बैठने की अनुमति से प्रशासन को क्या परेशानी है, वो बस इस बात की कल्पना करें कि उनकी ही कक्षा में कोई लड़की किसी अन्य रंग के दुपट्टे से सिर ढक कर बैठी है। क्या ये समानता होगी? जिस तरह शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा का अधिकार सभी के लिए समान है वैसे ही वहाँ नियम भी सभी के लिए समान होने चाहिए। अगर हिजाब को लेकर इतना प्रेम है तो इसके लिए कई मजहबी संस्थानों की ओर रुख करने की आवश्यकता है जहाँ न इन्हें लेकर आपत्ति और न ही इन पर कोई विवाद। 

एक सामान्य कॉलेज या स्कूल, एक ऐसी जगह होते हैं, जहाँ ड्रेस कोड लागू करने का उद्देश्य ही ये होता है कि कोई न किसी से अलग दिखे और न ही किसी से कोई भेदभाव हो, बताइए वहाँ हिजाब की माँग की क्या जरूरत है । क्या इन लड़कियों को अधिकारों की लड़ाई लड़ने के क्रम में तीन तलाक, माहवारी के बाद निकाह, बहुविवाह या फिर हलाला जैसे नारकीय रीतियाँ नहीं दिखतीं? अगर ये मानसिक गुलामी नहीं हैं तो क्या है कि जिनका खुद पर इतना भी अधिकार नहीं है कि वो ये स्टैंड ले सकें कि उन्होंने किस प्रदर्शन में शामिल होना है किसमें नहीं!

आज कट्टरपंथी समूहों द्वारा ब्रेनवॉश होकर और उनका समर्थन पाकर, लोकतांत्रिक देश को संविधान में मिले अधिकारों का हवाला दिया जा रहा है। सोचिए अगर ये मजहबी कट्टरपंथ फैलता रहा और इसी तरह शैक्षणिक संस्थानों पर दबाव बनाता रहा तो कब तक आप खुद को लोकतांत्रिक देश का नागरिक कह पाएँगे और कब तक अधिकारों के नाम पर मजहबी या धार्मिक प्रेम को जगजाहिर कर पाएँगे।

मजहबी दबाव में क्यों आएँ स्कूल-कॉलेज

कर्नाटक में जो बवाल चल रहा है सोचिए उसका क्या केंद्र बिंदु है…..? सिर्फ मजहब, मजहब और मजहब। कहीं से कहीं तक शिक्षा की कोई बात ही नहीं है। लड़कियों को किसी ने भी हिजाब या बुर्का पहनने से मना नहीं किया है उन्हें बस कहा जा रहा है कि जब बच्चे बैठकर क्लास लेंगे वहाँ इसकी अनुमति नहीं होगी। इसके अलावा लड़कियाँ चाहें तो उसे परिसर में पहनकर घूमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है। मगर, बावजूद इसके उन लड़कियों को एक ऐसी जगह पर अपना लोहा मनवाना है जहाँ कुछ नियम हैं, कुछ कायदें हैं कानून हैं।

हर जगह अपनी मर्जियाँ नहीं चलतीं। जैसे हर धर्म-मजहब के अपने नियम हैं, उन्हें स्वतंत्रता है, वैसे ही संस्थान भी हैं। खासकर ऐसे संस्थान, जो सबके लिए निर्मित हुए हों। कोर्ट इस मामले में सुनवाई कर रहा है। हो सकता है फैसला लड़कियों के पक्ष में आए या हो सकता है ऐसा न भी हो। मगर, उससे पहले जो हालात अब बन चुके हैं उन पर विचार सबको करना ही पड़ेगा। बाहरी देशों में मजहबी बेड़ियाँ से बाहर निकलने पर लड़कियों को मारा जा रहा है, उनपर अत्याचार हो रहे हैं, प्रताड़नाएँ दी जा रही हैं, उन्हें देश छोड़ना पड़ रहा है और एक हम हैं, जो उस देश में रहकर अपना विकास नहीं कर पा रहे जिसने हमें किसी भी बेड़ी में बँधे बिना मनमुताबिक तौर-तरीकों जीने का पूरा-पूरा हक दिया है।

बिकनी और हिजाब संवैधानिक अधिकार

ये देश की विडंबना ही है कि एक ओर देश को बुर्काधारी लड़कियों को ये समझाना पड़ता है कि कैसे शैक्षणिक केंद्र में एकरूपता और समानता का महत्व हैं और दूसरी ओर पढ़ी लिखी प्रियंका को गाँधी अपने ट्वीट में लिखती हैं चाहे बिकनी हो, घूँघट हो या हिजाब हो, ये महिला का अधिकार है कि वो क्या पहनना चाहती है। इसका अधिकार लड़कियों को संविधान ने दिया है।

क्या संविधान ये अधिकार देता है कि बिकनी पहनकर क्लास ली जाए? या संविधान ये कहता है कि घूँघट में क्लास रूम में पहुँच जाया जाए या फिर रिप्ड जींस में पढ़ाई हो….अगर नहीं तो हिजाब के मना करने पर इतना बवाल क्यों? जैसे हम देश के नागरिक हैं वैसे ही संस्थान भी लोकतांत्रिक देश से जुड़ा हिस्सा है। ड्रेस कोड का नियम आज से नहीं चल रहा। सालोंसाल से इसे अपनाया गया है। जहाँ हिजाब पर आपत्ति नहीं है वहाँ कभी इसकी मनाही नहीं हुई, मगर यदि किसी संस्थान के नियमों के अनुसार, ड्रेस कोड के अतिरिक्त कुछ भी नियमों का उल्लंघन है तो उसमें मजहबी तौर पर जबरदस्ती करनी क्यों है।

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