माननीय सुप्रीम कोर्ट। अक्सर नेता-अधिकारी या कोई भी देश की सर्वोच्च न्यायालय का नाम लेते समय ‘माननीय’ या ‘Honourable’ ज़रूर लगाते हैं। जजों के नाम से पहले ‘न्यायमूर्ति’ लगाया जाता है। इतना ‘माननीय’ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम के भी आगे नहीं लगाया जाता। जबकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका संविधान के 3 स्तंभ हैं। बस उनके कार्य बाँटे हुए हैं। लेकिन, जब कार्यपालिका और विधायिका से रोज हजार सवाल पूछे जाते हैं कि भला न्यायपालिका से कोई महीने में एक सवाल भी ना पूछे?
‘सिर्फ और सिर्फ’ नूपुर शर्मा जिम्मेदार? ये कैसा लॉजिक है?
नूपुर शर्मा पर कई राज्यों में हुए FIR के बाद वो राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँची थीं। एक महिला न्याय माँगने गई थीं नियम के तहत, क्योंकि भारत का कानून ही कहता है कि किसी को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक सज़ाएँ नहीं सुनाई जा सकतीं। बदले में सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि आज देश में जो भी हो रहा है, उसके लिए सिर्फ और सिर्फ नूपुर शर्मा जिम्मेदार हैं। जबकि उस बहस में बार-बार हिन्दू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले और मजाक बनाने वाले तस्लीम रहमानी को लेकर इन जजों ने चूँ तक न किया।
सबसे बड़ी बात कि ये बातें जजमेंट का हिस्सा नहीं थीं। अगर हम यही लॉजिक लगाते हैं तो क्या वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद में सर्वे की अनुमति देने वाले जज रवि दिवाकर को धमकी दिए जाने के लिए भी कोर्ट ही ‘सिर्फ और सिर्फ’ जिम्मेदार हुआ, क्योंकि उसने कानून और संविधान के हिसाब से फैसला सुनाया? कर्नाटक में हिजाब मामले में फैसला देने वाले उच्च न्यायालय के जजों को धमकी के लिए भी अदालत को जिम्मेदार माना जाएगा इस लॉजिक से?
ऐसे में तो आप हत्यारों और अपराधियों को राहत दे रहे हैं। कश्मीर में कत्लेआम मचा रहे आतंकी कहते हैं कि भारत सरकार कश्मीरियों पर जुल्म कर रही है, इसीलिए वो इसे ‘आज़ाद’ कराना चाहते हैं। फिर क्या इन निर्मम हत्याओं के लिए ‘सिर्फ और सिर्फ’ भारत सरकार और यहाँ की जनता को जिम्मेदार मान लेना चाहिए? ‘माननीय’ को समझना चाहिए कि किसी एक चैंबर में बैठ किसी के कुछ सोचने से उस हिसाब से दुनिया नहीं चलती।
हमारा कहना यह है कि जिन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट दूसरों को डाँटता है और ज्ञान देता है, उन्हीं मुद्दों पर वो खुद अपनी ही कही बातों का पालन क्यों नहीं करता? नूपुर शर्मा के मामले में हम नहीं कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने गलती की है, ये तो 117 पूर्व न्यायाधीश, सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी एवं रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स ने भी कहा है कि दोनों जजों (सूर्यकान्त और जेबी पारदीवाला) ने ‘लक्ष्मण रेखा’ लाँघी है और एक नागरिक को न्याय से वंचित किया है, ये न्यायपालिका के इतिहास में एक ‘धब्बे’ की तरह है।
क्या आपने कभी सुना है कि प्रधानमंत्री की किसी ने आलोचना की हो और उसे PMO में तलब कर लिया गया हो? सुप्रीम कोर्ट की आलोचना को ‘न्यायपालिका की अवमानना’ बता कर लोगों को तलब किया जाता रहा है और उन पर मुक़दमे भी चले हैं। वो अलग बात है कि प्रशांत भूषण जैसों के लिए इसकी कीमत एक रुपए लगाई जाती है। क्या जज आलोचना से परे हैं? फिर सांसदों-विधायकों की आलोचना क्यों? डीएम-एसपी की क्यों? फ्री स्पीच की सबसे ज्यादा वकालत तो अदालत ही करती है, तो फिर वो खुद को इस दायरे में क्यों नहीं रखती?
कॉलेजियम सिस्टम कब हटेगा? परिवारवाद के अलावा प्रतिभाओं की अनदेखी के भी आरोप
क्या आपको पता है कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति कैसे होती है? ‘कॉलेजियम सिस्टम’ से। इसी सिस्टम के तहत जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है। अव्वल तो ये कि ये सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से ही आया है, न संसद और न ही संविधान ने ऐसा कोई प्रावधान बनाया। 1981 में ‘First Judges Case (गुप्ता केस)’ में कहा गया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की राय जजों की नियुक्ति-ट्रांसफर में सर्वोपरि नहीं है।
1993 में सुप्रीम कोर्ट ‘कॉलेजियम सिस्टम’ लेकर आया। इसमें CJI के साथ-साथ कमिटी में 2 वरिष्ठतम जजों को डाला गया। 1998 में समिति की संख्या 5 कर दी गई, जिसमें CJI के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट के 4 सबसे वरिष्ठ जज होते हैं। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में कॉलेजियम के तहत ऐसी ही समितियाँ हैं। रिटायर हो रहा CJI खुद अपने उत्तराधिकारी की अनुशंसा करता है। हालाँकि, 70 के दशक में हुए कुछ विवादों के बाद वरिष्ठता के आधार पर ही ये पद दिया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के मामले में कॉलेजियम पहले केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी अनुशंसा भेजता है, जहाँ से इसे प्रधानमंत्री को भेजा जाता है और फिर केंद्र सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति इस पर मुहर लगाते हैं। इस सिस्टम की आलोचना होती है क्योंकि इसमें कोई पारदर्शिता नहीं है, नेपोटिज्म का बोलबाला है और कई प्रतिभावान जूनियर जज-वकील पीछे रह जाते हैं। जब 2014 में ‘नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट्स कमिशन’ आया तो अगले साल कोर्ट ने इसे किनारे रख दिया और कहा कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर फर्क पड़ेगा।
फिलहाल, नेपोटिज्म की स्थिति ये है कि सुप्रीम कोर्ट के 38% जजों के परिवार का न्यायपालिका ये सरकार में पहले से कनेक्शन है। 32 में से 12 जज ऐसे हैं। क्या कॉलेजियम सिस्टम से प्रतिभाओं को अनदेखा नहीं किया जा रहा? भारत की हर एक संस्था जनता की सेवा के लिए है। ऐसे में जनता को ही नहीं पता नियुक्तियाँ-प्रोमोशंस कैसे हो रहे। ब्यूरोक्रेसी के लिए परीक्षा होती है, विधायिका को सीधे जनता चुनती है, लेकिन न्यायपालिका में जज, जज को चुनते हैं और किसी को कुछ खबर तक नहीं होती कि पैमाना क्या है, चरणबद्ध प्रक्रिया क्या है?
India has just 20 judges per million population. 38% of High Court and 21% of judicial positions overall lie vacant. Number of pending cases stands at 47 million. 76% of all prisoners are undertrials.
— Anand Ranganathan (@ARanganathan72) July 2, 2022
Chief Justice of India NV Ramana: We are answerable only to the Constitution.
ये वही सुप्रीम कोर्ट है, जिसने चुनावी प्रक्रिया की शुचिता को बनाए रखने और देश की लोकतांत्रिक संरचना की सत्यनिष्ठा को अक्षुण्ण रखने की बातें कर के चुनाव लड़ने वाले नेताओं और उनके पति-पत्नी को भी अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने का आदेश दिया था। 4 जुलाई, 2022 के डिक्लेरेशन की बात करें तो 32 में से मात्र 4 सुप्रीम कोर्ट जजों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा वेबसाइट पर डाला है। माननीय, दूसरों से इतनी उम्मीदें रख कर फैसले देते हैं और खुद उसका पालन क्यों नहीं करते?
जज साहब, दूसरों को टास्क देते हैं तो जरा अपने पेंडिंग केसेज पर भी नजर डाल लीजिए
अदालत दूसरों के लिए समयसीमा तय करती है। फलाँ तारीख़ तक ये चीज हो जानी चाहिए, चिलाँ तारीख़ तक ये फैसला लागू हो जाना चाहिए – इस तरह के आदेश आते हैं। लेकिन, समयसीमा जजों के लिए क्यों नहीं तय की जाती? कोरोना काल में भी सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फटकार लगाई कि मृतकों के मृत्यु प्रमाण-पत्र बनाने में देर क्यों हो रही है? 2015 में जस्टिस जोसफ कुरियन के ताजमहल दौरे के बाद अचानक से सुप्रीम कोर्ट की नजर वहाँ की सड़क पर पड़ गई और यूपी सरकार को सड़क निर्माण के लिए फटकारा गया।
क्या आपको पता है कि सुप्रीम कोर्ट में कितने मामले लंबित हैं? 70,852 केस। जी हाँ, 32 जज मिल कर ये केस कितने दिन में निपटा पाएँगे, आप खुद समझ लीजिए। भारतीय न्यायपालिका व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट और उसके अंतर्गत आने वाली अदालतों में 4.7 करोड़ से भी अधिक मामले पेंडिंग पड़े हुए हैं। ये वही सुप्रीम कोर्ट है, जो 2022 में 83 दिन छुट्टियों पर रहा। 50 दिन रविवार के भी जोड़ दीजिए तो ये 133 दिन हो जाता है, साल के 36% दिन इन्होंने छुट्टियाँ ही मनाई।
अमेरिका में ऐसा नहीं होता। वहाँ की सुप्रीम कोर्ट एक साल में मुश्किल से 10 दिन छुट्टियों पर रहता है। जस्टिस जेबी पारदीवाला ने हाल ही में संसद को सोशल मीडिया पर नकेल कसने की सलाह दे डाली। शायद उन्हें जजों की आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई। अब लाखों लोग अपनी राय रखेंगे तो सबको ये जेल में भेजने का रिस्क भी नहीं ले सकते। सुप्रीम कोर्ट सहमति-असहमति और लोकतंत्र में फ्री स्पीच पर ज्ञान देता है तो खुद को जनता की आलोचना से परे क्यों मानता है?
आलोचना तो होगी, क्योंकि इस देश में जितने भी अधिकारी-नेता-जज हैं, जनता से ऊपर नहीं है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। अगर देश को लोकतंत्र के हिसाब से चलना है तो कॉलेजियम सिस्टम की जगह प्रतिभा की जाँच के बाद जजों की नियुक्ति होनी चाहिए, ‘Contempt Of Court’ जैसे नियम पूर्णरूपेण हटने चाहिए और लंबित मामलों के निपटारे के लिए समयसीमा तय होनी चाहिए। वरना आपकी आलोचना होती रहेगी, आप किस-किस को जेल में बंद करेंगे?
The left isn’t liberal, they’re totalitarians. They brook no dissent.
— Sankrant Sanu सानु संक्रान्त ਸੰਕ੍ਰਾਂਤ ਸਾਨੁ (@sankrant) July 8, 2022
And there are no liberals left. Only agenda-jivis. And a nepotistic elite court is helpful for their agenda.https://t.co/HlURP8PhYh
जब सुप्रीम कोर्ट के CJI या कोई जज ये कहता है कि वो सिर्फ और सिर्फ संविधान के प्रति उत्तरदायी है, तो सवाल उठता है कि गलती करने पर संविधान ने कब किसे टोका है? संविधान एक पुस्तक है, कोई जीवित वस्तु तो नहीं। 10 लाख की जनसंख्या पर जहाँ मात्र 20 जज हों और 21% नय्यापलिका के पद खाली हों, वहाँ संविधान को इसका जवाब क्यों नहीं देते जज साहब? 1.82 लाख मामले 30 साल या उससे अधिक से चल रहे हैं और 2.44 लाख मुक़दमे बलात्कार और बाल यौन शोषण के हैं, इन्हें न्याय कब मिलेगा? 76% कैदियों को जेल में बिना सज़ा सुनाए रखा गया है, सुनवाई के दौरान ही।