2014 में लोकसभा चुनाव हुए। नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर थी। बिहार में पार्टी को 22 सीटें मिलीं। उसकी सहयोगी लोजपा को 6 और रालोसपा को 3 सीटें मिलीं। इस तरह 40 में से 31 सीटें राजग गठबंधन ने अपने नाम कर ली। लेकिन, इसके डेढ़ वर्षों बाद विधानसभा चुनाव हुए। 243 में से 151 सीटें राजद-जदयू गठबंधन ने अपने नाम कर लिया। भाजपा 53 पर सिमट गई। ये सब उसके बावजूद हुआ, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धुआँधार 31 रैलियाँ की।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शायद ही किसी राज्य के चुनाव में इतनी रैलियाँ की हों, लेकिन इसके बावजूद हुई भाजपा की इस हार ने शायद पार्टी को इतना डरा दिया कि जब 2017 में नीतीश कुमार वापस NDA में आए तो उसने बाहें फैला कर उनका स्वागत किया और फिर 2020 के विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटें होने के बावजूद उन्हें ही मुख्यमंत्री के पद पर सुशोभित देखना पसंद किया। क्या भाजपा को बिहार में अकेले जाने से डर लगता है?
इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि बिहार में भाजपा के पास एक सर्व-स्वीकार्य नेता नहीं है, जिसके नाम पर वो पूरे राज्य में वोट माँग सके। जो बिहार में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष हैं, उनका खुद का जनाधार पश्चिम चंपारण जिले से बाहर कहीं नहीं है। उन्होंने भले ही लोकसभा में हैट्रिक लगाईं हो और कभी उनके पिता भी इसी पार्टी से बतौर सांसद हैट्रिक लगा चुके हों, लेकिन तब भी आस-पड़ोस के जिले के अलावा बाकी की जनता शायद ही उन्हें जानती हो।
इनके पड़ोसी जिले के ही सांसद हैं राधा मोहन सिंह, उन्होंने भी 2019 में लोकसभा जीत की हैट्रिक लगाई। 6 बार सांसद रहने वाले राधा मोहन सिंह ने पहली जीत 1989 में ही दर्ज की थी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और केंद्र में 5 साल कृषि मंत्री रहने के बावजूद भाजपा उनके नाम पर पूर्वी चंपारण से बाहर वोट नहीं माँग सकती। चंपारण में इन दोनों की आपसी अदावत की भी चर्चाएँ अंदरखाने में होती रहती हैं। फ़िलहाल राधा मोहन सिंह भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।
अब बात करते हैं भाजपा के दोनों उप-मुख्यमंत्रियों की। तारकिशोर प्रसाद ने कटिहार विधानसभा क्षेत्र से चौथी बार जीत दर्ज की है, लेकिन पूर्वी बिहार से बाहर अधिकतर ऐसे लोग हैं जिन्होंने इनका नाम पहली बार तभी सुना जब इन्हें डिप्टी सीएम का पद दिया गया। दूसरी उप-मुख्यमंत्री रेणु देवी बेतिया से चौथी बार विधायक बनी हैं, लेकिन इन्हें पूरे पश्चिम चंपारण में भी सभी नहीं जानते होंगे। वैसे भी ये बिहार का सबसे बड़ा जिला है।
पटना के नितिन नवीन युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं और भाजयुमो बिहार के प्रदेश अध्यक्ष भी, लेकिन 4 बार विधायक बनने के बावजूद राजधानी से बाहर वो अपनी छवि नहीं बना पाए और अनुभवी नेताओं की फ़ौज में खोए-खोए से हैं। भाजपा के अन्य अनुभवी नेताओं में आते हैं – सुशील कुमार मोदी, नंदकिशोर यादव, प्रेम कुमार और शाहनवाज हुसैन। सुशील कुमार मोदी को लेकर लोगों और कार्यकर्ताओं ने गुस्सा इस कदर है कि उन्हें उप-मुख्यमंत्री का पद इस बार नहीं दिया गया था।
उनकी पूरी की पूरी राजनीति लालू यादव और उनके परिवार के भ्रष्टाचार के खुलासों पर ही टिकी रह गई। नंदकिशोर यादव बढ़िया बोलते हैं, नेता प्रतिपक्ष और कई बार मानते रहे हैं। लेकिन, 6 बार विधायक रहने के बावजूद वो चर्चा में नहीं रहते। कोई व्यक्ति 8 बार विधायक रहा हो (2005 में बिहार में दो बार चुनाव हुए थे) तो उसका कद अपने-आप बढ़ जाता है। गया के प्रेम कुमार नेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं, लेकिन जिले के बाहर उनके नाम पर भी कोई वोट नहीं देगा।
सैयद शाहनवाज हुसैन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे थे, लेकिन आज बिहार सरकार में मंत्री हैं और वो भी आलाकमान की कृपा से। वरना वो भी नेपथ्य में ही थे। राजीव प्रताप रूड़ी इस बार केंद्रीय मंत्री नहीं बनाए गए। गिरिराज सिंह अपने बयानों की वजह से चर्चा में ज़रूर रहते हैं और कन्हैया कुमार को हरा कर लगातार दूसरी बार केंद्रीय मंत्री भी बने, बिहार में लगभग हर इलाके के लोग उन्हें जानते भी हैं, लेकिन वो खुद कह चुके हैं कि ये उनकी राजनीति का अंतिम चरण है। उनके नाम पर दाँव खेलने का रिस्क भाजपा शायद ही लेगी।
मिथिला में हुकुमदेव नारायण यादव भाजपा के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे, लेकिन उन्होंने राजनीति से संन्यास ले रखा है। 1977 में पहली बार जीतने वाले हुकुमदेव नारायण यादव संसद में अपने भाषणों की वजह से चर्चा में ज़रूर आए, फ़िलहाल उनके बेटे अशोक मधुबनी से सांसद भी हैं, लेकिन अब वो नेपथ्य में हैं। नित्यानंद राय को आलाकमान आगे बढ़ा रहा है, वो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहने के बाद केंद्र में मंत्री हैं और अमित शाह के मातहत काम करते हैं – लेकिन समस्तीपुर से बाहर उनकी स्थिति भी वैसी ही है।
कीर्ति झा आज़ाद और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सेलेब्रिटी (कभी हुआ करते थे) नेता भाजपा छोड़ चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि भाजपा के लिए स्थानीय नेतृत्व की जिम्मेदारी कौन निभाएगा? जो कार्य महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस ने किया, क्या बिहार भाजपा में कोई नेता ऐसा करने का माद्दा रखता है? शायद नहीं। भाजपा को बिहार में एक ऐसा नेता ढूँढना होगा, आगे करना होगा, जो सभी जिलों और सभी समाज के बीच स्वीकार्यता रखता हो।
यहाँ समाज की बात इसीलिए आ जाती है, क्योंकि भले ही लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के नाम पर जात-पात के समीकरण टूट जाते हों लेकिन विधानसभा चुनावों में ये अभी भी नहीं। तेजस्वी यादव ने 2020 विधानसभा चुनाव में राजद को 75 सीटें जिता कर सबसे बड़ी पार्टी बनाया, ऐसे में नकारा नहीं जा सकता कि यादव-मुस्लिम वोट्स उनके पास बहुतायत में हैं और जदयू-राजद-कॉन्ग्रेस के अकेले लड़ने पर भाजपा फिर पटखनी खा सकती है।
कारण वही होगा – स्थानीय नेतृत्व का अभाव। हाँ, ये भी सही है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ कर भाजपा ने कई राज्यों में स्थानीय नेतृत्व पैदा कर दिया है। उदाहरण के तौर पर झारखंड में रघुबर दास, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत, हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ (2017) के नामों की घोषणा चुनाव पूर्व नहीं की गई थी। इनमें से कई कसौटी पर खड़े भी उतरे। संयोग की बात कि देवेंद्र फड़नवीस बिहार भाजपा के प्रभारी भी रहे हैं।
बिहार में तारकिशोर प्रसाद, रेणु देवी या सुशील मोदी उप-मुख्यमंत्री रहने के बावजूद ऐसा कोई कारनामा करने की कुव्वत नहीं रखते। बिहार को एक देवेंद्र फड़नवीस की ज़रूरत है, एक ऐसा नेता जो धुआँधार बोलता भी हो और संगठन के कार्य में निपुण होने के साथ-साथ जनता में भी लोकप्रिय हो। लोकप्रिय न सही तो कम से कम स्वीकार्य तो हो। लालू यादव के नाम पर अभी भी यादव वोट मिलते हैं, नीतीश कुमार ने ‘कुर्मी चेतना रैली’ से अपना असली राजनीतिक करियर ही शुरू किया, रामविलास पासवान अपनी जाति के 8% वोटों की बदौलत पार्टी चलाते रहे, ऐसे में भाजपा को भी कुछ नया सोचना होगा।
#NitishKumar ने अपना आखिरी राजनीतिक दांव खेल लिया है और भाजपा की राजनीति अभी शुरू होगी। बिहार में भविष्य की राजनीति BJP Vs RJD होने वाली है। बिहार के भविष्य के लिए यह बहुत जरूरी है। नीतीश बिहार पर ग्रहण बन गए हैं।
— हर्ष वर्धन त्रिपाठी 🇮🇳Harsh Vardhan Tripathi (@MediaHarshVT) August 9, 2022
बिहार एक गरीब राज्य है, ऐसे में कई विश्लेषक ये भी कहते हैं कि यहाँ सत्ता पाने को लेकर विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी न कोई हड़बड़ी में रहती है और न ही इसके लिए विशेष प्रयास करती है। हालाँकि, ये सही नहीं है। 2015 के विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी का ढाई दर्जन रैलियाँ करना इसे नकारता है। 10 करोड़ की जनसंख्या वाले राज्य को कौन सी दल या नेता अपने हाथ से जाने देगा? 243 विधानसभ और 40 लोकसभा सीटों से राष्ट्रीय स्तर पर कई समीकरण बन-बिगड़ सकते हैं। बस भाजपा एक नेता ढूँढ निकाले, या कोई खुद ऊपर आ जाए।
बिहार में अरविंद केजरीवाल वाली करतूतें नहीं चलेंगी। पुष्पम प्रिय चौधरी की पार्टी का हाल हमलोग देख चुके हैं। तेजस्वी यादव अपने पिता वाले ठेठ अंदाज़ में ही जनता से कनेक्ट करते हैं। हर कोई नरेंद्र मोदी नहीं हो सकता कि जनता से सीधा कनेक्शन स्थापित कर ले, लेकिन बिहार भाजपा का कोई नेता इसकी कोशिश तो कर ही सकता है। यहाँ की जनता लालू-नीतीश से ऊब चुकी है। उसे कुछ नया चाहिए। नया नहीं आएगा तो राजद लौटेगी और तेजस्वी यादव CM बने तो जंगलराज भी लौटेगा।
फ़िलहाल समय भी बिलकुल मुफीद है। लालू यादव ने 15 वर्ष बिहार पर शासन किया और नीतीश कुमार पिछले 17 वर्षों से सत्ता के शीर्ष पर काबिज हैं। 32 वर्षों से बिहार ने किसी तीसरे चेहरे को मैदान में नहीं देखा। अब जब लालू यादव भ्रष्टाचार मामलों में सज़ायाफ्ता हैं और स्वास्थ्य के कारण निष्क्रिय हैं और नीतीश कुमार की छवि पलटूराम की बन चुकी है, बिहार भाजपा अपने तैरकर से कोई ऐसा तीर निकाल दे जो इनके मुकाबले खड़ा हो सके तो बात बन जाए।