उपेंद्र कुशवाहा जदयू के नेता हैं, पार्टी के संसदीय दल के नेता हैं। उन्होंने जदयू से अलग होकर ही ‘राष्ट्रीय लोक समता दल (RLSP)’ का गठन किया था और भाजपा के साथ मिल कर लोकसभा 2014 का चुनाव भी लड़ा था। NDA गठबंधन की जीत के बाद उन्हें मानव संसाधन विभाग में केंद्रीय मंत्री बनाया गया, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा तो उपेंद्र कुशवाहा ठहरे। 2014 लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले उन्होंने भाजपा से अपने संबंध खराब कर लिए और गठबंधन से चलते बने।
नतीजा ये हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव और फिर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का सूपड़ा साफ़ हो गया। अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उपेंद्र कुशवाहा वापस जदयू की तरफ मुड़ गए। हालाँकि, ये दूसरी बार था जब उन्होंने अपनी पार्टी का जदयू में मिले किया। बिहार में कोइरी समाज के सबसे बड़े नेता माने जाने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने 2007 में भी जदयू का साथ छोड़ कर 2009 में ‘समता पार्टी’ बनाई थी, लेकिन उसी साल इसका वापस जदयू में विलय भी कर दिया।
उपेंद्र कुशवाहा बिहार में कितने बड़े नेता हो सकते थे, इसका अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि जब समता पार्टी और जदयू का विलय हुआ था, उसके कुछ ही वर्षों बाद 2003 में उन्हें बिहार विधानसभा में उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। पार्टी में जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के तले उन्हें भविष्य का नेता माना जाने लगा था। लेकिन, बिहार में नेता प्रतिपक्ष और केंद्र में राज्यमंत्री बनने के बावजूद उन्होंने दोनों मौकों को गँवाया।
नीतीश कुमार का ‘लव-कुश’ कॉम्बिनेशन और उपेंद्र कुशवाहा
कुल मिला कर देखें तो उपेंद्र कुशवाहा का वोट बैंक कोइरी समाज से बाहर नहीं है, जो बिहार की जनसंख्या का लगभग 6% के आसपास बताई जाती है। बिहार की राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि हर नेता अपनी जाति के साथ अन्य जातियों का गठबंधन बना कर सत्ता पर आता रहा है। 7% पासवान जनसंख्या के साथ रामविलास पासवान की लोजपा की राजनीति चलती रही। लालू यादव राज्य में यादवों के एकछत्र नेता रहे और आज भी उनकी पार्टी राजद पर यादव समाज का सबसे ज्यादा भरोसा रहता है।
हाँ, 2014 में नरेंद्र मोदी की एंट्री के बाद लोकसभा चुनावों में जातियों का ये गणित टूटता ज़रूर है, लेकिन विधानसभा चुनावों में फिर वही पुराना हाल हो जाता है। लालू यादव ने जब 1990 में सत्ता पाने के बाद खुद को बिहार में यादव समाज और पिछड़ों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित किया, तब नीतीश कुमार को भी उनके मुकाबले ऐसी ही किसी गोलबंदी की ज़रूरत थी। गाँधी मैदान में कुर्मी-कोइरी समाज की एक रैली में उन्हें ये अवसर मिला।
नीतीश कुमार ने उस रैली में ही इस कॉम्बिनेशन को ‘लव-कुश’ का नाम दिया और एक बड़े वोट बैंक को अपने साथ जोड़ लिया। बाद में उन्होंने एक महादलित वोट बैंक बना कर इसे ‘लव-कुश’ के साथ जोड़ा और फिर 2005 में सत्ता पकड़ी सो अभी तक नहीं गए। पिछले 18 वर्षों से नीतीश कुमार सत्ता में हैं। 8 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी जाति का वोट बैंक जदयू के पास होने का ही दावा किया जाता है।
ऐसे में जदयू जानती है कि उपेंद्र कुशवाहा का अपमान कर के कोइरी समाज को नाराज़ नहीं किया जा सकता और इसीलिए जब-जब वो नाराज़गी खत्म कर के वापस आए, उनका स्वागत किया गया। रालोसपा में रहते जो उपेंद्र कुशवाहा मन मुताबिक चुनाव परिणाम न आने पर सड़क पर खून बहने की बातें करते थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गालियाँ देते रहते थे, आज वही भाजपा के करीबी बन गए हैं और नीतीश कुमार को नया सिरदर्द दे रहे हैं।
RCP सिंह: नीतीश कुमार ने आगे बढ़ाया, फिर पटक दिए गए
आपको रामचंद्र प्रसाद सिंह तो याद होंगे, वही जिन्हें RCP सिंह के नाम से जाना जाता है। नालंदा के ही हैं, नीतीश कुमार की ही जाति के। 2020 दुर्गा पूजा के दौरान पुलिस की गोली से अनुराग पोद्दार की मौत हो गई थी, जिस दौरान वहाँ की एसपी लिपि सिंह का नाम खूब उछला था। उनके वो ससुर हैं। RCP सिंह के दामाद भी डीएम हैं। वो खुद केंद्रीय मंत्रालय में बतौर अधिकारी सेवा दे चुके हैं, ऐसे में उनका शक्तिशाली परिवार है।
कुछ वर्षों तक वो नीतीश कुमार के खासे विश्वस्त रहे। इतने कि उन्हें जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। पार्टी ने बिहार से बाहर सँभावनाएँ तलाशनी शुरू कर दीं और उन्होंने राज्य भर में घूम कर संगठन को मजबूत करने के लिए एक के बाद एक कई बैठकें की। जुलाई 2021 में उन्हें जदयू कोटे से केंद्रीय मंत्री भी बनाया गया, जब पार्टी राजग गठबंधन का हिस्सा थी। लेकिन, 1 साल तक इस पद पर रहने के बाद उनके रिश्ते भी जदयू से अच्छे नहीं रहे और उनकी जगह ललन सिंह को ये पद दे दिया गया।
ललन सिंह से भी नीतीश कुमार की दोस्ती-दुश्मनी का दौर चलता रहता है, लेकिन फ़िलहाल वो उनके विश्वासपात्र हैं। RCP सिंह पर नीतीश कुमार का दुःख भी छलका, जब उन्होंने कहा कि जिसे वो आगे बढ़ाते हैं वो भाग ही जाता है। खैर, आजकल RCP सिंह उतने चर्चा में नहीं रहते क्योंकि उनके पास न जदयू के संगठन को तोड़ने को कुव्वत है और न ही विधायकों को अपने पाले में करने की। सच्चाई तो ये है कि महाराष्ट्र का एकनाथ शिंदे बनने की ताकत न तो RCP सिंह में है और न ही उपेंद्र कुशवाहा में।
यू-टर्न के बादशाह माने जाते हैं उपेंद्र कुशवाहा, नीतीश को देंगे टेंशन?
ये दोनों ही केवल बयानवीर हैं। उपेंद्र कुशवाहा अब तक 7 बार पाला बदल चुके हैं और ये 8वीं बार है, जब वो बदलने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के रणनीतिकार कहे जाने वाले अमित शाह से भी मुलाकात की थी, लेकिन शायद अब रणनीति यही है कि वो जदयू में रह कर ही नीतीश कुमार की टेंशन बढ़ाते रहें, जो तेजस्वी यादव की राजद के सहारे सत्ता में बैठे हैं और 2025 विधानसभा चुनाव के बाद से उन्हें ही नेता घोषित कर रहे हैं (भले ऐसा हो या न हो)।
नीतीश कुमार भी खुन्नस में कह चुके हैं कि जिसको जहाँ जाना है वो चला जाए। उपेंद्र कुशवाहा जदयू में अपने खिलाफ साजिश की बातें कर रहे हैं। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह सीधे सीधे कह चुके हैं कि उपेंद्र कुशवाहा भाजपा के संपर्क में हैं। उपेंद्र कुशवाहा तभी से बगावती सुर अपनाए हुए हैं, जब से नीतीश कुमार ने तेजस्वी यादव को महागठबंधन का भविष्य बता दिया है। उन्हें उनकी अपनी महत्वाकांक्षा अधर में लटकती नजर आ रही है।
उपेंद्र कुशवाहा को उप-मुख्यमंत्री बनाए जाने की अफवाह भी उड़ी, इससे सरकार में उनका कद तेजस्वी यादव के बराबर हो जाता। लेकिन, नीतीश कुमार ने इन अटकलों को भी मजाक में उड़ा दिया। इससे उन्हें धक्का लगा। कहाँ वो जदयू के अगले नेता के रूप में खुद को देख रहे थे, कहाँ नीतीश कुमार ने उनका पत्ता ही काट डाला। और सबसे बड़ी बात कि उन पर हमले के लिए उनकी ही जाति के नेता का इस्तेमाल किया जा रहा है।
असल में जदयू के प्रदेश अध्यक्ष हैं, जनवरी 2021 से ही इस पद पर हैं। उससे पहले वयोवृद्ध नेता वशिष्ठ नारायण सिंह को 11 वषों तक इस पद पर रखा गया था। अब उमेश कुशवाहा कह रहे हैं कि उपेंद्र कुशवाहा को शर्म आनी चाहिए। उन्होंने जदयू को नीतीश कुमार द्वारा सींची पार्टी करार देते हुए कहा कि उपेंद्र कुशवाहा उन्हें ही धोखा दे रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा ने अपने राजनीतिक करियर में कई बड़े मौकों को खुद बर्बाद किया है, आगे वो किस काम के हैं ये देखना पड़ेगा।
फ़िलहाल स्थिति ये है कि उपेंद्र कुशवाहा ने जदयू से बाहर जाने से मना कर दिया है। एक मँझे हुए नेता (या ऐसे किसी नेता की सलाह) पर वो चाहते होंगे कि उन्हें पार्टी से बाहर निकाला जाए, ताकि न सिर्फ उन्हें सहानुभूति वोट मिले बल्कि उनका जाति समाज नीतीश कुमार और जदयू से गुस्सा भी हो। फ़िलहाल वो जदयू में रह कर नीतीश को टेंशन देते रहेंगे। उन्हें निकाला भी नहीं जाएगा शायद, क्योंकि नीतीश भी मँझे हुए राजनेता हैं। हाँ, मुख्यमंत्री के लिए भी ये असहज स्थिति ज़रूर है, लेकिन बिहार की यही राजनीति है और देखना है इसमें भाजपा कहाँ है।