Sunday, December 22, 2024
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45 साल पहले जब शरद पवार ने कुर्सी के लिए ‘पीठ में घोंपा था छुरा’, आज भी नहीं भूली वसंतदादा की विधवा… जो बोया, वही काट रहे NCP संस्थापक

वसंतदादा पाटिल की सरकार के समय इंदिरा गाँधी वाली कॉन्ग्रेस के शिवराज पाटिल विधानसभा अध्यक्ष थे। तब जनता पार्टी के कद्दावर नेता चंद्रशेखर हुआ करते थे, जिनसे शरद पवार की नजदीकी थी और सरकार गिराने का कारण भी यही बना।

अब तक ये खबर तो सभी ने सुन ही ली है कि NCP संस्थापक शरद पवार के भतीजे अजित ने बगावत कर दी और नेता प्रतिपक्ष से सीधा महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री बन बैठे। इतना ही नहीं, शरद पवार के वरिष्ठ सहयोगी प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल भी उनके साथ हैं। अजित पवार का कहना है कि पार्टी के सारे विधायक उनके साथ हैं। उन्होंने ये भी स्पष्ट कर दिया कि कोई नई पार्टी नहीं बनाई गई है, NCP का नाम-सिंबल सब पर उनका दावा है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी तारीफ़ की।

इस प्रकरण पर पहले तो शरद पवार कहते रहे कि अजित ने बैठक क्यों बुलाई है उन्हें नहीं पता, लेकिन बाद में बागियों पर एक्शन लेने की धमकी देते हुए फिर से पार्टी खड़ा करने का ऐलान किया। उन्होंने अपने समर्थकों को ढाँढस बँधाते हुए कहा कि ये कोई नई बात नहीं है, पहले भी वो इन चुनौतियों से निपट चुके हैं। शरद पवार ने जीतेन्द्र अव्हाड को नेता प्रतिपक्ष नियुक्त कर दिया। उन्होंने पुत्री मोह में फँस कर बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया था, जिसके बाद अजित पवार के तेवर कड़े हो गए।

आज भले ही शरद पवार अपने भतीजे को बागी कहें क्योंकि उनकी पार्टी और परिवार में टूट हो चुकी है, लेकिन क्या उन्हें याद नहीं है कि आज से 45 साल पहले उन्होंने भी ‘धोखेबाजी’ कर के ही पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तशरीफ़ रखा था? तब वह मात्र 38 की उम्र में देश में सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड बनाया था, लेकिन इसके पीछे थी उनके ‘गुरु’ के साथ उनकी ‘दगाबाजी’। उन्होंने आपातकाल के बाद कॉन्ग्रेस के कमजोर होने का फायदा उठाया और कुर्सी लपक ली।

आइए, उस दौर को याद करते हैं। असल में शरद पवार इंदिरा गाँधी वाली कॉन्ग्रेस की विरोधी ‘रेड्डी कॉन्ग्रेस’ का हिस्सा थे, जिसमें शंकर राव चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी जैसे नेता शामिल थे। शंकरराव चव्हाण आगे चल कर राजीव गाँधी की सरकार में भारत के वित्त मंत्री और पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में गृह मंत्री बने। वो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके थे और 80 के दशक के उत्तरार्ध में फिर से बने। वो पेशे से अधिवक्ता थे। वो ‘भारत स्काउट्स एन्ड गाइड्स’ के अध्यक्ष पद पर भी रहे।

वहीं ब्रह्मानंद रेड्डी की बात करें तो वो 60 के दशक में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे और 1977 में कॉन्ग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने। हैंदराबाद और इसके आसपास उद्योग-धंधे को बढ़ावा देने का श्रेय उन्हें ही जाता है। उनकी कॉन्ग्रेस के मुकाबले वहीं इंदिरा गाँधी के रूप में दूसरी तरफ मजबूत विरोधी थी। इंदिरा के साथ महाराष्ट्र प्रदेश कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष नासिकराव तिरपुडे थे। वो महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री भी थे। उन्होंने ही विदर्भ को अलग राज्य का दर्जा देने के लिए आंदोलन शुरू किया था।

ये कहानी शुरू होती है 1978 में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव से। इसमें जहाँ ‘जनता पार्टी’ 99 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल बन कर उभरी, वहीं कॉन्ग्रेस के खाते में 69 सीटें आईं। इंदिरा गाँधी वाली कॉन्ग्रेस भी 62 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। जनता पार्टी को रोकने के लिए कॉन्ग्रेस के दोनों धड़ों ने दिल्ली की दौड़ लगाई और इंदिरा गाँधी की सहमति से वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री और नासिकराव तिरपुडे उप-मुख्यमंत्री बने। वहीं शरद पवार के पास उद्योग मंत्रालय था।

शरद पवार के बारे में जानने लायक बात ये है कि उनका परिवार शुरू से चीनी के कारोबार में था और आज भी अधिकतर चीनी मिल उनके परिवार और इससे जुड़े लोगों के पास ही हैं। शरद पवार ने 40 विधायकों को तोड़ दिया और सुशील कुमार शिंदे समेत कई मंत्री उनके साथ निकल लिए। इसके बाद वसंतदादा पाटिल की सरकार अल्पमत में आई गई और उनके इस्तीफे के बाद शरद पवार मुख्यमंत्री बने। उन्होंने ‘समाजवादी कॉन्ग्रेस’ नाम से एक नई पार्टी का निर्माण कर दिया।

शुरू से जोड़तोड़ में दक्ष रहे शरद पवार ने फिर जनता पार्टी, वामपंथी दलों और ‘शेतकरी कामगार पक्ष’ के साथ मिल कर ‘प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटक फ्रंट’ गठबंधन बनाया और सीएम बने। हालाँकि, 18 महीने चलने के बाद उनकी सरकार को बरख़ास्त कर दिया गया था। आज यही शरद पवार अपने भतीजे को बगावत करने पर नसीहत दे रहे हैं। वो शायद भूल गए हैं कि 45 साल पहले महाराष्ट्र की सत्ता हथियाने के लिए उन्होंने कौन-कौन से हथकंडे अपनाए थे। 17 फरवरी, 1980 तक उनकी सरकार चली।

शरद पवार ने मात्र 4 महीने चली वसंतदादा पाटिल की सरकार को गिरा दिया था। शरद पवार के पिता गोविंद राव बारामती किसान सहकारी बैंक में कार्यरत थे। उनकी माँ खेती-किसानी के काम में लगी हुई थी। शरद पवार ने पुणे में कॉलेज में एडमिशन लिया और छात्र संघ के महासचिव के रूप में राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। 1967 में मात्र 26 वर्ष की उम्र में वो बारामती से विधायक बन गए थे। जब उन्होंने सरकार गिराई, तब खुद वसंतदादा पाटिल ने कहा था कि शरद पवार ने उनकी पीठ में छुरा घोंपा है।

वसंतदादा पाटिल की सरकार के समय इंदिरा गाँधी वाली कॉन्ग्रेस के शिवराज पाटिल विधानसभा अध्यक्ष थे। तब जनता पार्टी के कद्दावर नेता चंद्रशेखर हुआ करते थे, जिनसे शरद पवार की नजदीकी थी और सरकार गिराने का कारण भी यही बना। शारद पवार की सरकार में शिवराज पाटिल को हटा कर प्राणलाल वोरा स्पीकर का पद मिला। शरद पवार ने कोऑपरेटिव की राजनीति और चीनी मिलों के जरिए अपना एक नेटवर्क तैयार किया, जिससे उन्हें मानव संसाधन भी मिला और वित्त भी।

ये भी आपको मालूम होगा कि आपातकाल के कारण लोकप्रियता खो चुकीं इंदिरा गाँधी को हरा कर बनी जनता पार्टी की सरकार टिक नहीं पाई थी और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सबको एक साथ लेकर चलने में नाकाम रहे थे। अतः 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और इंदिरा गाँधी ने सत्ता में आते ही 9 राज्यों की गैर-कॉन्ग्रेसी सरकार को बरख़ास्त कर दिया। 1985 में शरद पवार की कॉन्ग्रेस (समाजवादी) को 54 सीटें मिलीं और वो नेता प्रतिपक्ष बने। 1987 में राजीव गाँधी के ऑफर के बाद शरद पवार फिर कॉन्ग्रेस में लौटे।

बाद में सोनिया गाँधी का विरोध करते हुए उन्होंने कॉन्ग्रेस तोड़ कर NCP बना ली। ये अलग बाद है कि फिर यूपीए में शामिल होकर इसी कॉन्ग्रेस की सरकार में कृषि मंत्री बने। शरद पवार खुद जोड़तोड़ और सौदेबाजी वाले नेता रहे हैं। 2019 में भी जब अजित पवार ने बगावत की थी तब वसंतदादा पाटिल की विधवा शालिनिताई पाटिल ने शरद पवार को उनके करतूतों की याद दिलाई थी। उन्होंने इसे ‘कर्मा’ बताते हुए कहा कि अब शरद पवार को पता चलेगा कि कैसा लगता है।

आज उस शरद पवार को लेकर अगर कोई नैतिकता के दावे करता है तो उसे पहले शरद पवार का इतिहास ही देख लेना चाहिए। शरद पवार ने वसंतदादा पाटिल के साथ जो किया, 41 वर्ष बाद भी उनकी विधवा ये भूली नहीं हैं। अजित पवार वही तो कर रहे हैं, जो उन्होंने घर में रह कर अपने चाचा से सीखा है। शरद पवार पुत्रीमोह में फँसे रह गए और इधर पार्टी और परिवार दोनों टूट गए। शरद पवार को 1978 को याद करना चाहिए और पार्टी के भविष्य को स्वीकार कर लेना चाहिए।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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