ट्विटर पर ‘ट्रू इंडोलॉजी’ नामक एक लोकप्रिय अकाउंट है। इस अकाउंट से करीब 1 साल पहले सावित्रीबाई फुले को लेकर कुछ बातें ट्वीट की गई थी। फुले को आमतौर पर भारत की ‘पहली महिला शिक्षक’ के रूप में जाना जाता है। ‘ट्रू इंडोलॉजी’ के इस ट्वीट में तथ्यों के साथ दावा किया गया था कि सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षक बताना ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है। साथ ही यह भी कहा गया था कि ब्रिटिश मिशनरियों ने स्कूल स्थापित करने में सावित्रीबाई फुले की मदद की थी।
सावित्रीबाई फुले को लेकर किए गए ये दोनों दावे तो इतिहास से जुड़ी जानकारी देने की तरह था। हालाँकि ‘ट्रू इंडोलॉजी’ ने अपने इस ट्वीट में अंग्रेजों द्वारा स्थापित स्कूलों में महिलाओं के यौन शोषण समेत अन्य शोषण का भी उल्लेख किया था। इसके चलते यह ट्वीट विवादों में आ गया। ‘ट्रू इंडोलॉजी’ द्वारा किए गए इन दावों को कुछ इस तरह देखा गया कि सावित्रीबाई फुले ने ब्रिटिश मिशनरियों को अपने स्कूल के माध्यम से भारतीय लड़कियों का शोषण करने में मदद की। हालाँकि ‘ट्रू इंडोलॉजी’ ने अपना अकाउंट डीएक्टिवेट करने से पहले खुद पर लगे इस आरोप को खारिज कर दिया था।
‘ट्रू इंडोलॉजी’ का कहना है कि सावित्रीबाई फुले पर उनके ‘ट्विटर थ्रेड’ को जानबूझकर तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। उन्होंने केवल तथ्यों के साथ जानकारी दी थी, जिसे लोगों ने एक-दूसरे के साथ जोड़कर ऐसा समझ लिया, जो वह कभी कहना ही नहीं चाहते थे। तमाम दावों और बातों के बीच जानना बेहद दिलचस्प है कि सावित्रीबाई फुले के बारे में किए गए जिस ट्वीट को लेकर विवाद शुरू हुआ, वह एक साल से भी अधिक पुराना है।
एक और दिलचस्प बात यह है कि जब यह सब हो रहा था, तब महाराष्ट्र में एमवीए (एनसीपी, शिवसेना और कॉन्ग्रेस का गठबंधन) सरकार सत्ता में थी। अब वो सत्ता से बाहर हैं। एमवीए के कुछ घटक दलों के द्वारा इसे विवादित किया गया सत्ता से बाहर होने के बाद। ऐसे में इसमें हो रहे राजनीतिक खेल से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हालाँकि इस मुद्दे पर हो रही राजनीति पर भाजपा की प्रतिक्रिया को भाजपा समर्थकों का एक वर्ग या ‘हिंदुत्व’ समर्थकों’ का एक वर्ग एक समान नजरों से देख रहा है।
महाराष्ट्र विधानसभा में बीजेपी नेता और महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि वह ‘ट्रू इंडोलॉजी’ को सजा देना चाहते हैं। दरअसल, कॉन्ग्रेस के एक नेता ने कहा था कि ‘ट्रू इंडोलॉजी’ को बाँध कर सरेआम परेड करानी चाहिए। गौरतलब है कि कभी चोरों की परेड निकालने पर ‘लिंचिस्तान’ का रोना रोने वाली कॉन्ग्रेस आज एक ट्विटर हैंडल के लिए तालिबानी सजा की माँग कर रही थी। इसी को लेकर जवाब देते हुए देवेंद्र फडनवीस ने कहा, “परेड को भूल जाओ, मैं कहता हूँ कि उन्हें सार्वजनिक रूप से फाँसी पर लटका दो। लेकिन सिर्फ यह कहने से कुछ हासिल नहीं होगा। हमें देश के कानूनों का पालन करना होगा।”
बेशक देवेंद्र फडणवीस ने यह बयान कानून का पालन करने की बात कहने के लिए दिया था। लेकिन हिंदुत्व समर्थकों का एक बड़ा वर्ग उनके इस बयान पर सवाल उठा रहा है कि ‘आखिर यह कैसा हिंदुत्व है?’
संघ और ‘संघी’
आरएसएस को एक तरह का ब्रांड बनाने में उन लोगों की बहुत बड़ी भूमिका रही है, जो ब्रांडिंग करना जानते थे और जिनके पास यह करने की ‘पावर’ थी। सीधे शब्दों में समझें तो ये वो लोग थे जो मीडिया, शिक्षाविद, ‘कार्यकर्ता’ हैं, जो किसी भी प्रकार का नैरेटिव सेट करने में माहिर हैं। कम्युनिस्ट और खासतौर से ‘हिंदू-विरोधी’ विचारधारा के लोग तब से लेकर आज तक नैरेटिव गढ़ने में टॉप पर हैं। इन लोगों ने आरएसएस को फासीवादी, कट्टरपंथी, रूढ़िवादी, सांप्रदायिक, हिंसक, पितृसत्तात्मक, जातिवादी, ब्राह्मणवादी करार दिया था।
RSS को बदनाम करने के लिए हर तरह का ठप्पा लगाने की कोशिश की गई। लेकिन आरएसएस ने इन सबका जवाब देना उचित नहीं समझा। संघ हमेशा से ही ‘अपना काम’ करते हुए आलोचनाओं को नजरअंदाज करता रहा है। ऐसे में इससे नफरत करने वालों ने अपने दिमाग में एक ऐसी तस्वीर बना ली है, जो सच्चाई से उलट है। देवेंद्र फडणवीस के बयान पर हिंदुत्व समर्थकों के एक वर्ग का गुस्सा, निराशा और हिंदुत्व को लेकर भाजपा/आरएसएस का क्या स्टैंड है, जैसे सवाल इसी भ्रम को दर्शाते हैं।
वास्तव में हिंदुत्व समर्थकों के इस वर्ग को यह लग रहा था कि कम्युनिस्टों ने आरएसएस पर जो आरोप लगाए थे, वह सच हो सकते हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हिंदुत्व समर्थकों ने RSS को वो सब समझ लिया था, जो कम्युनिस्ट आज तक कहते आए हैं। लेकिन लगातार एक जैसा नरेटिव सामने आने पर कुछ बातें कभी-कभी सच लगने लगती हैं। यूँ तो कम्युनिस्ट किसी को भी केवल इसलिए फासीवादी करार दे देंगे क्योंकि वह हिंदू धर्मग्रंथों की कुछ व्याख्याओं (कभी-कभी मनगढ़ंत भी) से असहमत हो जाता है। वास्तव में, कम्युनिस्ट अपनी बात सिद्ध करने के लिए किसी को भी ‘संघी’ करार देते हैं। एक नजरिए से देखें तो आरएसएस को कम्युनिष्टों के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए, क्योंकि कम्युनिस्टों ने कई ऐसे लोगों को ‘संघी बना दिया’ जो कभी शाखा गए ही नहीं।
ऐसे ‘संघियों’ और संघ के बीच हुई ‘दोस्ती’ टूटनी ही थी। यही हो रहा है। हिंदुत्व के प्रति आरएसएस (बड़े पैमाने पर देखें तो भाजपा भी) की समझ और दृष्टिकोण को समझना कथित नए-नए संघ समर्थकों के बस की बात नहीं। सच्चाई यह है कि यह अंतर हमेशा था। बीजेपी/आरएसएस ने राजनीति के कारण पूरी तरह से ट्रैक नहीं बदला है, लेकिन ज्यादातर सहानुभूति रखने वालों ने आरएसएस को वह मान लिया है, जो वह कभी था ही नहीं था। इसे साबित करने के लिए सिर्फ तीन शब्द हैं- सीता राम गोयल।
‘ट्रू इंडोलॉजी’ के मुद्दे पर आरएसएस की अधिकांश आलोचना लगभग चार दशक पहले सीता राम गोयल द्वारा संघ के बारे में की गई आलोचना की तरह ही है। इसलिए ईमानदारी से कहूँ तो आप आरएसएस पर हाल की कुछ घटनाओं (मोदी के नेतृत्व में भाजपा की राजनीतिक जीत) के बाद रास्ता बदलने या भटकने का आरोप नहीं लगा सकते। आपको संघ पर दशकों से गलत रास्ते पर चलने का आरोप मढ़ना चाहिए। हालाँकि वर्तमान परिस्थितियों को देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि सीता राम गोयल का भूत संघ को परेशान करने के लिए वापस आ गया है।
सीता राम गोयल ने मोटे तौर पर आरएसएस को इस बात के लिए दोषी ठहराया है कि उसने मार्क्सवादियों, इस्लामवादियों और मैकाले द्वारा बनाए गए सिस्टम का वैचारिक मुकाबला करने के लिए एक देशी और मजबूत ढाँचा विकसित नहीं किया। वहीं आलोचकों का दूसरा वर्ग उम्मीद करता है कि आरएसएस उसकी चाह के हिसाब से ढल जाए। हालाँकि संघ ने हमेशा से ही आलोचना को दरकिनार कर अपना काम करते रहने की शैली अपनाई है। इसलिए इस बार जो हो रहा है, वह नया तो बिल्कुल भी नहीं है।
आरएसएस और आंबेडकर/फुले
हर किसी के मन में यह सवाल उठ सकता है कि अगर आरएसएस इन आलोचनाओं को नजरअंदाज कर सकता है, तो वह सावित्रीबाई फुले के बारे में कही गई बातों को नजरअंदाज क्यों नहीं कर सकता? अब इसका उत्तर समझने के लिए आरएसएस और भाजपा के बीच अंतर को समझना होगा। अव्वल तो यह कि भाजपा किसी भी कीमत पर इस मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर सकती। इसका बड़ा कारण है कि सावित्रीबाई फुले को महाराष्ट्र में एक बड़ा आकर्षण माना जाता है। इसलिए भाजपा तो क्या कोई भी पार्टी इस मुद्दे को नजरअंदाज नहीं कर सकती। भाजपा का यह दृष्टिकोण किसी भी तरह से गलत नहीं है और आरएसएस की विचारधारा से भी अलग नहीं है। सच्चाई यह है कि संघ ने करीब 4 दशक पहले ही आंबेडकर और फुले को अपने साहित्य में स्थान देना शुरू कर दिया था। इसका मतलब यह नहीं है कि इससे पहले संघ ने इन दोनों को नकार दिया था।
पद्मश्री से सम्मानित आरएसएस विचारक और वरिष्ठ पत्रकार रमेश पतंगे ने अपनी किताब “मी, मनु अनी संघ” (मैं, मनु और संघ) में आपातकाल के दौरान जेल में डाले जाने के दिनों को याद करते हुए लिखा है कि उस दौर में ही उन्होंने आंबेडकर और फुले के बारे में अधिक पढ़ना शुरू किया था। मराठी में लिखी इस किताब में यह विस्तार से बताया गया है कि आंबेडकर कि फुले के जीवन और आरएसएस के उद्देश्य एक जैसे हैं। वास्तव में संघ उन्हें हिंदू समाज की बुराइयों (मुख्य रूप से छुआछूत और जातियों में ऊँच-नीच) को दूर करने वाले लोगों के रूप में देखता है। संघ का मानना है कि इन सबसे ‘हिंदू एकता’ को बल मिला है।
आरएसएस का हिंदुत्व
आरएसएस का हिंदुत्व किसी भी तरह के नियमों या परंपरा से बँधा हुआ नहीं है। बल्कि संघ हिंदू एकता और समरसता जैसे उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए परिस्थितियों के हिसाब से ढल जाता है। सीधे शब्दों में समझें तो संघ एक सुधारवादी संगठन है या समय के साथ परिवर्तन में विश्वास करता है और यह आगे भी ऐसा ही रहेगा।
संघ के दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है या बदलाव हो गया है, जैसी बातें सिर्फ बातें ही हैं। वास्तव में संघ दशकों से ऐसे ही चला आ रहा है। एक ही दृष्टिकोण के साथ संघ की शाखाओं के विस्तार और समवैचारिक संगठन भाजपा का सत्ता में प्रभुत्व बढ़ा है। ऐसे में संघ को बदलाव की आवश्यकता पड़ेगी भी तो क्यों?
गौर करने वाली बात यह है कि सावित्रीबाई फुले पर ‘ट्रू इंडोलॉजी’ के ट्वीट जैसी घटना महाराष्ट्र में पहले भी हो चुकी है। रमेश पतंगे की किताब में भी इसका जिक्र है। इसके दो पैराग्राफ देखें तो इसमें लिखा है:
“समरसता सम्मेलन समाप्त ही हुआ था कि ‘सोबत’ साप्ताहिक के दिसंबर अंक में हिंदुत्व की वकालत करने वाले लेखक डॉ. बाल गंगल द्वारा महात्मा फुले पर प्रकाशित एक लेख ने एक बार फिर महाराष्ट्र में उथल-पुथल मचा दी। इस लेख की हेडलाइन थी – ‘वह किस तरह का महात्मा है? वह फुले नामक बदबू है’ डॉ. गंगल ने महात्मा फुले की अभद्र भाषा और उनके बयानों को उनके लेखन से हटाए जाने पर कड़ी आपत्ति जताई थी। ‘सोबत’ साप्ताहिक का किसी भी तरह से आरएसएस से कोई लेना-देना नहीं था। हालाँकि बाल गंगल एक स्वयंसेवक थे, लेकिन वे संघ के प्रवक्ता नहीं थे। तब भी, संघ को बदनाम करने के इरादे से ‘प्रगतिशील’ लोगों द्वारा एक हिंसक हंगामा खड़ा किया गया था।”
खुद को लेखकों की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी, व्यक्ति की आजादी का चैंपियन कहने वाले प्रगतिशील गिरोहों ने एक प्रसिद्ध मराठी साप्ताहिक ‘सोबत’ के संपादक जीवी बेहेरे और डॉ. बाल गंगल का मुँह बंद कर दिया। मैं भी, बौद्धिक आतंकवाद, धूर्तता और दोहरे व्यवहार की क्रूरता का सामना कर रहा था। ईर्ष्यालु और उन्मादी पाखंडी गिरोह बन गए थे। उन्हें प्रगतिशीलों के सरगना शरद पवार का आशीर्वाद प्राप्त था। ‘सोबत’ की प्रतियों को विभिन्न स्थानों पर जलाया गया। बाल गंगल को धमकियाँ दी गईं। सार्वजनिक स्थानों पर उनका घूमना मुश्किल हो गया था। ईरान के अयातुल्ला खुमैनी ने सलमान रुश्दी के खिलाफ फतवा जारी किया था। प्रगतिशील लोग खुमैनी की तरह ‘फतवा’ में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन दोनों की मानसिकता एक जैसी थी। महात्मा फुले हमारे धार्मिक ग्रंथों की आलोचना कर सकते हैं, वह उनकी व्याख्या कर सकते हैं। उसी तरह, अगर कोई फुले की आलोचना करता है, तो उसे बौद्धिक आतंकवाद का शिकार क्यों होना चाहिए? उन्हें बौद्धिक जवाब क्यों नहीं दिया जाता?”
यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया है, इसे यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। हिंदी अनुवाद आकाश शर्मा ‘नयन’ ने किया है।