अमानत खाँ उदास-सा चेहरा लिए, घर के बाहर सर लटकाए बैठा था मानो कोई अपना चला गया हो। सहसा कोई आवाज आती है तो उसे लगता है कि कहीं वही तो जिंदा हो कर वापस नहीं आ गया। ज़ोहरा ने आज खाना नहीं बनाया, बच्चों का भी दिल नहीं लग रहा। एक अजीब सी मायूसी पूरे मोहल्ले में छाई हुई है। लगता है कि कोई अजीज रुखसत हो भी गया, और शायद नहीं भी… क्योंकि वो अमानत और ज़ोहरा जैसे मानवीय संवेदना से भरे परिवारों के बुझे चूल्हों में कहीं ज़िंदा है। आज के इस माहौल में जहाँ पाँच साल के दूसरे मजहब के बच्चे को कोई हिन्दू बच्चा यह कह देता है कि उसका देश तो पाकिस्तान है, अमानत और ज़ोहरा मानवता की उम्मीद की वो लौ है जो पिछले कुछ सालों में साम्प्रदायिकता की कालिमा को दूर करने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं।
इंतज़ार कीजिए मुर्शीदाबाद के स्वयंसेवक बंधुप्रकाश पाल, उनकी पत्नी जो सात माह के बच्चे के साथ गर्भवती थी, उनके आठ साल के बच्चे की नृशंस हत्या पर आने वाले ऐसे लेखों का क्योंकि वो आएँगे तो ज़रूर! हत्या का कारण पता नहीं चल पाया है। कुछ इसे राजनैतिक हत्याकांड मान रहे हैं, कुछ मजहबी एंगल देख रहे हैं और पुलिस इस दृष्टिकोण से भी देख रही है कि पति-पत्नी के संबंध में भी कुछ खटास थी। लेकिन बात वो है भी नहीं। सोचिए किसी दलित की परिवार सहित हत्या, गुजरात में हो गई होती। सोचिए मरने वाला परिवार बदायूँ के किसी दूसरे मजहब विशेष का होता।
इसमें कुछ भी सामने नहीं आ पा रहा और तय कारणों से वो मीडिया शांत है, जो राज्य सरकार की पार्टी, मरने वाले का मजहब या जाति देख कर आधे घंटे में बता देती है कि फलाँ राज्य में कानून-व्यवस्था बेकार हो चुकी है, अल्पसंख्यकों का जीना हराम है, कथित निचली जाति के लोग सवर्णों की हिंसा का शिकार हो रहे हैं। प्रेस क्लब तक मार्च भी निकलता, सूरत के किसी मस्जिद से मजहबी भीड़ निकलती और वो नारा लगाती कि वो हत्यारों को छोड़ेंगे नहीं।
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बंधुप्रकाश को वो लग्जरी हासिल नहीं। वो बंगाल का है, हिन्दू है, और संघ का सदस्य भी था। इसलिए वो मरे या खो जाए, ‘डर का माहौल’ बताने वाली, आपातकाल के प्रजनन हेतु फोरप्ले में लिप्त मीडिया को न तो क़ानून व्यवस्था पर कोई सवाल पूछना है, न ही राजनैतिक या साम्प्रदायिक एंगल को तरजीह देनी है। अगर ये इस हत्याकांड पर फेसबुक पोस्ट भी लिखेंगे तो कहेंगे कि बेवजह इसे तूल मत दीजिए, पुलिस को अपना काम करने दीजिए, जब जाँच हो जाएगी तो सब क्लियर होगा, अभी मैं क्या बोलूँ? सही बात है! लेकिन यही लोग तो याकूब मेनन से लेकर अफजल गुरु जैसों पर सालों केस चलने के बाद, हर जाँच में आरोप सिद्ध होने के बाद भी, उन्हीं संस्थाओं को ‘एक्स्ट्राजूडिशियल किलिंग’ के नाम पर सुप्रीम कोर्ट को ‘कातिल’ का दर्जा दे देते हैं।
वो भी रहने दीजिए, याद कीजिए कि गौरी लंकेश की हत्या के आधे घंटे बाद कातिलों से जुड़े कितने विशेषण ट्रेंड करने लगे थे? याद कीजिए कि उन्हें क्या कहा गया था, कौन सा धर्म जुड़ा था उन ‘तब भी अनाम’ कातिलों के साथ, कौन सी विचारधारा जोड़ी गई थी और कैसे प्रेस क्लब से ले कर दिल्ली की सड़कों तक काँख में पानी मार कर अपनी थकान और नकली दुख का चेहरा ओढ़े लोग मार्च करते दिखे थे। डाभोलकर, कलबुर्गी, पनसरे आदि की मौत किसके शासनकाल में हुई थी और आरोप किस धर्म, विचारधारा और सरकार पर लगे थे, वो भी याद कीजिए। जब सब याद आ जाए तो पता कीजिए कि इन पापी पत्रकारों की कल्पना और वास्तविकता में कितना अंतर था, या है।
हलाल की हुई लाशों का संदेश
सोशल मीडिया पर चाकुओं से गोदी हुई नहीं, रेती हुई तस्वीरें घूम रही हैं। चाकुओं से गोदने और रेतने में वही अंतर है जो झटका और हलाल में होता है। एक में पीड़ित को सिर्फ मारना उद्देश्य होता है, एक में तड़पा कर मारना, और शायद कोई मैसेज देना। सोशल मीडिया पर घूमती तस्वीरों पर लिखा है कि ये बहुत हिंसक तस्वीरें हैं, क्या आप इसे देखना चाहते हैं? जिस तरह से चाकू का इस्तेमाल हुआ है और जैसे काटा गया है, वो एक संदेश देने जैसा है। वो बता रहा है कि कातिल की मंशा हत्या से ज़्यादा कुछ और भी बताने की रही होगी।
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ये बताता है कि कातिल के मन में निजी, राजनैतिक या मजहबी घृणा का स्तर कितना ज़्यादा रहा होगा। ये किसी को नहीं पता, ममता की पुलिस तो यही कहती फिर रही है, कि मारने वाले कौन थे या हत्या का मकसद क्या था। ये बात और है कि बंगाल में राजनैतिक और मजहबी हत्याएँ, जिनमें तृणमूल के काडर और दंगे को आतुर एक खास मजहब के लोग शामिल रहते हैं, इतनी आम हो गई हैं कि जिनकी पार्टी के कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं, वो ट्विटर पर बस गिन रहे हैं कि ये 81वाँ बलिदान हुआ।
मैं लिबरलों से सवाल नहीं पूछ रहा क्योंकि वो बिके हुए लोग हैं जो अपने बाप का नाम गलत बता देंगे अगर कोई चार पैसे दे दे। मेनस्ट्रीम मीडिया के दो फुट के कलम की नींब वाला पुरस्कार ले कर नाचने वाले पत्रकार अमूमन ममता के बंगाल पर चुप ही पाए जाते रहे हैं। जब दंगों से बंगाल जल रहा था तो वो बिहार के जलने पर लेख लिख रहे थे। उन्हें जब लगातार गाली पड़ी तब जा कर दो लाइन में लिखा कि बंगाल की हालत खराब है, लेकिन हर बात पर मोदी की हलक में हाथ डालने वाले पत्रकार शिरोमणि ममता का नाम तक नहीं लिख पाए थे।
मेनस्ट्रीम मीडिया इन बातों पर हमेशा चुप ही देखी गई है। बड़े-बड़े तोपों की नालों में बाल्टी भर पानी चला जाता है। तब उन्हें यह याद नहीं आता कि उनके घर में बेटी है, पत्नी है, माँ है, बाप है…तब उन्हें बंधुप्रकाश पाल में खुद की छवि नहीं दिखती, उनकी गर्भवती पत्नी की चाकुओं से हलाल करने के स्टाइल पर उनका गला नहीं रुँधता, वो तब चेहरा दुख से मलिन नहीं करते कि पेट में सात माह के अजन्मे बच्चे ने क्या बिगाड़ा था, तब वो याद नहीं करते कि उनका बेटा भी उसी आठ साल के बच्चे जैसा होगा…तब दर्शकों को यह नैरेटिव नहीं थमाया जाता कि हत्या का कारण चाहे निजी दुश्मनी हो, राजनैतिक रंजिश हो या मजहबी घृणा, लेकिन ममता बनर्जी के राज्य में यह इतना आम क्यों हो गया है?
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हत्या तो हुई है न या वो भी फोटोशॉप है?
सारे एंगल हटा दीजिए, बस यह बता दीजिए कि हत्या तो हुई है न? या वो भी फोटोशॉप के माध्यम से ममता के खिलाफ साजिश रची जा रही है? ये तो तय है न कि चार हत्याएँ हुई हैं एक घर में जिसमें दो वयस्क, एक बच्चा और एक अजन्मा शिशु शामिल है? क्या ये इतना नृशंस नहीं है कि राज्य की कानून-व्यवस्था पर सवाल किया जा सके? कुछ दिन पहले एक भाजपा कार्यकर्ता को भी इसी ‘हलाल’ स्टाइल में रेता गया था और भाजपा वाले ट्विटर पर 81 लिख रहे थे, क्या ये कानून व्यवस्था पर टिप्पणी करने के लिए काफी नहीं है?
या अचानक से गौरी लंकेश की हत्या से ले कर अफजल और याकूब की फाँसी तक, जिस मीडिया को पूरा डिटेल मालूम रहता था कि कातिलों की पहचान क्या है, वो किस पार्टी के हैं, किस भगवान को पूजते हैं, किसके स्पीच सुन कर उनके मन में जहर आया, और ये कि इन कट्टर आतंकियों की फाँसी भारतीय न्यायिक व्यवस्था द्वारा की गई हत्या है, उस मीडिया के पास आज कोई सवाल या विश्लेषण नहीं? ये लोग तो बाथ टब में बैठ कर श्रीदेवी की आत्महत्या की गुत्थी सुलझाते दिखते हैं, वो मुर्शिदाबाद की इन चार हत्याओं पर चुप कैसे हैं?
अभी तक एक बहुत गहरा शक निजी दुश्मनी की तरफ जा रहा है। बंगाल के कुछ स्थानीय लोग बता रहे हैं कि 65% समुदाय विशेष की आबादी वाले इलाके में इस व्यक्ति की हत्या का कारण आपसी दुश्मनी भी हो सकती है। हाँ, बंधुप्रकाश आरएसएस से जुड़े हुए थे जो कि निजी या राजनैतिक या मजहबी, किसी भी तरह के एंगल को खत्म नहीं करता। लेकिन सवाल घूम-फिर कर वहीं आता है कि ममता बनर्जी के राज्य में ये सब इतना आम कैसे है? वहाँ की पुलिस कहाँ है? क्या पिछले चार दिन में हुई आठ राजनैतिक हत्याओं, या विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद की गई 35 हत्याओं, या कुल मिला कर 81 भाजपा-संघ कार्कर्ताओं की जान का कोई मोल नहीं?
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मीडिया इस संख्या का इन आँकड़ों का विश्लेषण क्यों नहीं करता? क्या ये काम भी अब सोशल मीडिया के जिम्मे ही है? या फिर बंगाल ममता बनर्जी का निजी गणतंत्र बन गया है और वो वहाँ की तानाशाह है जिसके बारे में लिखने-बोलने पर बंगाल की खुफिया जाँच एजेंसी के लोग आपको राह चलते गोली मार देंगे? कई बार तृणमूल कॉन्ग्रेस का यह भी दावा रहा है कि भाजपा वाले खुद ही अपनी पार्टी के लोगों को मार रहे हैं ताकि तृणमूल पर आरोप लगाया जा सके। यह बात अगर सही है तो फिर ममता की पुलिस निकम्मी है कि एक भी मामले में उन्होंने अभी तक एक भी भाजपा वाले को नहीं पकड़ा है जिससे उनकी यह विचित्र बात साबित हो सके।
आम बंगाली डरा हुआ क्यों है?
बंगाल में रह रहे आम बंगाली से पूछिए कि वहाँ क्या हो रहा है। वो बताएगा कि राजनैतिक हत्याओं के मामले में तृणमूल ने वामपंथियों को पीछा छोड़ने की ठान रखी है। विकास के नाम पर कुछ नहीं हो रहा। तुष्टिकरण का चरम यह है कि सैकड़ों दंगों की आग में बंगाल जलता रहा, घर और परिवार तबाह हो गए लेकिन वोट बैंक की राजनीति में एक खास मजहब के लोग कभी पुलिस स्टेशन की प्राथमिकी में भी नहीं आते। साड़ी को सर पर रख कर दुआ में होंठ हिलाने वाली ममता बनर्जी उतनी ही बड़ी नौटंकीबाज है, जितना ‘मजहबी’ से ज्यादा ‘मजहबी’ दिखने की कोशिश करते इफ्तार पार्टी में टोपी लगाए घूमते हिन्दू नेता। इसलिए वहाँ हॉस्पिटल में बुजुर्ग की मौत हो जाने पर दो सौ कट्टरपंथियों की भीड़ पहुँच जाती है और तबाही मचा कर चली जाती है। उन ‘शंतिप्रियों’ का कुछ नहीं होता।
आप सोचिए कि लोग सोशल मीडिया पर ये तक पूछ रहे हैं कि अगर कल को उनके साथ मुर्शिदाबाद हत्याकांड जैसा कुछ हुआ तो वो क्या करेंगे? वो पूछ रहे हैं कि क्या वो घर में तलवार और फरसा रख सकते हैं? वो पूछ रहे हैं कि ऐसा करना गैरकानूनी है शायद, पुलिस पूछेगी तो क्या बताएँगे? ये आम लोग हैं जो बंगाल में डर कर जीवन बिता रहे हैं। उन्हें डर है कि किसी दिन उनका धर्म या विचार, किसी के मजहबी उन्माद की बलि चढ़ जाएगा और वो प्रतिकार की स्थिति में भी नहीं रहेंगे और मरने के बाद मिलने वाले इंसाफ की बात तो रहने ही दीजिए।
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सोचना यह है कि बंगाल के मुर्शिदाबाद में कैमरा और ओबी वैन ले कर करोड़ों का टर्नओवर पाने वाली मीडिया क्यों नहीं पहुँच रही? सवाल यह है कि ये बात सोशल मीडिया और फंडिंग से जूझते पोर्टलों के पन्नों से बाहर क्यों नहीं पहुँच रही? पुलिस और प्रशासन के मुँह में माइक ठूँस देने वाले पत्रकार कहाँ हैं? मोबाइल फोन के दौर में मुर्शिदाबाद की घटना को इतना क्यों दबाया जा रहा है कि जब मैं वहाँ के किसी स्थानीय व्यक्ति से बात करना चाहता हूँ तो वो इस बात पर बात करने से झिझकता है और कहता है कि व्हाट्सएप्प पर कॉल करो? आप जरा सोचिए कि किस तरह की मॉनिटरिंग हो रही है कि आम आदमी मुर्शिदाबाद पर बात करने से पहले कॉल काट देता है!
क्योंकि उसे बंगाल में ही रहना है और ये बंगाल वही है जिसके नाम के लिए ममता हर सप्ताह मोदी सरकार को रिमाइंडर भेज रही हैं, लेकिन उसकी बदलती पहचान के लिए कुछ नहीं कर रही। मृतक की माँ ये कह रही है कि उसका संघ से कोई नाता नहीं था, जबकि ऐसा कहने के लिए उस पर दवाब न बनाया गया हो ऐसा मानना भी मुश्किल ही है। बंगाल में ही रहना है, उसी इलाके में, उसी सरकार के राज में, उसी पुलिस थाने के अंतर्गत जहाँ ये सब आम है, जहाँ हत्या करने के बाद न तो हत्यारा पकड़ा जाता है, न उस पर चर्चा होती है।
डर का माहौल यही है। राज्य में तानाशाही ऐसे ही चलती है। पुलिस जब आपके साथ धरने पर बैठ जाती है तो पता चलता है कि उसने अपनी सेवाओं और जनता की रक्षा के शपथ की बत्ती बना कर किसके लिए जला रखी है। बंगाल में कभी जली हुई लाश मिलती है, कभी पोल पर टँगी हुई लाश मिलती है, कभी नदी में फूली हुई लाश मिलती है, कभी हलाल की हुई, गर्दन रेती हुई लाश मिलती है, लेकिन न तो हत्यारा मिलता है, न ही इंसाफ।