पीएम मोदी आज (12 अक्टूबर, 2023) उत्तराखंड के दौरे पर है। इस दौरान उन्होंने पिथौरागढ़ जिले में मौजूद पार्वती कुंड में पूजा-अर्चना की और अल्मोड़ा के जागेश्वर मंदिर के दर्शन भी किए। ये पृथ्वी के उन पावन स्थलों में हैं जहाँ आदि योगी महादेव और उनकी प्राण प्रिया पार्वती के चरण पड़े थे।
गले में विष धारण करने वाले नीलकंठ पर यकीन दिखाता है कि कहीं कुछ तो है जो सर्वशक्तिमान है। उसी सर्वशक्तिमान के कर्मस्थली की ऐसी रहस्यमयी और अनोखी बातें हैं जो सदियों से चली आ रही हैं। उन पर कुछ बताते हुए मन भाव-विभोर हो उठता है, अहसास होने लगता है जगत के इस भव सागर में आप महज एक छोटे से कण के अलावा कुछ भी नहीं है। बार-बार कुछ ऐसे साक्ष्य याद दिलाते हैं कि सच में ऐसा कुछ हुआ था।
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— Narendra Modi (@narendramodi) October 12, 2023
फिर चाहे हम बात करें पार्वती कुंड और आदि कैलाश के रास्ते में खुद उग और कट जाने वाली धान की खेती की या फिर जागेश्वर मंदिर में दुनिया के नष्ट होने की भविष्यवाणी को सच करने वाली पीतल की मूर्ति की हो।
भगवान शिव के प्रेम और समर्पण के साक्ष्य हैं तो आदि कैलाश में उनके वैरागी जीवन के दर्शन होते हैं। आदि कैलाश समुद्र तल से 6,310 मीटर की ऊँचाई पर है इसे छोटा कैलाश भी कहा जाता है। एक तरह से ये तिब्बत में माउंट कैलाश की प्रतिकृति है। यह उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में भारत-तिब्बत सीमा के पास है।
कुमाऊँ हिमालय की शांति में आदि कैलाश हिंदू भक्तों के लिए बहुत महत्व का तीर्थ है। छोटा कैलाश की तलहटी में सुंदर पन्ना जैसी पार्वती झील और गौरी कुंड में इसकी झलक देखी जा सकती है।
आदि कैलाश का पार्वती झील, गौरी कुंड में पड़ने वाला प्रतिबिंब जैसे कहता हो कि ‘पार्वती बोली शंकर से, सुनिये भोलेनाथ जी, रहना है हर एक जन्म में, मुझे तुम्हारे साथ जी, वचन दिजिए न छोड़ेंगे, कभी हमारा हाथ जी’ और लगता है भोलेनाथ उसी वचन को आज तक निभा रहे हैं।
आदि कैलाश को शिव कैलाश, बाबा कैलाश और जोंगलिंगकोंग पीक जैसे कई नामों से जाना जाता है। आदि कैलाश और ओम पर्वत को कैलाश पर्वत के बराबर और उनकी तरह ही पवित्र माना जाता है। महाभारत, रामायण और बृहत पुराण जैसे अधिकांश हिंदू धर्मग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।
मान्यता हैं कि भगवान शंकर बारात लेकर देवी पार्वती से विवाह करने गए थे और उनका पहला पड़ाव आदि कैलाश था। यह स्थान इतना सुंदर और आकर्षक था कि भगवान शिव जिन्हें केदारनाथ (पर्वतों के भगवान) के नाम से भी जाना जाता है उन्हें इस जगह से प्यार हो गया। उन्होंने इसे अपना दूसरा घर बना लिया।
वो यहाँ अक्सर अपने परिवार, देवी पार्वती या उमा और बच्चों कार्तिक और गणेश के साथ आते थे। आदि कैलाश मंदिर के पास पार्वती सरोवर इस पवित्र कहानी का साक्षी है। वहीं ये भी मान्यता है कि आदि कैलाश वह जगह है जहाँ शिव और पार्वती कैलाश पर्वत पर समाधि लेने के लिए जाते समय रुके थे।
आज भी स्थानीय लोगों की ऐसी मान्यता है कि यहाँ पार्वती मंदिर और कुंड हैं। इसी कुंड में माता पार्वती ने स्नान किया था। इस क्षेत्र का महाभारत में उल्लेख मिलता है और इसका प्रमाण है इतनी ऊँचाई जहाँ इंसान भी मुश्किल से पहुँच पाता हैं वहाँ खुद होने वाली धान की खेती।
आदि कैलाश सिन ला दर्रे और ब्रह्मा पर्वत के पास है। कुट्टी गाँव से 17 किमी दूर आदि कैलाश जाने का बेस कैंप भगवान शिव मंदिर के साथ पवित्र जोलिंगकोंग झील या पार्वती कुंड के पास है। यहाँ ऑक्सीजन की कमी रहती है। यहाँ थोड़ी ही दूर चलने पर ही साँस फूलना आम बात है। आदि कैलाश जाने के रास्ते में पार्वती कुंड पहला पड़ाव है।
यहाँ से आदि कैलाश के बहुत ही अलौकिक दर्शन होते हैं। फेसबुक पर घुम्मकड़ी जिंदाबाद ग्रुप में मुकेश यादव ने लिखा है कि इसे शब्दों में बता पाना बहुत मुश्किल है। वह लिखते हैं कि यहाँ धान के पौधे दिखते हैं। कहा जाता है कि धान की ये खेती यहाँ महाभारत काल में पांडवों के पाँच भाईयों में से एक महाबली भीम ने की थी। इस धान की खेती के बीच जाने की मनाही है।
ये शायद भीम के बाहुबल का ही प्रताप है कि ये खेती बगैर नागा यहाँ अब भी खुद-ब-खुद होती रहती है। कहा जाता है कि ये धान कोई नहीं बोता और न ही कोई काटता है मगर फिर भी ये खुद उगकर कट भी जाती है जिसे कोई भी नहीं देख पाता। इसके बाद आदि कैलाश मंदिर की तरफ बढ़ते हुए वहाँ पार्वती कुंड के दर्शन होते हैं। इसके बाद गौरी कुंड आता है।
फेसबुक पर एक अन्य यूजर आयुश फोटो सहित लिखते हैं, “इस फोटो में धान की खेती है जो कि आदि कैलाश यात्रा में आपको पार्वती सरोवर से गौरी कुंड जाने वाले रास्ते में देखने को मिलेगी। इसे मैने खुद जुलाई महीने में अकेले यात्रा के दौरान देखा।”
शिव कण-कण में व्याप्त है इसकी गवाही धरती का जर्रा-जर्रा देता है। देव भूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में तो इसके कई साक्ष्य देखने को मिलते हैं। इस राज्य की मूल निवासी होने की वजह से मैंने भी पग-पग ऐसे निशान देखें हैं जो बगैर आवाज बताते हैं कि हिंदू धर्मग्रंथों में जिन जगहों का उल्लेख है वो वास्तव में हैं। वो काल्पनिक नहीं है।
मेरे जिले अल्मोड़ा का जागेश्वर धाम भी इनमें से एक हैं। हालाँकि यहाँ मुझे एक बार ही जाने का मौका मिला, लेकिन इसकी तस्वीर मेरे मानस पटल पर हमेशा के लिए छप गई। स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में जागेश्वर ज्योतिर्लिंग का उल्लेख है।
इसके अनुसार, 8वाँ ज्योतिर्लिंग, नागेश, दरुक वन में है। यह देवदार के पेड़ों से जुड़ा है। ये पेड़ इस मंदिर के चारों तरफ फैले हुए हैं। गंगा की जटाओं सरीखी नदी जटा गंगा इसके पास बहती है। इसके अलावा शिव पुराण, लिंग पुराण में भी इस मंदिर का उल्लेख आता है।
स्कंद पुराण और लिंग पुराण के अनुसार, भगवान शिव के 8वें शिव ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति यहीं हुई थी और यहाँ से ही उनकी पूजा शुरू हुई थी। जागेश्वर मंदिर 1870 मीटर पर है। इसके परिसर के अंदर शिव के मुख्य मंदिर सहित यहाँ विभिन्न देवी-देवताओं के छोटे प्राचीन मंदिर मिलाकर कुल 125 मंदिर हैं।
यहाँ कुल 174 मूर्तियाँ हैं जिनमें भगवान शिव और पार्वती की रत्नों से सुसज्जित पत्थर की मूर्तियाँ शामिल हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा साल 2000 में मंदिर के नजदीक संग्रहालय बनाया गया है। इसके मुताबिक ये मंदिर 9वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी तक के हैं।
उत्तर भारत में गुप्त साम्राज्य के दौरान हिमालय की पहाडियों के कुमाऊं क्षेत्र में कत्यूरीराजा थे। जागेश्वर के मंदिरों का निर्माण भी उसी काल में हुआ। इसी कारण मंदिरों में गुप्त साम्राज्य की झलक भी दिखलाई पड़ती है। इस मंदिर के पास में धन के देवता कुबेर का मंदिर भी है।
ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ धाम जाने से पहले जागेश्वर धाम का दौरा किया और कई मंदिरों का जीर्णोद्धार और पुनर्निर्माण करवाया। हालाँकि, इसे लेकर विद्वानों की राय अलग-अलग हैं।
इस मंदिर को लेकर एक मान्यता यह भी है कि जिन औरतों के बच्चे नहीं होते वो जागेश्वर के महामृत्युंजय मंदिर में आकर संतान माँगती है और भोलेनाथ उनकी झोलियों में संतान का सुख डालते हैं। मंदिर के पुजारी कहते हैं कि महिलाएँ महामृत्युंजय मंदिर के सामने दीया हाथ में लेकर संतान की कामना करती हैं।
जागेश्वर मंदिर के परिसर में तो देवदार का एक पेड़ ऐसा भी है, जिसमें भगवान शिव का परिवार दिखता है। इसे अर्धनारीश्वर कहा जाता है। इस पेड़ में भगवान शिव, माता पार्वती और उनके पुत्र गणेश की आकृति दिखाई पड़ती हैं।
इस सबके बावजूद मुझे इस मंदिर की एक चीज जो आज तक याद है और जिसे आँखे बंद कर में अभी देख सकती हूँ वो हैं यहाँ पीतल की एक मूर्ति इसके हाथों में दीया है और जो जलता रहता है। इसे लेकर कहा जाता है कि जब ये दीया इस मूर्ति के पैरों तक पहुँच जाएगा, तब दुनिया नष्ट हो जाएगी।
मेरी आमा (दादी) कहा करती थी कि ये दीया लगातार नीचे की तरफ खिसकता जा रहा है जो आँखों से देखने पर पता नहीं चलता। वहीं इस ज्योति के बारे में कहा जाता है कि ये ज्योति अनन्त काल से जल रही है और सदैव जलती रहेगी क्योंकि सारी सृष्टि शिवमय है। सृष्टि से पूर्व शिव हैं और सृष्टि के विनाश के बाद भी केवल शिव ही शेष रहेंगे।
प्रोफेसर मृगेश पांडे मुताबिक, कहा जाता है कि जिन जगहों में 12 ज्योतिर्लिंग और उप ज्योतिर्लिंग हैं, वहाँ माँ भगवती के शक्ति पीठ हैं। यहाँ दारूकावने में दारुका नाम के राक्षस का माँ भगवती ने वध किया। इसी वजह ये यहाँ माँ भगवती का शक्ति पीठ है इसे माँ पुष्टि देवी के शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है और नागेश्वर नागेश नाम से ज्योतिर्लिंग भी है।
पुष्टि नागेश शक्ति पीठ के पास लव-कुश नामक हवन कुंड है। कहा जाता है कि वशिष्ठ ऋषि ने लव-कुश से यहाँ पर पूजा करवाने के बाद ये बनवाया था। जनश्रुति है कि श्रीराम यहाँ शिवजी के दर्शन को आए थे।
इस बात के प्रमाण स्वरूप दंडेश्वर में पहाड़ी के शिखर ढाल पर रामपादुका के तौर पर दिखता है। यहाँ के पुजारी षष्टी प्रसाद भट्ट के अनुसार, पूरे भारत में शिव लिंग रूप में पूजा यहीं से शुरू हुई थी। सभी ज्योतिर्लिंग के मूल में जागेश्वर ही है।