अमेरिका के विदेश विभाग की 2019 की अंतरराष्ट्रीय मज़हबी स्वतन्त्रता रिपोर्ट हाल ही में विदेश सचिव माइक पोम्पिओ द्वारा जारी की गई थी। अपनी रिपोर्ट में ट्रम्प प्रशासन ने ‘मोब-लिंचिंग’ की घटनाओं पर ‘चिंता जताते हुए’ मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। भाजपा का सीधे-सीधे नाम लेकर आरोप लगाया है कि उसके नेता मुस्लिम-विरोधी भाषण देते हैं। अधिकारी ऐसे हमलावरों पर मुकदमा अमूमन नहीं चलाते हैं। भारत के विदेश मंत्रालय ने इस पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि भारतीय संविधान सभी समुदायों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा का वचन देता है। भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी अमेरिकी रिपोर्ट की भर्त्सना की गई है।
MEA: The Indian Constitution guarantees fundamental rights to all its citizens, including its minority communities. We see no locus standi for a foreign entity to pronounce on the state of our citizens’ constitutionally protected rights. 2/2 https://t.co/HXb24xCY5R
— ANI (@ANI) June 23, 2019
समझ नहीं आ रहा यह हास्यास्पद ज्यादा है या पाखंडी कि जिस देश में कू क्लक्स क्लान (KKK) जैसे अश्वेतों को दोबारा गुलाम बनाने का सपना देखने वाला संगठन और रिचर्ड स्पेंसर जैसे श्वेत श्रेष्ठतावादी (वाइट सुप्रीमेसिस्ट) हज़ारों की संख्या में समर्थन जुटा रहे हों, जहाँ श्रीनिवास कुचिभोटला को एडम प्यूरिनटन “मुस्लिम समझ कर” गोली मार देता है, वह देश दूसरे देशों को अपने नागरिकों से कैसा बर्ताव करना है, यह सिखाए। अमेरिका को दूसरे देशों पर रिपोर्ट जारी करने के पहले अपने गिरेबान में झाँक लेना चाहिए।
58% अमेरिकी मुस्लिमों को आईएस समर्थक के रूप में देखते हैं
अमेरिका के ही एक संस्थान द्वारा किए गए सर्वे में अमेरिका के 58% लोग मुस्लिमों को आतंकी संगठन आईएस के समर्थक के रूप में देखते हैं। अमेरिका में 9/11 के एक आतंकी हमले के बाद मुस्लिमों के खिलाफ भेदभाव की घटनाएँ 250% बढ़ गईं हैं। अमेरिका की ट्रम्प सरकार को दुनिया की सबसे ज्यादा ‘इस्लामोफ़ोबिक’ सरकार के रूप में देखा जाता है। अमेरिका को सोच कर देखना चाहिए कि अगर भारत ने इन सब चीज़ों पर ‘रिपोर्ट’ जारी करनी शुरू कर दी तो उसे मुँह छिपाने कहाँ जाना पड़ेगा।
हिन्दूफ़ोबिया पर तो अमेरिका बात करना शुरू भी नहीं कर पाएगा
इस्लामोफ़ोबिया पर तो अमेरिका इस्लामी आतंक के हमलों की आड़ लेकर बचने का प्रयास कर सकता है, लेकिन हिन्दूफ़ोबिया के बचाव में अमेरिका के पास क्या तर्क है? कभी भारत को अमेरिका का ‘बौद्धिक वर्ग’ “P/C lens: P = pollution, population, and poverty; C = caste, cows, curry” से स्टीरियोटाइप करता है, कभी ‘बियर योग’ से लेकर ‘परम्परा-विहीन योग’ (पोस्ट-लीनियेज योग) के नाम पर बिना श्रेय दिए योग की चोरी करता है।
अमेरिकी मीडिया अपनी ही सांसद तुलसी गबार्ड और हिन्दू-अमेरिकन फाउंडेशन के खिलाफ हिन्दूफ़ोबिक नैरेटिव बुनता है। गीता को ‘बेईमान किताब’ कहने वाली और जानबूझकर हिन्दू शास्त्रों का गलत अनुवाद करने वाली वेंडी डोनिगर अमेरिकी सरकार से टैक्स छूट पाने वाले (यानि अमेरिकी सरकार द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से वित्तपोषित) शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर है। नाज़ियों के हाकेनक्रेउज़ (हुक की तरह मुड़ा हुआ क्रॉस, ईसाई प्रतीकचिह्न) को अमेरिका में हिन्दुओं के स्वास्तिक के रूप में प्रचारित किया जाता है। भारत की संसद इस पर ‘कदम उठाने’ लगे तो?
शार्लोट्सविल याद दिलाएँ?
कहते हैं, “जाके पैर न फटी बिवाई, ता का जाने पीर पराई!” लेकिन अमेरिका के मामले में उलटी ही गंगा बह रही है। अपने राष्ट्रपति के खुद लिबरल गिरोह के दुष्प्रचार का शिकार होने के बावजूद ट्रम्प प्रशासन दूसरे देशों के खिलाफ उसी मीडिया के आधार पर राय कैसे बना सकता है? सामान्य अपराधों को पत्रकारिता के अमेरिकी समुदाय विशेष ने उसी तरह “भारत में इस्लामोफ़ोबिया/अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा” बना दिया है, जैसे ट्रम्प के “शार्लोट्सविल में दोनों ओर अच्छे लोग थे… दक्षिणपंथी प्रदर्शनकारियों में कुछ निंदनीय नाज़ी और वाइट सुप्रीमेसिस्टों के अलावा कुछ अच्छे लोग भी थे” को मीडिया ने “देखो, ट्रम्प नाज़ियों और वाइट सुप्रीमेसिस्टों का समर्थन कर रहा है” के रूप में दिखाया था।
(शार्लोट्सविल में दक्षिणपंथी विरोध प्रदर्शन के बीच में घुस कर कुछ नाज़ियों और वाइट सुप्रीमेसिस्टों ने दूसरी ओर विरोध प्रदर्शन कर रहे वामपंथियों के खिलाफ हिंसा की थी, जिसमें 3 लोग मारे गए थे, और 30 से ज्यादा घायल हुए थे। ट्रम्प ने घटना की निंदा करते हुए कहा था कि दक्षिणपंथी जुलूस में केवल निंदनीय नाज़ी और वाइट सुप्रीमेसिस्ट ही नहीं, कुछ अच्छे लोग भी थे, जिनका इस घटना ने कोई लेना-देना नहीं था। मीडिया ने उनकी बात को तोड़-मरोड़ कर उन्हें नाज़ी-समर्थक के रूप में दिखाया था।)
चौधराहट कम करे अमेरिका
अमेरिका के लिए बेहतर होगा कि वह अपनी चौधराहट दुनिया पर दिखाना बंद करे। उसे पहले तो यह साफ़ करना चाहिए कि भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाज़ी करने वाला वह होता कौन है। अपने यहाँ चुनावों में बर्नी सैंडर्स के ख़िलाफ़ षड्यंत्र के खुलासे तक में रूसी हाथ होने के नाम से अमेरिकियों को अजीर्ण हो गया था। ऐसे में दूसरे देशों में इस हस्तक्षेप का क्या मतलब है? दूसरे देशों की सम्प्रभुता में हस्तक्षेप की यह नीति और कुछ नहीं, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ही है। बेहतर होगा कि अमेरिका हिंदुस्तान के मुस्लिमों की चिंता छोड़ कर अपनी इस खुजली का इलाज करे।