डर तो इस बात से भी लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे/झगड़े मे 'समुदाय विशेष' की जगह 'मुस्लिम समुदाय' लिखने पर मुझे साम्प्रदायिक कह दिया जाएगा। लेकिन क्या करें साहब, मन मारकर जी रहे हैं, क्योंकि यहाँ तो हिन्दू नाम होना ही साम्प्रदायिक हो जाने की निशानी है।
अब कोई लक्ष्मणसूर्य पोहा टाइप इतिहासकार ये न कह दे कि कस्तूरबा गाँधी वाक़ई में इतालवी महिला थी जो महात्मा गाँधी से दक्षिण अफ़्रीका प्रवास के दौरान मिली थी और दोनों में प्रेम हो गया।
समाज और धर्म को एक ही मानकर, मंदिर को पूर्णतः पर्यटन स्थल मानकर उसमें जेंडर इक्वालिटी का तड़का मत लगाइए। हर बात, हर जगह लागू नहीं होती। अगर हो पाती तो मुस्लिम महिलाएँ भी हर मस्जिद में नमाज़ पढ़ पातीं और एक एनजीओ इसी सुप्रीम कोर्ट में इसे लागू करने के लिए लगातार प्रयत्न करती रहती।