धनबाद रेलवे स्टेशन के बाहर रामचरितर की चाय की दुकान है। एनडीटीवी (NDTV) से मेरा पहला परिचय यहीं हुआ था। यह तब की बात है जब पत्रकारिता से अपना रिश्ता जुड़ा नहीं था। एनडीटीवी का 24 घंटे वाला टीवी चैनल बस शुरू ही होने वाला था। एनडीटीवी नामक टीवी चैनल के आगमन की मुनादी करता हुआ एक होर्डिंग रामचरितर की चाय की दुकान के सामने लगा था।
चाय पी रहे लोगों में आईएसएम धनबाद के एक प्रोफेसर भी थे। उन्होंने होर्डिंग पर लिखे ‘जुबां पर सच, दिल में इंडिया’ की मीमांसा से अपनी बात शुरू की। प्रणय रॉय वगैरह तक कई बातें बोली। सच कहूँ तो उस समय उन बातों से खुद को जुड़ा हुआ नहीं पा रहा था। क्योंकि न प्रणय रॉय को जानता था, न एनडीटीवी को। सालों बाद जब इसी धंधे में रच-बस गया तो एनडीटीवी, उसके टैग लाइन और प्रणय रॉय को लेकर उन प्रोफेसर साहब की कही हर बात से जुड़ता गया।
ऐसा नहीं है कि होर्डिंग दर्शन ने मुझे एनडीटीवी से जोड़ दिया। मैं एनडीटीवी से तब भी नहीं जुड़ा जब अचानक से एक दिन उसके स्टूडियो में एंट्री मिली गई। मैं दिल्ली एक शादी में शामिल होने आया था। मेरे गृह जिले मधुबनी के एक सीनियर उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। उनसे मिलने गया। उन्होंने बताया कि एनडीटीवी की गाड़ी आ रही है। कुछ लोगों को बतौर गेस्ट ले जाना है एनडीटीवी के एक कार्यक्रम में। कार्यक्रम का नाम था शायद ‘गुगली’। नवजोत सिंह सिद्धू उसमें बतौर एक्सपर्ट आते थे। एंकर कोई महिला थी, नाम याद नहीं। मैं भी उसी गाड़ी में सवार हो अर्चना कॉम्पलेक्स पहुँच गया। एक सवाल भी मिला था, एक्सपर्ट से पूछने को। लेकिन उस कार्यक्रम के बीच में ही कोई ब्रेकिंग न्यूज आ गई और उस दिन गुगली का वह एपिसोड पूरा नहीं हुआ। अपन न सवाल पूछ सके, न टीवी की स्क्रीन पर चेहरा जूम हो पाया।
समय बीतता गया। लक बाय चांस पत्रकारिता के ही धंधे में आ गया। प्रभात खबर धनबाद में काम करते हुए पहली बार एनडीटीवी से जुड़ा। एनडीटीवी के एक संपादक धनबाद आए। उन्हें झरिया में जमीन के नीचे लगी आग पर स्टोरी करनी थी। उसी सिलसिले में मुलाकात हुई। उन्होंने काफी सराहा। कहा कि यदि दिल्ली में काम करने का मूड बने तो आओ। नंबर, पता सब कुछ दिया। कुछ महीने बाद अपन दिल्ली पहुँच गए।
राजधानी एक्सप्रेस का वो सफर कल्पनाओं में कटा। कल्पनाओं में एनडीटीवी का स्टाफ बन गया। बीट भी खुद से ही तय कर लिया। दिल्ली पहुँच संपादक जी को कॉल किया और अर्चना कॉम्पलेक्स पहुँच गया। संपादक जी नहीं मिले। रिसेप्शन से ही एक सज्जन के पास भेज दिया गया। उन्होंने बात की और विदा कर दिया। उन सज्जन का कहना था कि NDTV में काम करने के लिए जो ‘योग्यता’ चाहिए वह मेरे पास नहीं है। आश्चर्यजनक तौर पर जिस बॉयोडाटा के आधार पर एनडीटीवी में खारिज हो गया था, बाद में उसी बॉयोडाटा ने उसी दिल्ली में दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, आउटलुक जैसे मीडिया संस्थानों के दरवाजे खोले।
ऐसा नहीं है कि नौकरी नहीं मिलने के कारण मुझे एनडीटीवी से नफरत हुई। इससे भी नाराज नहीं हुआ कि बुलाकर भी धनबाद आने वाले उसके संपादक ने दिल्ली में मिलना उचित न समझा। मुझे एनडीटीवी से तब भी घिन न हुई, जब प्रभात खबर से ही इस संस्थान में पहुँचे एक शख्स ने यह कहा कि तुमने इंटरव्यू के दौरान एबीवीपी से अपने जुड़ाव के बारे में खुलकर क्यों बातें की। इससे मुझे घिन होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि एबीवीपी की पहचान से ही मुझे प्रभात खबर में नौकरी मिली थी।
दिल्ली की इस यात्रा ने मेरे भीतर एनडीटीवी के लिए प्रेम ही पैदा किया, क्योंकि मैं रवीश कुमार (Ravish Kumar) को जानने लगा। तब रवीश ब्लॉग लिखते थे। मुझे यह नहीं पता कि उस समय एनडीटीवी में उनकी क्या भूमिका थी। कुछ सालों बाद जब ‘रवीश की रिपोर्ट’ चली तो यह रिश्ता खत्म हो गया। दैनिक भास्कर में मेरे साथ काम करने वाले जानते हैं कि रवीश ने मुझे 2010 के आसपास एक दिन सोशल मीडिया पर ब्लॉक कर दिया। ऐसा नहीं कि मैंने उन्हें कोई अपशब्द कहे, जिसका वे अक्सर रोना रोते हैं। वजह केवल इतनी सी थी कि ‘रवीश की रिपोर्ट’ की सफलता के बाद भी उनको लेकर मेरी सोच नहीं बदली। आज पूरा देश उस सोच से अवगत है।
इन्हीं सालों में ये भी जाना कि मेरे बॉयोडाटा में जेएनयू नहीं था। आईआईएमसी नहीं था। लेफ्ट लॉबी की मुहर नहीं थी। सेटिंग वाले लिंक मेरे पास नहीं थे। वगैरह वगैरह। उन सज्जन ने सही कहा था कि एनडीटीवी में काम करने की मेरी ‘योग्यता’ नहीं थी। लेकिन इसका मुझे अफसोस नहीं है। मीडिया के जितने भी दुकान हैं वे इसी तरह चलते हैं। सबने अपनी अपनी तरफ से ‘विशिष्ट योग्यता’ तय कर रखी है।
कुल मिलाकर प्रणय रॉय का एनडीटीवी कोई पवित्र गाय नहीं था। न ही अकेला सूअर। जैसे धंधा चलाने के लिए मीडिया के अन्य दुकान विष्ठा में लेटते हैं, वैसा एनडीटीवी भी करता रहा। जैसे कर्मचारियों के चयन, उन्हें आगे बढ़ाने में विविध तरह की ‘योग्यता’ का ध्यान रखा जाता है, वैसा ही एनडीटीवी भी करता रहा। जैसे रवीश कुमार गए, पहले भी लोग जाते रहे हैं। आगे भी जाते रहेंगे।
एनडीटीवी और रवीश कुमार केवल इस मायने में अलग हैं कि वे विष्ठा को भस्म बताकर बेचते और खुद को बुद्धिजीवी बताते रहे। रवीश कुमार ने सच कहा है कि भारत में पत्रकारिता का कभी स्वर्ण युग नहीं रहा। पर यह भी उतना ही सच है कि स्वतंत्र भारत में परिवार की गोद में बैठ जाने वाली भारत की मुख्यधारा की मीडिया को सहलाने और चाटने की ‘योग्यता’ से विभूषित एनडीटीवी ने ही किया। इसी सहलाने और चाटने में रवीश कुमार यह भूल गए कि आलोचना और भौंकने में फर्क होता है। भौंकने से स्वर्ण युग नहीं आता, भस्म युग ही आता है, जिसमें खुद ही भस्मासुर होना पड़ता है।
भारत की पत्रकारिता को जिंदा रहने के लिए न तो एनडीटीवी की जरूरत है और न रवीश कुमार की। इसलिए लिबरल-सेकुलर विलाप में बहकर गले को गीला न करिए। कुछ करना है तो देखने-पढ़ने का नजरिया बदलिए। जब तक नजरिया नहीं बदलेंगे तब तक इसी तरह थेथरई को पत्रकारिता और थेथर को प्राइम टाइम एंकर बताकर ये मीडिया संस्थान आप पर थोपते रहेंगे।