इम्तियाज़ अहमद फ़ैयाज़ (19) और मोहम्मद रज़ा अब्दुल क़ुरैशी (20) गाय चुराकर ले जा रहे थे, कॉन्स्टेबल पेट्रोलिंग कर रहे थे। गायों को दो पिकअप ट्रक में डालकर यवतमाल से नागपुर ले जाया जा रहा था। सड़क पर पुलिस ने रूटीन चेक के लिए बैरिकेड लगा रखे थे। इन्हें लगा कि पकड़ लिए जाएँगे तो बिना रुके गाड़ी भगाते रहे।
इसी चक्कर में पुलिस जवान धीरज मेशराम और सूरज मेशराम घायल हो गए। उन्होंने आगे ख़बर कर दी कि दो गाड़ियाँ गाय लेकर भाग रही हैं। पुलिस कॉन्स्टेबल प्रकाश मेशराम और कमलेश मोहमरे अगले चेकपोस्ट पर तैनात थे। गाड़ियाँ वहाँ की ओर आईं, तो प्रकाश मेशराम ने रुकने का इशारा किया। न तो अब्दुल रुका, न क़ुरैशी। गाय लेकर जा रहे ट्रक से अब्दुल और क़ुरैशी में प्रकाश मेशराम को कुचल दिया, जिससे उनकी वहीं पर मृत्यु हो गई।
इनके दो और साथी, मोहम्मद फ़ाहिम अजीम शेख़ (23) और आदिल ख़ान उर्फ़ मोहम्मद क़ादिर ख़ान (21), मौक़े से भाग गए थे, जिन्हें पुलिस ने बाद में पकड़ लिया।
अब आप इसी हत्या की कहानी के नाम बदल दीजिए, प्रकाश को ट्रक पर बिठा दीजिए, फ़ैयाज़ और क़ुरैशी को पुलिस बना दीजिए। तब ये घटना, भले ही इसमें घृणा का एंगल न हो, साम्प्रदायिक हो जाएगी। हिन्दू के हाथों समुदाय विशेष के युवक की दुर्घटनावश हुई मौत में भी गोमांस डालकर लोग प्राइम टाइम कर लेते हैं। पता चलता है कि जुनैद तो सीट के लिए लड़ रहा था, झगड़े के कारण मारा गया।
मेरी कोई मंशा इस अपराध को धार्मिक रंग देने की नहीं है। मेरी मंशा कुछ असहज सवाल पूछने की है कि क्या प्रकाश की हत्या, पहले के डिजिटल क्रोध, प्लाकार्ड संवेदनशीलता और असहिष्णु समाज के मानदंडों पर खरा उतरेगा? क्या समुदाय विशेष के युवकों द्वारा गाय की स्मग्लिंग, जबकि ये ग़ैरक़ानूनी होने के साथ-साथ धार्मिक तौर पर भी संवेदनशील मुद्दा है, एक सामान्य अपराध है?
और सामान्य अपराध है तो फिर गौरक्षकों को यही पत्रकार, यही सेलिब्रिटी और यही बुद्धिजीवी छिटपुट हिंसा की घटनाओं पर आड़े हाथों क्यों लेते हैं? आख़िर, तब पूरा देश ही कैसे इनटॉलरेंट हो जाता है? यहाँ तो अब्दुल और क़ुरैशी ने दो पुलिस जवान को घायल किया और तीसरे को कुचल कर मार ही दिया। क्या इस घटना में से और कुछ निकलकर नहीं आता?
क्या मैं, पिछली घटनाओं को आधार मानकर, ये सवाल न पूछूँ कि समुदाय विशेष के लोगों को गाय काटकर खाने की ऐसी भी क्या चुल्ल मचती है कि वो पुलिस कॉन्स्टेबल की हत्या करने पर आमादा हो जाते हैं? कानून के लिए कितनी इज़्ज़त है कि बुलंदशहर में भी इसी तरह गायों के काटे जाने की ख़बर की परिणति एक पुलिस अफसर और एक नवयुवक की मौत के रूप में हुई?
आख़िर बवाल तब ही क्यों होता है जब गायों की चोरी करते हुए अपराधियों को कुछ हिन्दू गौरक्षक घेरकर पीटते हैं, या कभी-कभी पिटाई के कारण उनकी मौत हो जाती है? अगर मोदी इन गौरक्षकों को फोन करके गाय चोरी करनेवालों को पीटने कहता है, तो फिर इन समुदाय विशेष के लड़कों को पुलिस के ऊपर गाड़ी चढ़ाने के लिए कौन फोन करता है?
जब गौरक्षक कानून हाथ में लेते हैं तो पूरा हिन्दू समाज असहिष्णु हो जाता है, फिर इस दूसरे मजहब द्वारा पुलिस की हत्या पर क्या कहा जाए? जब गाय का मसला संवेदनशील और भावनात्मक है तो फिर एक ख़ास मज़हब के लोग बार-बार वही काम क्यों करते हैं जिससे भावनाएँ भड़कती हैं और दंगे तक होते हैं? क्या हिन्दू समाज को उकसाकर, अपने अल्पसंख्यक होने की बात कहकर मजहबी अपराधी अपने दुष्कृत्यों को अंजाम देते रहेंगे?
सवाल बहुत हैं, आउटरेज बहुत कम है। कानून और दूसरे धर्म के संवेदनशील प्रतीकों को लेकर इस तरह की सोच जो लोगों की जान ले लेती है, तथा हमारे मीडिया में इन बातों को हमेशा ‘छिटपुट’ हिंसा कहकर टरका दिया जाता है, एक समाज की मानसिकता के बारे में बहुत कुछ कहता है।
दस मिनट में रॉड, लाठी और पत्थर लेकर सड़कों पर उतरती भीड़, और वोट के लिए पुलिस स्टेशन में दंगाइयों के साथ बैठकर बातचीत करना, ऐसे नवयुवकों को हिम्मत देता है कि वो पुलिस कॉन्स्टेबल के ऊपर गाड़ी चढ़ाकर निकल जाते हैं।