भारत में लगभग 19,500 मातृभाषाएँ हैं। मातृभाषा यानी वह भाषा जो बच्चे अपनी माँ से सीखते हैं। कुल 121 ऐसी भाषाएँ हैं जिन्हें 10,000 से ज्यादा लोग बोलते हैं। इसमें से 22 ऐसी भाषाएँ हैं जिन्हें भारत की 96% से ज्यादा जनता बोलती है। लगभग एक चौथाई लोग दो भाषाएँ बोल सकते हैं, और 7% को तीन भाषाएँ आती हैं। शहरी युवाओं की बात करें तो आधे लोग दो भाषाएँ जानते हैं, और 18% तीन।
हर राज्य में अपनी भाषाएँ हैं, कुछ में एक तो कुछ में एक से ज्यादा। इसका मतलब क्या है? मतलब यह है कि भाषाएँ बहुत हैं, लोग भी बहुत हैं और इन्हीं भाषाओं की विविधता, सांस्कृतिक विरासतों के कारण राज्यों का बँटवारा हुआ था। एक भाषा-संस्कृति के लोग, एक राज्य को अपना मान कर, अपनी छोटी-छोटी संस्कृतियों को सहेजते हुए, भारत की चलायमान सभ्यता के सहभागी बने।
जब राष्ट्र इतना विविध हो, तो जाहिर है कि संवाद के लिए किसी एक भाषा की जरूरत पड़ेगी। उत्तर भारत में हिन्दी की छतरी के नीचे आने वाली भाषाओं के केन्द्र में एक ही तरह का व्याकरण और शब्दावलियाँ हैं। तो लोग, एक दूसरे को आसानी से समझ लेते हैं।
फिर राजनीति आ गई पिक्चर में और भारत की भाषाई विविधता को ऐसे दिखाया गया मानो ये सभ्यताओं का महायुद्ध चल रहा हो। नेताओं को सत्ता से मतलब होता है, नागरिकों की बेहतरी से नहीं। यही कारण है कि ‘हिन्दी थोपना बंद करो’ जैसी बातें सामने आईं।
हमारा पूरा जीवन अंग्रेजी सीखने और एक्सेंट पकड़ने में चला जाता है। अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया, लूटा, नरसंहार किए और उसकी भाषा हमने सीखने में जी-जान लगा दिया, लेकिन भारत की ही एक भाषा का, दूसरे राज्यों के बोर्ड पर निर्देशों की तरह इस्तेमाल करने से वो हिन्दी थोपना हो गया, तमिल-कन्नड़-तेलुगु-मलयालम संस्कृतियों पर हमला हो गया!
मैं यह नहीं मानता कि हिन्दी सबसे महान भाषा है और सब बोलें। जी नहीं, हर भाषा किसी संयोग के कारण किसी क्षेत्र की भाषा बनती है, फिर उसमें संस्कृति के अवयव जुड़ते हैं, साहित्य उपजता है, कलाएँ जन्म लेती हैं और वो अपनी पूर्णता को प्राप्त करती है। भाषा का कार्य संस्कृति को जीवित रखना है, अगली पीढ़ी तक पहुँचाना है। इसलिए चाहे वो बहुत छोटे सिक्किम की भाषा हो, या बहुत बड़े महाराष्ट्र की, दोनों ही किसी से कमतर नहीं।
हिन्दी को पूरे भारत को जोड़ने वाली भाषा के तौर पर इसलिए रखा गया कि किसी भी एक भारतीय भाषा की बात करें तो हिन्दी सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली, या समझी जाने वाली भाषा थी। इसलिए दक्षिण भारत के लोगों के लिए एक भाषा सीखना एक सहज उपाय था, ताकि वो कभी उत्तर भारत जाएँ, या उत्तर वाले दक्षिण जाएँ तो आपस में संवाद स्थापित हो सके।
इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं। आप सोचिए कि हिन्दी जानने से आपकी संस्कृति कैसे प्रभावित हो रही है? अगर यह कहा जाए कि तुम तेलुगु छोड़ दो, और हिन्दी पढ़ो; तमिल में लिखे सारे निर्देश हटा कर तमिलनाडु में सिर्फ हिन्दी में निर्देश लिखे जाएँगे; कन्नड़ में अब नाटक या फिल्म नहीं बनेंगे, हिन्दी में ही सब होगा; मलयालम की किताबों को जला दो और हिन्दी अनुवाद पढ़ाओ, तब उसे हम कहेंगे कि ‘हिन्दी थोपी जा रही है।’
हमारे देश की केन्द्र सरकार वाली नौकरियों में कई बार एक क्षेत्र के लोगों को दूसरे क्षेत्र में नौकरियाँ करनी पड़ती हैं, उनके ट्रांसफर होते हैं, उन्हें दूसरी जगहों पर लम्बे समय तक रहना पड़ता है। हमारे पास दो उपाय होते हैं: नौकरी छोड़ दें, या वहाँ के हिसाब से खुद को समृद्ध करें। वहाँ का भोजन, वहाँ की भाषा, पहनावा आदि अपनाते हुए, भारत की विविधता को स्वयं में समाहित कर लें।
ये प्रक्रिया हर वो व्यक्ति अपनाता है जो उत्तर प्रदेश का होते हुए चेन्नई में नौकरी करता है, या तमिलनाडु का होते हुए लखनऊ में जीवनयापन करता है। इसे सकारात्मक तौर पर देखते हुए, हमें समझना चाहिए कि हम एक भाषा को, एक नई संस्कृति को, अपने देश के एक अलग राज्य को अपना कह रहे हैं। ये मेरी जन्मभूमि है, ये मेरी कर्मभूमि और पूरा भारत मेरी मातृभूमि है। सिर्फ बिहार या तमिलनाडु मातृभूमि नहीं होती, भारतभूमि हमारी मातृभूमि है।
अब बात आती है कि अंग्रेज़ी को लिंक-लैंग्वेज की तरह प्रमोट करना चाहिए। दुर्भाग्य से सरकारी कार्यलयों में अंग्रेजी को यह ओहदा मिला हुआ है। दुर्भाग्य इसलिए कि भारत में कुल मिला कर पाँच प्रतिशत लोग नहीं हैं जो अंग्रेजी सही से बोल और लिख लें, लेकिन इसे सरकारी काम-काज की भाषा मान लिया गया। लोगों को इससे दिक्कत नहीं है।
इसे इसलिए रख लिया कि इससे किसी को दिक्कत नहीं होगी! ये किस तरह का तर्क है कि जो भाषा किसी को नहीं आती, या बहुत कम लोगों को आती है, उसे ही रख लो। इससे सरकारी काम-काज तो हो जाएगा लेकिन उड़ीसा के बालासोर का एक परिवार जब तमिलनाडु की सड़कों पर तमिल और अंग्रेजी में निर्देश पढ़ेगा तो उसे दोनों में एक भी समझ में नहीं आएगा। ऐसा नहीं है कि दक्षिण भारत में सब लोग अंग्रेजी समझते हैं। बिलकुल नहीं।
वहाँ के नवयुवक अंग्रेजी समझते हैं, लेकिन बड़े शहरों में ही। छोटे शहरों में स्थानीय भाषा छोड़ कर और कोई भाषा काम नहीं करती। इसलिए अंग्रेजी को बढ़ावा देना, और इस तर्क से बढ़ावा देना कि किसी को समस्या नहीं होगी तो फिर हमें नॉर्वेजियन सीखनी चाहिए, उससे पूरी दुनिया में किसी को समस्या नहीं है।
नेतागीरी और राजनीति की नकारात्मकता
बिहार के किसी गाँव में आखिर अंग्रेजी माध्यम के स्कूल क्यों हैं जहाँ न तो मैथिली भाषा है, न भोजपुरी और हिन्दी इसलिए पढ़ते हैं कि खानापूर्ति करनी है? उत्तर भारत के लोगों में अपनी ही भाषा और संस्कृति को लेकर एक हीन भावना घुसी हुई है कि वो किसी भी तरह अपने आप को अपनी भाषा से अलग करने की कोशिश करता है। वो न तो वैसा पहनावा पहनना चाहता है, न अपनी बोली बोलना चाहता है, बस उसे अंग्रेजी रॉक सुनना है और खराब अंग्रेजी बोलना है।
समस्या अंग्रेजी पढ़ने से नहीं है, समस्या इससे है कि अंग्रेजी ही सही भाषा है, भोजपुरी तो बेकार है। अगर तमिल लोगों के मन में यह भय है कि हिन्दी के आने से उनके मन में हीन भावना भर दी जाएगी कि हिन्दी महान है, तमिल कमतर, तो उनका डर सही है। लेकिन, सरकार की मंशा ऐसी नहीं रही। केन्द्र सरकार ने हिन्दी को, एक एक्सट्रा लैंग्वेज की तौर पर शामिल करने की बात कही ताकि लोगों का लोगों से जुड़ाव बन सके। पॉसिबिलिटी और प्रोबेबिलिटी के हिसाब से जो भाषा सबसे ज्यादा लोगों को समझ में आती हो, या सबसे कम लोगों को समझ में न आती हो, उसे उस समूह को सिखाने से सबका लक्ष्य सधता है।
लेकिन, फिर राजनीति कैसे होगी? फिर उत्तर बनाम दक्षिण कैसे होगा? नेताओं को एक मुद्दा चाहिए कि मराठों की नौकरियाँ बिहारी खाए जा रहे हैं, भगाओ इनको। मराठी लाठी ले कर पिल गए। उन्होंने ये भी नहीं सोचा कि सब्जी का ठेला लगाने के लिए परीक्षा नहीं पास करनी होती, फिर भी उन्होंने सब्जीवाले का ठेला उलट दिया।
दक्षिण भारत में नेताओं ने एक नकली मुद्दा उठाया, उसे खूब हवा दी, आगजनी की, दंगे और हिंसा हुई, फिर एक नाम खड़ा हो गया जिसने ‘हिन्दी’ से अपने राज्य को बचा लिया। किसी ने यह सोचा तक नहीं कि एक ज्यादा भाषा सीखने से नुकसान क्या है? जो भी इस बात को लेकर जज्बाती हो जाते हैं, उनसे पूछिए कि हिन्दी पढ़ना-लिखना आ जाएगा तो उससे तुम्हारा नुकसान क्या है? ये डर तुम्हारे मन में किसने बिठाया कि तुम्हारी संस्कृति बर्बाद हो जाएगी? अंग्रेजी पढ़ने से तो तमिल या मलयालम संस्कृति बर्बाद नहीं हुई, फिर हिन्दी से कैसे हो जाएगी?
हाँ, अगर इस शैक्षणिक बदलाव को, कोई भी नेता ऐसे भुनाता दिखे कि देखो हमने तो आंध्र प्रदेश वालों की भी हिन्दी पढ़ा दिया, अब हम सबसे महान भाषा हो गए, तो वैसे नेता को आड़े हाथों लेना चाहिए और सार्वजनिक तौर पर जलील करना चाहिए क्योंकि ये एकता को विखंडित करने की कोशिश है। जहाँ आपने एक को दूसरे से बेहतर कहने की कोशिश की, वहीं समस्या खड़ी हो जाती है।
समाधान क्या है?
समाधान यही है कि प्राथमिक विद्यालयों में, पूरे देश में, बचपन से ही तीन भाषाएँ पढ़ाई जाएँ। बच्चे एक साथ, अलग-अलग भाषाएँ सीख सकते हैं, और बहुत जल्दी भी सीखते हैं। उस भाषा का साहित्य उसके सिलेबस में हो और स्कूलों में उन राज्यों के जनजीवन को समझाने के लिए साल में एक लम्बा ट्रिप हो। वो बच्चा घर में अपनी मातृभाषा तो सीखेगा ही, उसके अलावा उसके पास भारत के दूसरे राज्यों के बारे में बचपन से जानकारी होगी, तो कहीं भी जाने पर, उसे अजनबी जैसा महसूस नहीं होगी।
आप यह सोचिए कि यहाँ जर्मन तक को केन्द्रीय विद्यालयों में पढ़ाया जाता रहा है! फिर बिहार के बच्चों को तमिल या मणिपुरी सीखने में क्या हर्ज होगा? आखिर किस राज्य के व्यक्ति को दूसरे राज्य के व्यक्ति के मुंह से, उनकी अपनी भाषा में, ‘अरे भैया, आप कैसे हैं’, ‘दीदी मुझे हनुमान मंदिर का रास्ता बता दोगी’ जैसे वाक्य सुन कर खुशी नहीं होगी?
दूसरे राज्य का व्यक्ति हमेशा इस बात को लेकर आह्लादित होता है कि कोई उसकी भाषा में बोलने की कोशिश करता है। ये तो सकारात्मक बात है, इससे ये कैसे साबित होता है कि बिहार की बच्ची तमिल सीखेगी तो वो मैथिली, मगही या भोजपुरी बोलना भूल जाएगी?
हम एक लगातार छोटी हो रही दुनिया में जी रहे हैं। हमारी खुशकिस्मती है कि हमारे देश में हर राज्य में अलग भाषाएँ हैं, अलग संस्कृतियाँ हैं। लोग हमसे जलते हैं कि इतनी विविधताओं के बावजूद यह देश बिखरता कैसे नहीं। अंग्रेजों ने इंतजार किया था कि यह देश पाँच साल भी नहीं चल पाएगा। लेकिन हम सत्तर साल से बढ़ रहे हैं। उनसे बेहतर गति से बढ़ रहे हैं। हमने अपनी विविधता का जश्न मनाया है।
अगर तमिलनाडु में किसी दुकानदार को सिर्फ ‘हलो अन्ना’ बोलने से उसकी आँखों में चमक आ जाती है, तो इस सहृदयता को बचाने की जरूरत है। हमारी पीढ़ी का दुर्भाग्य है कि हम राजनीति में उलझ कर हिन्दी और अंग्रजी, तमिल और अंग्रजी, गुजराती और अंग्रेजी, असमिया और अंग्रेजी, मलयालम और अंग्रेजी सीखने में रह गए। अंग्रेजी सीखने से गुरेज नहीं है क्योंकि वो अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है और उसके अनेकों फायदे हैं, लेकिन अपने ही देश की भाषाओं को न सीख पाना दुर्भाग्य के सिवा कुछ भी नहीं।