तीन बातें
एक. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति का एक अहम हिस्सा ‘एक्ट ईस्ट’ यानी पूर्वी एशिया और प्रशांत महासागर क्षेत्र में हिंदुस्तान की सक्रियता बढ़ाना है। माना जाता है कि इसके ज़रिए वह नेहरू-काल की गिनी-चुनी ढंग की विरासतों में से एक हिंदुस्तान की ‘सॉफ़्ट पावर’ का न केवल इसके लिए उपजाऊ भूमि पर विस्तार कर रहे हैं, बल्कि इसे एक परिकल्पना से हकीकत में परिवर्तित करने की दिशा में भी यह उनकी प्रयोगशाला है- जहाँ वह चीन के अत्यधिक दबदबे को सीधे-सीधे हस्तक्षेप करने में अनिच्छुक अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की पर्दे के पीछे की मदद से ‘न्यूट्रलाइज’ या संतुलित करते हुए हिंदुस्तान की कथित कूटनीतिक ताकत को कूटनीति की असली ज़मीन पर परखते हैं।
दो. भाजपा के 2014 के घोषणापत्र में एक कथन था, जिसका मजमून यह था कि दुनिया भर के मजहबी/पंथिक आधार पर सताए गए, प्रताड़ित हिन्दुओं के लिए हिंदुस्तान को उनका ‘प्राकृतिक घर‘ (या शरणस्थल) भाजपा ने माना था। इस घोषणापत्र को बनाने में मोदी की सीधी स्वीकृति से इनकार नहीं किया जा सकता- 2014 में वह न केवल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, बल्कि चुनाव प्रचार समिति के मुखिया भी। यानी घोषणापत्र में इतनी महत्वपूर्ण बात बिना उनकी सहमति के नहीं लिखी जा सकती थी। इसके अलावा भाजपा के बनाए हुए नागरिकता कानून मसौदे में भी तीन पड़ोसी देशों के 6 मज़हबी अल्पसंख्यकों, जिनमें हिन्दू भी शामिल हैं, को अपने देश में मज़हबी उत्पीड़न का शिकार होने पर नागरिकता देने की बात कही गई है।
तीन. मशहूर टीवी सीरीज़ ‘गेम ऑफ़ थ्रोन्स’ का किरदार लॉर्ड वैरिस, जिसे सीरीज़ का हम ‘कौटिल्य’ कह सकते हैं, राजनीतिक शक्ति की प्रकृति के बारे में टिप्पणी करता है, “शक्ति वहाँ होती है, जहाँ लोगों में उसके होने की अवधारणा होती है।” बहुत सपाट शब्दों में, राजनीति में जो लोगों की नज़रों में ताकतवर होता है, असली ताकतवर वही होता है। जिससे लोग मदद माँगें, जिससे लोगों को मदद की आस हो, और जो जितनी मदद करता हुआ दिखे, उसकी ताकत उतनी बढ़ी नज़र आती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण संघ ही है। आज भी मज़हबी उत्पीड़न का शिकार हिन्दू अपने इलाके की पुलिस या नेता की बजाय पहले संघ के अनुषांगिक संगठनों जैसे बजरंग दल, विहिप आदि की राह लेता है। खुद संघ अपनी ‘गुडविल’ बनाने के लिए चेन्नै से लेकर बिहार तक प्राकृतिक आपदाओं में लोगों का सहायक बनता है- यह लगातार हमलावर राज्य मशीनरी के बावजूद उसके बचे रहने के सबसे बड़े कारणों में से एक है।
अब अगर ऊपर कही गई तीनों बातों को एक साथ जोड़ा जाए तो स्वभाविक प्रश्न है कि हिन्दू होने के लिए सताए जाने पर बांग्लादेश की प्रिया साहा ने बगल में हिंदुस्तान की बजाय आधी दुनिया पार बैठे अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से मदद की गुहार क्यों लगाई? साथ ही यह भी सोचने की ज़रूरत है कि इस परिस्थिति, कि हिंदुस्तान से हिन्दुओं को बचाने की अपील नहीं हो रही है, का हिंदुस्तान की ताकत पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
‘हिन्दू होमलैंड’ बनने का मौका
अमेरिका की धौंस का दुनिया के सुनते रहने का इकलौता कारण केवल उसकी धनाढ्यता और तकनीकी श्रेष्ठता ही नहीं है। बेशक इन घटकों का प्रभाव नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन दुनिया द्वारा धौंस चुप होकर सहते रहने का कारण अमेरिका का नैतिक श्रेष्ठता का वह दावा है, जो इस पर आधारित है कि अमेरिका दुनिया में किसी भी स्थान पर लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खड़े लोगों के लिए लड़ने को तैयार रहता है, और अगर उस जगह पर उनकी लड़ाई में सहायता नहीं कर सकता तो उन्हें मानवीय आधार पर शरण देने के लिए तो बेशक उद्यत रहता है। यही नीति कई अन्य पश्चिमी देशों की भी है।
हिंदुस्तान में अभी समाज लोकतान्त्रिक और राजनीतिक तौर पर इतना परिपक्व नहीं हुआ है कि हम अपने नागरिकों को ही जो मर्ज़ी आए, जिसे मर्ज़ी आए, जब मर्ज़ी आए बोलने की आज़ादी दे दें- हिंसा से बचने के लिए कुछ तार्किक प्रतिबंध निकट भविष्य में नहीं हटने वाले। ऐसे में हम फ्री स्पीच या लोकतंत्र के लिए तो खड़े नहीं हो सकते। लेकिन हिन्दू अधिकार, हिन्दू ’cause’ न केवल हमारी नैसर्गिक ज़िम्मेदारी है एक देश, एक समाज के तौर पर, बल्कि करीब 500 साल अपने धर्म पर हमले झेलने और उसके बाद 700 साल से ज़्यादा अपने धर्म से घृणा करने वालों के शासन तले प्रताड़ित होने के चलते इस मुद्दे पर खड़े होने, स्टैंड लेने का हमारे पास अधिकार भी है और मौका भी।
हम ‘हिन्दू होमलैंड’ इज़राइल की तर्ज पर बना सकते हैं, जहाँ हर नागरिक के अधिकार उसकी आस्था को ध्यान में रखे बिना समान होंगे। लेकिन दुनिया भर में प्रताड़ित हिन्दुओं के विषय में यह ध्यान में रखते हुए कि उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं जो उन्हें धार्मिक, नागरिक और राजनीतिक रूप से शरण दे सके, उनके लिए हिंदुस्तान ‘होमलैंड’ का प्रस्ताव दे सकता है। यह कूटनीतिक तौर पर अमेरिका जैसी ‘आदर्श’ स्थिति में तो हमें नहीं पहुँचाएगा, लेकिन किसी भी आदर्श या मूल्य के लिए ठोस स्टैंड न लेने, ठोस कदम न उठाने के ठप्पे से कम-से-कम किसी न किसी मुद्दे या व्यक्ति के लिए स्टैंड लेने वाले तो हम बन ही जाएँगे।
हम अब तक ऐसे हुए क्यों नहीं हैं?
इसके जवाब के लिए संघ और भाजपा को शायद बाकायदा एक ‘आत्मचिंतन शिविर’ लगाने की ज़रूरत है। आज किसी भी स्तर पर भाजपा यह दावा नहीं कर सकती कि उसके पास बहुमत का अभाव है, इसलिए वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती। लोकसभा में अगर वह इस आशय का कानून या संविधान-संशोधन लाए तो पास होने से कोई नहीं रोक सकता, राज्य सभा में वह बहुमत के मुहाने पर खड़ी ही है, राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति उसी की विचारधारा में पगे हुए पूर्व स्वयंसेवक हैं, तीन राज्यों में हुई विधानसभा हार के बावजूद अभी भी अधिकाँश राज्यों में उसकी सरकारें हैं।
नौकरशाही में भ्रष्ट, निकम्मे और अक्षम लोगों की छुट्टी, विशेषज्ञों की बड़े अफसर के तौर पर सीधी नियुक्ति (‘लैटरल एंट्री’) की अपनी नीति, और लाखों लंबित नियुक्तियों के चलते सरकार हिन्दुओं के प्रति दुराग्रह न रखने वाले नौकरशाहों को लाने के लिए कई रूप से स्वतंत्र है। जनता भी मार्क्सवादी-सांस्कृतिक मार्क्सवादी वामपंथ के चरम से ऊबकर ‘राइट विंग’ के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखे हुए है। अगर सच में हिन्दुओं के लिए कुछ करना है, तो इससे स्वर्णिम अवसर शायद नहीं होगा।
सवाल ‘सेक्युलरिज़्म’ का
हिंदुस्तान का सेक्युलरिज़्म ‘पंथनिरपेक्षता’ न होकर मज़हबी अल्पसंख्यकवाद है, यह खुद भाजपा का स्टैंड रहा है। यहाँ तक कि संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर ने भी संविधान में सेक्युलर शब्द डाले जाने का विरोध किया था। वैसे भी ‘हिन्दू होमलैंड’ के आधार पर गैर-नागरिकों को नागरिक बनाने या न बनाने की नीति गैर-नागरिकों के प्रति है, और सेक्युलरिज़्म शब्द यह बताता है कि हिंदुस्तान अपने खुद के नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करेगा, कौन सी नीति अपनाएगा। अतः दोनों में तकनीकी रूप से विरोधाभास नहीं है।
अगर भाजपा विशुद्ध ‘राइट विंग’ की बजाय एक कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट) को अपना आदर्श मानती है, तो भी प्रताड़ित हिन्दुओं को प्रश्रय देने वाले राज्य के तौर पर हिंदुस्तान को दिशा देना उसके भी विरोध में नहीं है। आज ईसाईयों और समुदाय विशेष को मिला कर दुनिया की आधी से ज़्यादा आबादी मज़हब के तौर पर ऐसी विचारधारा का पालन करती है, जिसमें मूर्तिपूजा से बड़ा कोई अपराध शायद है नहीं। दोनों के ही हाथों दुनिया भर में मूर्तिपूजा करने वाले सम्प्रदायों और व्यक्तियों पर अत्याचारों की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है- जो आज भी उनके मज़हबी प्रभाव वाले क्षेत्रों में पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। ऐसे में हिन्दू शरणार्थियों को शरण दे हिंदुस्तान वैश्विक मूर्तिपूजक/गैर-इस्लामी, गैर-ईसाई सम्प्रदायों के मानवाधिकार के पक्ष में भी एक सशक्त संदेश देगा। और एक सशक्त मानवाधिकार की पैरोकार आवाज़ के रूप में भारत की ‘सॉफ़्ट पावर’ में इज़ाफ़ा तो खुद-ब-खुद होगा ही।