शायरी से शुरू करने पर लोगों को लगता है कि लेजिटिमेसी की पहली सीढ़ी चढ़ ली, और लोग सीरियसली लेंगे बातों को। उसके बाद एक घंटे चार मिनट तक आप लगातार ऐसी-ऐसी बातें कहते हैं, जो हर बार अपने आप को ही गलत साबित करने जैसा होता है।
कुछ ऐसे ही शुरू हुआ प्रोपेगेंडा पोर्टल ‘द वायर’ का एक इवेंट जिसमें पत्रकारिता की लाज बचाने में लगे रवीश कुमार के हाथ से लगातार साड़ी का कपड़ा निकलता जा रहा था। जो सभा में बैठे सुधिजन थे, वो ‘आह रवीश जी, वाह रवीश जी’ किए जा रहे थे। इस पूरे इवेंट में हुई चर्चा के दौरान रवीश जी ने कई बातों पर बात रखी, पर हमने कुल 38 बिंदु इकट्ठे किए जिसका विडियो यहाँ देखा जा सकता है।
शुरू हुई बात कि देश में ‘नफ़रतों का सैलाब’ आ गया है, और मीडिया इसमें लगातार अपना योगदान दे रही है। भाषा खराब हो चुकी है, और क्लास, कंटेंट का फ़र्क़ मिट गया है। ‘नफ़रत’, ‘डर का माहौल’, ‘भय’, ‘आपातकाल’ आदि वो जुमले हैं जिन्हें रवीश जी ने इतना बोला है, इतनी बार बोला है कि लोगों के लिए ये भारी-भरकम शब्द आम हो गए हैं। जबकि, ये शब्द आम नहीं होने चाहिए। क्योंकि जब ऐसे शब्द आम हो जाते हैं, तो फिर सही मौक़े पर इस्तेमाल करते हुए आप उस पूरी घटना को छोटा बना देते हैं, लोग गम्भीरता से नहीं लेते।
जहाँ तक मीडिया में कंटेंट और क्लास के मिटने की बात है तो मेरे हिसाब से ये बेहतर ही हुआ है। एक समय तक अंग्रेज़ी मीडिया ने पोलिटिकल और सोशल चर्चा पर अपनी कैंसर जैसी पकड़ बना रखी थी। अंग्रेज़ी छोड़ भी दें, तो कुछ मठाधीश एक जगह से बोल या लिख देते थे, वही अविरल धारा बहती रहती थी। न कोई सवाल करने वाला, न जवाब देने की ज़रूरत। अब वो ‘क्लास’ खत्म हो चुका है, अब कोई भी सवाल पूछता है, फ़ीडबैक देता है, जो कई पत्रकारों को चुभने लगा है।
रवीश जी आगे अर्णब का नाम लिए बग़ैर यह बताने लगे कि हिन्दी वालों को अंग्रेज़ी के मालिक चलाते हैं, और अंग्रेज़ी वालों को ‘सुप्रीम लीडर’ से आदेश आते हैं। आगे उन्होंने क्लियर किया कि उनका इशारा मोदी की ही तरफ था, और वो नाम लेने से नहीं चूके। पत्रकारिता में आप कुछ भी कहते हैं तो उसके प्रमाण आपके पास होने चाहिए, लेकिन आज के दौर में लोग लांछन लगाकर भागने में महारत हासिल कर चुके हैं।
पहली बात, ‘सुप्रीम लीडर’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल एक जन प्रतिनिधि के लिए करना, बताता है कि इनके दिमाग में अवसाद का स्तर कितना ऊपर पहुँच चुका है। इन दो शब्दों से रवीश कुमार ने देश के उन करोड़ों लोगों का अपमान किया है जिसने मोदी को प्रधानमंत्री चुना है। आपने दो शब्दों से उसे तानाशाह बना दिया! ये एक सामंतवादी सोच है कि आप जो कहें, वही सही। लेकिन रवीश कुमार को सर्टिफ़िकेट बाँटने का हक़ किसने दिया? उनकी इस सोच का आधार उनके विचार हैं, जो ड्राइंग रूम डिस्कशन तक तो ठीक हैं लेकिन पब्लिक स्पेस में इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करते हुए, रवीश ने अपनी ही बात को काटा है, जहाँ वो आगे ये कहते नज़र आए कि मीडिया में भाषा का स्तर गिर रहा है।
रवीश जी, पॉलिश्ड शब्द बोलने से भाषा का स्तर नहीं उठता। आंचलिक शब्द या सड़क के शब्द भी संदर्भ में मर्यादित लगते हैं, और अंग्रेज़ी के विशेषण भी संदर्भ पाकर घटिया हो जाते हैं। एक पत्रकार ये बात जानता है, इसलिए वो आराम से अपने विचारों को उन पर थोप देता है जिन्हें इस बात की समझ नहीं है।
आगे रवीश कुमार ने प्रोपेगेंडा पर बात की, जो कि हास्यास्पद है। जिन पोर्टलों और चैनलों के ये हिमायती हैं, वो सबसे ज़्यादा प्रोपेगेंडा फैलाने में व्यस्त रहता है। चुनावों के समय जस्टिस लोया पर तथाकथित खोजी पत्रकारिता हो जाती है, अमित शाह के बेटे पर स्टोरी की जाती है, अजित डोभाल के बेटों पर काले धन का मामला फेंका जाता है, लेकिन साबित कुछ नहीं हो पाता। कोर्ट में मानहानि का दावा आते ही ‘प्रेस फ़्रीडम’ की डुगडुगी बजने लगती है।
प्रेस फ़्रीडम वन-वे स्ट्रीट नहीं है। फ़्रीडम के साथ ज़िम्मेदारी भी आती है कि आप जो बोल और लिख रहे हैं, उस पर बने रहिए। उसके लिए आपके पास तथ्य होने चाहिए, उसका फॉलोअप करते रहिए। लेकिन रवीश कुमार ने जिन-जिन संस्थानों का नाम लेकर ‘छोटी संस्थाओं ने ही बड़ी खबरें ब्रेक की हैं’ कहा, वो सारी खबरें झूठ साबित हुईं और इनके पत्रकार महज़ कहानी गढ़ने के, एक भी फॉलोअप नहीं कर सके।
सरकार को घेर लेना कि ‘सरकार डरा रही है लिखने से’, बहुत आसान है अपने आप को विक्टिम की तरह पेश कर देना। हालाँकि, उससे साबित कुछ नहीं होता। पत्रकारिता निर्भीकतापूर्वक की जाती है, नहीं कर सकते तो सो जाइए। लेकिन हाँ, फर्जी के आरोप मत लगाइए कि सराकर डरा रही है। डरा रही है, तो आप मत डरिए, आप अपनी स्टोरी कीजिए और आगे बढ़िए। सबूत होंगे तो देश का सुप्रीम कोर्ट चार बजे सुबह में भी खुलता है, आतंकियों के लिए। आप तो फिर भी पत्रकार हैं!
अपनी चर्चा के अगले हिस्से में रवीश जी ने पुरानी लाइन और लेंथ बरक़रार रखते हुए कहा कि ‘नागरिकता, धार्मिकता, लोकतांत्रिकता की बुनियाद पर हमले हो रहे हैं’। इसकी बात करते हुए कहा गया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम किया जा रहा है, मुस्लिमों में भय है आदि। पुरानी बातें जिसका कोई भी आधार नहीं है। सामाजिक झड़पें और सीट की लड़ाई को इसी रवीश कुमार ने बीफ से जोड़ा था। जब जाँच रिपोर्ट सामने आ गई तो आज तक माफ़ी नहीं माँग पाए हैं।
आरोप लगाने में माहिर, लेकिन एक भी सबूत न देने वाले रवीश जी ने बताया कि समुदाय विशेष को पब्लिक और पोलिटिकल स्पेस से बाहर ढकेल दिया गया है। ये आरोप भी निराधार ही है। इसे विडम्बना कहिए या कुछ और, लेकिन भाजपा सरकार ने समुदाय विशेष के लिए पोलिटिकली जितना किया है, उतना किसी और सरकार ने शायद ही किया हो। दशकों से मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी घटिया, बेकार और अमानवीय प्रथाओं के चंगुल से बाहर निकालने की पहल इसी सरकार ने की।
इसी सरकार ने आरक्षण का दायरा बढ़ाकर उसमें हर धर्म के वंचितों को जगह दिया। भले ही रवीश कुमार और उनका गिरोह ‘वो तो टोपी नहीं पहनता’ पर टिके रहें, लेकिन सत्य यही है कि मेट्रो ट्रेन पर मुस्लिम भी मोदी से मुस्कुराकर मिलता है, बातें करता जाता है। पब्लिक स्पेस से ढकेलने का काम तो मुस्लिमों के हिमायती पार्टियों ने किया है जिन्होंने इनके ‘एकमुश्त’ वोटों का प्रयोग तो खूब किया, लेकिन उनकी ज़िंदगी सुधारने के लिए एक भी क़दम नहीं उठाए जो योजना के नाम से बेहतर हो।
इसी लेख की दूसरी कड़ी (भाग 2) में हम बात करेंगे कि कैसे ‘हम ही सही काम कर रहे हैं, बाकी पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं’ के मुग़ालते में रहने वाले रवीश जी को स्वनामधन्यता की ख़ुमारी से बाहर आना चाहिए और ये समझना चाहिए कि उनके यह कहने से कि ‘सवाल पूछने से रोका जा रहा है’, ‘आप तक सूचना पहुँचने ही नहीं दी जाती’, ‘दर्शकों को समर्थक बनाया जा रहा है’, ‘अब इन्फ़ॉर्मेशन की जगह परसेप्शन दिया जा रहा है’ आदि से ये बातें सही नहीं हो जातीं।