Friday, November 15, 2024
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बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी, पारसी: इन्हें कभी ‘इनटॉलेरेंस’ की पीड़ा क्यों नहीं होती?

आखिर ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान में सारी दिक्कतें केवल दो पंथों इस्लाम और ईसाईयत को मानने वालों को ही हो रहीं हैं? क्या इसका कारण यह है कि हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी हिन्दुओं का इन दोनों मज़हबों से कोई खास बैर है? या फिर ये कि इन पंथों की विचारधारा या इनके.......

जिस अमेरिकी कमीशन ने हिंदुस्तान में ‘डर का माहौल’ के झूठे कथानक (नैरेटिव) पर अपनी अनिमंत्रित चौधराहट की मुहर लगाई, उसी कमीशन के चेयरपर्सन डॉ. तेंज़िन दोरजी ने कमीशन के बहुमत से अलग न केवल राय रखी बल्कि संख्याबल से दबाए जाने पर कमीशन की रिपोर्ट से अलग राय का असहमति-पत्र (डिसेंट नोट) लिखा। इस नोट में डॉ. दोरजी ने साफ-साफ लिखा कि कमीशन की रिपोर्ट ने हिंदुस्तान का जो चित्रण किया है, उनके व्यक्तिगत अनुभव उससे कतई मेल नहीं खाते। उन्होंने बताया कि एक तिब्बती बौद्ध होने के नाते वह हिंदुस्तान के सबसे कमज़ोर अल्पसंख्यक वर्ग के तौर पर 30 वर्ष रहे हैं। इस दौरान उन्होंने “पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता” का अनुभव किया है।

‘खुला समाज, सुदृढ़ लोकतंत्र और न्यायपालिका’

डॉ. दोरजी ने हिंदुस्तान को महान सभ्यता और प्राचीन समय से ही बहुपंथिक, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक समाज बताया। उन्होंने लिखा कि हालाँकि छिटपुट हिंसक घटनाएँ (जो दुर्भाग्यपूर्ण, गैरकानूनी और गलत हैं, इसमें कोई दोराय नहीं) होती रहतीं हैं, लेकिन हिंदुस्तान के बहुपंथिक और सेक्युलर (लिबरल गैंग के नीम-हकीमी अर्थ में नहीं, सही अर्थ में) होने में कोई शक नहीं। वह दलाई लामा को भी उद्धृत करते हुए कहते हैं कि हिंदुस्तान की भिन्नता, समरसता और आदर व करुणा के कायल दलाई लामा भी हैं।

डॉ. दोरजी अपने भारतीय ‘गृह-राज्यों’ कर्नाटक और हिमाचल का ज़िक्र करते हुए उनकी और समूचे हिंदुस्तान की तुलना तिब्बत पर कब्ज़ा किए हुए चीन से करते हैं। वह बताते हैं कि कैसे हिंदुस्तान में समृद्ध हो रही तिब्बती भाषा और संस्कृति खुद तिब्बत में चीनी बूटों तले दम तोड़ रहे हैं।

इतिहास भी करता है तस्दीक

डॉ. दोरजी के इन कथनों की तस्दीक हिंदुस्तान का समूचा इतिहास भी करता है- चाहे आप कितने हज़ार साल भी चले जाएँ। दुनिया के सबसे छोटे और प्राचीनतम धार्मिक समूहों में शामिल पारसियों से लेकर यहीं वैदिक समाज से विद्रोह कर उत्पन्न हुए बौद्धों, जैनों, सिखों और इस्लाम-ईसाईयत के पुरोधा यहूदियों तक हिंदुस्तान में विभिन्न ही नहीं, परस्पर विरोधी आस्था के लोग हज़ारों सालों से रहते आए हैं। यहूदी तो दुनिया की सबसे प्रताड़ित कौम हैं, और इतनी सदियों में इकलौता हिंदुस्तान है, जहाँ कभी उन्हें मज़हबी वजह से निशाना नहीं बनाया गया।

आखिर ख़ास समुदाय और ईसाईयों में से ही क्यों आती है “इनटॉलेरेंस” की शिकायत?

अगर उपरोक्त बातें सही हैं, कि हिंदुस्तान की संस्कृति सर्व-समावेशी और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की है, तो सवाल यह है कि आखिर आज ‘इनटॉलेरेंस’ का इतना बाजा क्यों बज रहा है? तो जवाब जानने के लिए समकालीन हिन्दू समाज के साथ-साथ यह शोर जिस तबके से आ रहा है, उसकी ओर भी एक नज़र गहराई से डालना ज़रूरी हो जाता है।

आखिर ऐसा क्यों है कि हिंदुस्तान में सारी दिक्कतें केवल दो पंथों इस्लाम और ईसाईयत को मानने वालों को ही हो रहीं हैं? क्या इसका कारण यह है कि हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी हिन्दुओं का इन दोनों मज़हबों से कोई खास बैर है? या फिर ये कि इन पंथों की विचारधारा या इनके अनुयायियों के आचरण में कुछ ऐसा है जो इनके अन्य के साथ टकराव का कारण बन जाता है?

अगर खोट हिन्दुओं में है तो यहूदी क्यों नहीं शिकार?

अगर एकबारगी यह मान लिया जाए कि खोट हिन्दुओं में ही है, हिन्दुओं में इस्लाम और ईसाईयत के प्रति शत्रुता किसी बहाने ‘इनबिल्ट’ है, तो सवाल यह उठेगा कि इसी विचारधारा के पूर्ववर्ती यहूदियों को हिंदुस्तान में कोई दिक्क्त क्यों नहीं हुई? यहूदियों में भी ‘एक ही अदृश्य, अव्यक्त ईश्वर; मूर्तिपूजा/अन्य किसी शक्ति की उपासना अनंतकाल के नर्कभोग वाला पाप’ आदि अधिकांश वही सब बातें मान्य हैं जो इस्लाम और ईसाईयत में प्रचलित हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, बड़ा अंतर खाली अंतिम नबी के सवाल पर है- यहूदी इंतजार में हैं, ईसाईयों के हिसाब से ईसा थे, इस्लाम के हिसाब से हज़रत मोहम्मद। क्या इतने से ही हिन्दू भड़के हुए हैं?

या फिर जबरिया मतांतरण की ज़िद है ‘इनटॉलेरेंस’ की जड़ में?

अब दूसरी संभावना पर गौर करते हैं- कि हिन्दू विरोध इस्लाम और ईसाईयत की विचारधारा का नहीं करते, मजहब विशेष और ईसाई अपने दिमागों में क्या सोचते हैं इसका नहीं करते, बल्कि विरोध करते हैं कि अपनी सोच, अपना पंथिक आग्रह दूसरों पर थोपने की प्रवृत्ति का। विरोध करते हैं ईसाईयों के हिन्दुओं के पवित्र प्रतीक चिह्नों को ‘हड़प’ कर उन्हें हिंदुत्व से लोगों को काटने के प्रयोग का। विरोध करते हैं हिंसा और ज़ोर-ज़बर्दस्ती से लोगों के मतांतरण का, जो समुदाय विशेष द्वारा किए जाने की खबरें हम सुनते रहते हैं।

यहूदी इसी मामले में इस्लाम और ईसाईयत से अलग हैं- वे भले यह मानें कि हिन्दू ‘पापी’ हैं और नर्क के भागी होंगे मरने के बाद, लेकिन वे अपना मत, अपनी आस्था थोपते नहीं हैं। पारसियों में (जहाँ तक मेरी जानकारी है, जोकि शायद बहुत ज़्यादा नहीं है) ‘अहुरों’ की पूजा होती है और ‘दैवों’ की निंदा- सुनने में ऐसा लगता है (जोकि सम्भवतः सही न भी हो) मानो जिन असुरों के विरुद्ध हिन्दू देवता लड़ते थे, शायद पारसी उन्हीं के पूजक हैं। लेकिन तब भी कभी पारसी-विरोधी हिंसा क्यों नहीं हुई? क्योंकि उन्होंने कभी अपनी अहुर-पूजा को हिन्दुओं पर लादने की कोशिश नहीं की- न तलवार के दम पर, न पिछले दरवाज़ों से।

एक और बात, इस लेख में उठाना पढ़ रहा कोई छद्म-लिबरल उठाने को यह भी सवाल उठा सकता है कि हो सकता है ईसाईयों और समुदाय विशेष ने हिंदुत्व (हिन्दू धर्म) की ऐसी कोई विद्वत्तापूर्ण निंदा या आलोचना की हो जो और कोई पंथ न कर पाया हो, और यह ‘असहिष्णुता’ उस वजह से हो। हो “सकता” है, पर ऐसा है नहीं। है इसका उलट। इस्लामिक इतिहास हिंदुस्तान में अधिकाँश समय मंदिर-ध्वंस, बलात्कार और सामूहिक हत्याकांड, आदि का रहा है- और अब तो यह छद्म-लिबरल भी मानने को मजबूर हैं। और ईसाई ‘विद्वानों’ ने तर्कपूर्ण आलोचना तो दूर की बात, अनुवाद भी फ़र्ज़ी किए ताकि आर्यन आक्रमण थ्योरी की आड़ में हिन्दुओं को बाँटकर चर्च का साम्राज्य फैलाया जा सके।

वहीं बौद्धों ने वैदिक ऋचाओं से लेकर कर्मकांडों की, जैनों ने वैदिक यज्ञ-हिंसा से लेकर युद्ध में हिंसा करने वाले राम-कृष्ण जैसे अवतारों की आलोचना में ग्रंथ-के-ग्रंथ लिखे हैं, जिस पर सदियों हिन्दुओं ने बहस की है, शास्त्रार्थ हुए हैं, हिन्दुओं और अन्य ने एक-दूसरे के आगे सर मुड़ाया है, शिष्यत्व स्वीकार किया है। लेकिन मंदिर ढहाना, आर्य-द्रविड़ का कृत्रिम भेद खड़ा करने जैसे काम नहीं हुए हैं। हिन्दुओं ने तो किसी भी प्रकार की परा-शक्ति को नकारने वाली चार्वाक परम्परा को भी ऋषि-परम्पराओं में स्वीकार किया है। अतः डॉ. दोरजी के इस बयान के आलोक में इस्लाम के समर्थकों और ईसाईयों को आत्म-विवेचन करने की जरूरत है कि ‘इनटॉलेरेंस’ के लिए जिम्मेदार ‘भगवाकरण’ है, ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ है, या हिन्दुओं को आक्रामकता अख्तियार करने के लिए मजबूर करने वाले उनके आचरण।

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