अच्छे ज़माने और खराब ज़माने में सबसे बड़ा फर्क यह होता है कि अच्छे ज़माने में लोग अच्छा सोचते हैं और खराब ज़माने में खराब। खराब ज़माने में लोग अच्छा सोच ही नहीं सकते। राहुल गाँधी की ही बात ले लीजिए। जब ज़माना अच्छा था तब लगभग पूरा भारत मानता था कि राहुल गाँधी प्रधानमंत्री होने के लिए ही नेता बने हैं। अब ज़माना खराब है तो वही पूरा भारत यह मानता है कि वे प्रधानमंत्री बनने के लिए नहीं बल्कि समर्थन देने के लिए नेता बने हैं। वैसे गुणी लोग अब भी उनका बचाव करते हुए कहते हैं कि समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बनना मुश्किल हो जाए तो समर्थन देकर बनने की कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है।
औसत नेता समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बनता है, बड़ा नेता बिना समर्थन के बनता है पर राहुल गाँधी समर्थन देकर बनना चाहते हैं। हाल यह है कि उनकी नेतागीरी अब समर्थन देने पर टिकी है। समर्थन देने की बात पर वे हमेशा मिशन मोड में दिखते हैं। व्यक्ति को चाहिए तो उसे देंगे, संस्था को चाहिए तो उसे देंगे और किसी को न चाहिए तो भी उसे देंगे। कभी-कभी तो लगता है कि समर्थन देने के लिए वे गुटों की तलाश में उसी तरह से रहते हैं जैसे सारे बैंक क्रेडिट कार्ड देने के लिए ग्राहक की तलाश करते हैं।
कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक मानना है कि इनके पास एक टीम है जो ऐसे लोगों की तलाश में रहती है जिन्हें राहुल अपना समर्थन दे सकें। इसी तलाश में टेली कॉलिंग भी होती होगी। इधर से तत्पर टीम का सदस्य फ़ोन करके कहता होगा, “हेलो, मैं राहुल गाँधी की टीम से बोल रहा हूँ। आपको बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि उन्होंने आपको समर्थन देने का फैसला किया है।”
दूसरी तरफ बैठा व्यक्ति भौचक्का होकर पूछता होगा, “लेकिन वे हमें क्यों समर्थन देना चाहते हैं?”
इधर से बताया जाता होगा, “अरे वो आपने कल सरकार की आलोचना की थी न। हमें पता चला तो हमें लगा कि आपको समर्थन दिया जा सकता है। बस आप बताएँ कि आपको कितना समर्थन चाहिए? एक किलो, दो किलो, ढाई किलो?”
इनकी तत्परता देखकर तो यहाँ तक लगता है कि यदि किसी को इनके समर्थन की जरूरत न भी रहती होगी तो ये और इनकी टीम ऐसी परिस्थितियाँ पैदा करती होगी जिससे व्यक्ति समर्थन लेने के लिए बाध्य हो जाए। हाल यह है कि आते-जाते कहीं कोई मिल गया तो राहुल यह सोचते हुए व्यस्त हो जाते होंगे कि; बाकी बातें अपनी जगह पर पहले ये देखो कि इसे समर्थन दिया जा सकता है या नहीं। जरा भी सम्भावना दिखने पर समर्थन पकड़ा देते होंगे। आपने भारत की आलोचना कर दी है? ये लीजिए मेरा समर्थन। अच्छा, तुमने मोदी को गाली दे दिया है? वाह, वेल डन, ये लो मेरा समर्थन।
कुछ विद्वानों का मानना है कि किसी दिन इनके किसी इंटरव्यू में सुनने को मिलेगा कि; मेरा समर्थन लेकर लाखों लोगों ने कहा कि मज़ा आया और अब ये जो समर्थन है वो मैं पूरे भारत को देना चाहता हूँ। देखेंगे किसी दिन वे सिर पर दौरी धरे कहीं चिल्ला रहे हैं; समर्थन ले लो। सस्ता समर्थन। टिकाऊ समर्थन।
कभी-कभी तो लगता है कि उनके और उनके सेक्रेटरी के बीच सुबह कुछ ऐसी बातें होती होंगी;
राहुल गाँधी: “हाँ भाई, आज का क्या प्रोग्राम है?”
सेक्रेटरी: “सर, आज पहले बॉर्डर जाना है। वहाँ किसानों को समर्थन देकर फिर आपको ढाई बजे जंतर मंतर पहुँच कर पत्रकारों को समर्थन देना है। कुछ पत्रकारों का कहना है कि देश में डेमोक्रेसी कम हो गई है तो हमने आपका समर्थन देने का प्लान बना लिया। फिर शाम साढ़े पाँच बजे आपको वो भीमा कोरेगाँव वाले मानवाधिकार ग्रुप का समर्थन करना है।”
राहुल गाँधी: “अच्छा ये बताओ कि हमने जेएनयू में किसी को बड़े दिनों से समर्थन क्यों नहीं दिया?”
सेक्रेटरी: “सर, वो क्या है कि कोरोना की वजह से सब कुछ बंद चल रहा है न। इसलिए आजकल जेएनयू भी बंद चल रहा है। अब आप तो जानते ही हैं कि जेएनयू बंद रहे तो डफली बजाना और नारा लगाना असंभव हो जाता है। और नारे वगैरह न लगे तो समर्थन देना मुश्किल तो हो ही जाता है।”
राहुल गाँधी: “ये कोरोना ने समर्थन का बाजार ही मंदा कर दिया है। MOU में मेंशन किए बिना फैला दिया बेवकूफों ने।”
सेक्रेटरी: “वैसे सर, एक बात कहनी थी।”
राहुल गाँधी: “हाँ, हाँ बोलिए। आपको भी समर्थन चाहिए क्या?”
सेक्रेटरी: “नहीं सर, आपके साथ रह कर मैं खुद समर्थन देने लायक हो गया हूँ और छोटा मोटा समर्थन तो खुद ही दे देता हूँ। मैं तो यह कहना चाहता था कि वो लखनऊ में योगी सरकार ने एक गैंगस्टर की प्रॉपर्टी कुर्क करवा दी है। उसको अगर थोड़ा समर्थन मिल जाता तो…”
राहुल गाँधी: “हाँ, हाँ क्यों नहीं। जब बोलिए दे देंगे। वैसे किस केटेगरी में चाहिए उसे?”
सेक्रेटरी: “सर, गैंगस्टर है तो मेरे विचार से मानवाधिकार केटेगरी में देना सही रहेगा।”
समर्थन की कला को राहुल गाँधी ने नए आयाम दिए हैं। दक्षिण भारत में रहते हैं तो उसके समर्थक बन जाते हैं। महाराष्ट्र में रहते हैं तो उसके समर्थक बन जाते हैं। चीन में रहते हैं तो उसके समर्थक बन जाते हैं। वे जगह के हिसाब से समर्थन बाँटते हैं। विदेशी एनजीओ भारत के खिलाफ बोलता है तो उसके समर्थन में उतर आते हैं। कोई विदेशी यह कह देता है कि भारत में सब गलत ही गलत हो रहा है तो उसके समर्थन में आ जाते हैं। नक्सल मोदी को गाली देते हैं तो उनके समर्थन में आ जाते हैं। अब उनके जीवन का ध्येय केवल समर्थन देना रह गया है।
समर्थन की ताज़ा वारदात में वे किसानों के समर्थन में ट्रैक्टर चलाकर संसद पहुँच गए। विद्वान कहेंगे कि किसानों को समर्थन का यही सबसे अच्छा तरीका है। ये विद्वान नहीं बताएँगे कि भारत का औसत किसान हल चलाता है। ऐसे में किसानों के लिए राहुल जी के उच्च कोटि का समर्थन तो तब होता जब वे कंधे पर हल लिए संसद पहुँचते। एक कंधे पर हल धरते और दूसरे पर गमछा। उनके दाएँ-बाएँ चल रहे युवा कॉन्ग्रेसी भी कंधे पर एक एक हल लेकर चलते। क्या बढ़िया समर्थन होता। पसीने से लथपथ राहुल गमछे से पसीना पोंछ रहे होते। उधर यू-ट्यूबर लाइव रिपोर्ट कर रहे होते; देखिए, ऐसा होता है किसान। वही किसान जो धान उगाता है। वही धान जिसमें से गेहूँ निकलता है।
कुल मिलाकर अद्भुत फोटोजेनिक माहौल बनता। समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनने दिशा में राहुल गाँधी एक और कदम चल लेते।
समर्थन ले लो… सस्ता, टिकाऊ समर्थन: हर व्यक्ति, संस्था, आंदोलन और गुट के लिए है राहुल गाँधी के पास झऊआ भर समर्थन!
कुछ विद्वानों का मानना है कि किसी दिन इनके किसी इंटरव्यू में सुनने को मिलेगा कि; मेरा समर्थन लेकर लाखों लोगों ने कहा कि मज़ा आया और अब ये जो समर्थन है वो मैं पूरे भारत को देना चाहता हूँ। देखेंगे किसी दिन वे सिर पर दौरी धरे कहीं चिल्ला रहे हैं; समर्थन ले लो। सस्ता समर्थन। टिकाऊ समर्थन।
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Searched termsराहुल गाँधी, rahul gandhi, Congress, व्यंग्य, Satire
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