मैंने तमाम राजनैतिक विचारधाराओं का गहन अध्ययन किया है। ऐसा मैंने इसलिए किया क्योंकि राजनैतिक निबंधकारों का सभी जगह स्वागत होता है, चाहे उनके सब चुनाव अनुमान ग़लत ही क्यों ना लगे हों। राजनैतिक चिंतक बीच-बीच में उसी प्रकार चुनाव में भी उतर जाते हैं जैसे फ़िल्म निर्माता-निर्देशक सुभाष घई अचानक डिंग-डाँग करते हुए रजत पटल पर अवतरित होते थे और उसी चपलता के साथ सारे बुत उठाने का दावा करते हुए ग़ायब होते हैं मानो लपलपाती हुई लालटेन की लौ क्रूर पवन ने बुझा दी हो।
जब चुनाव हारने के बाद शहद और अदरक के पानी से गरारे कर के मृदु स्वर में निस्पृह भाव से ये नरपुँगव मतदाता को गरियाते हुए कॉलर पकड़कर झँझोड़ने का विचार प्रकट करते हैं तो उस स्वर में ऐसा स्नेह होता है कि मनुष्य मात्र का हृदय बोल पड़ता है- जान ले लें ज़ालिम। बहरहाल, कुल जमा निष्कर्ष यह है कि व्यंग्यकारी बड़ी बेगैरती का काम है, इसे इंदिरा जी के बाद से किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। विश्लेषकों का अलग है, फंड मिला तो चुनाव लड़ लिए, हार गए तो पुन: विश्लेषक हो गए। यह सब देख कर मैंने खूब राजनैतिक विचारधाराओं का जम कर अध्ययन किया और जम के गर्म पानी के गरारे लिए।
अपने इस महती अन्वेषण में मैंने पाया कि हर प्रकार का मौसम हर विचारधारा के उपयुक्त नहीं है। इस प्रकिया में मेरा शोध अभी प्रक्रिया में है। मौसम सर्दी का है और आंदोलनों का बाज़ार गर्म है। ऐसे में मैंने सर्दी में समाजवाद पर अध्ययन किया। दिल्ली की ठंड में मैंने रज़ाई में गुड़िमुड़ि होकर इस पर बहुत सघन शोध किया। ठंड में नहाने के प्रति अरुचि होने के कारण मैं आधा वामपंथी तो हो ही गया हूँ। मैंने यह पाया कि सर्दी का मौसम समाजवाद के लिए सर्वथा अनुचित है। वर्तमान में चल रहे आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में वामपंथ और ठंड के मध्य की तार्किक विसंगति स्पष्ट हो जाती है।
प्रथमतया सर्दी का मौसम सड़क पर धरना प्रदर्शन के लिए अनुकूल नहीं होता है। सर्दियों का समय समाजवाद के शीतनिद्रा में जाने के लिए उपयुक्त होता है। समाजवादी सौंदर्यशास्त्र के साथ भी सर्दियाँ ठीक नहीं जाती। एक अच्छा वामपंथी कम नहाया हुआ, दाढ़ी बढ़ाया हुआ, महँगा कुर्ता पहन कर ग़रीबों के लिए व्यथित भाव लिए दिखता है। ठंड में एक संघी भी ऐसा ही दिखने लगता है, और एक आम इंसान और वामपंथी में भिन्नता नगण्य सा रह जाता है। बचा कुर्ता, सो जैकेटों के बोझ के तले कुर्ते का हुस्न यूँ दम तोड़ देता है कि कुर्ताधारी उसे कहता ही रह जाता है- बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे- और ठंड से किटकिटाते दाँतों से एक बोल नहीं फूटता।
सांप्रदायिक सैनिकों का सेनापतित्व स्वत: ही धारण करके कोई वीर, रणबाँकुरा मैदान में उतर भी आए तो दक्षिणपंथी सरकारों की पुलिस मार्क्स का मुक्कों से और लेनिन का लाठी से देने को तत्पर दिखती है। चाय और समोसे, हीर और राँझा, लैला और मजनू के समान ठंड और लट्ठ का ऐसा अतुलनीय मेल होता है कि उसके परिणाम ऐतिहासिक होते हैं। ऐसे में कॉमरेड मित्रों के पास इसके अतिरिक्त कोई मार्ग बचता नहीं है कि वे ओजस्वी भाषणों द्वारा धर्म की अफ़ीम के नशे में डूबे सैनिकों को ओजस्वी भाषणों का च्यवनप्राश दे कर टीवी चैनलों की ओर निकल लें और मूँगफली खाते हुए सड़क पर होते दँगों को बहस-मुबाहिसों, संपादकीय लेखों के माध्यम से वैचारिक क्रांति का रूप दें।
किसी पिटते हुए युवा के चित्र को या किसी फेरेक्स की चाह में दुखी बालक और टीवी कैमरे की चाह में दुखी उसकी माता को आंदोलन का चेहरा बना कर संवेदना का संचार करें ताकि जनता जलती बसों, ट्रेनों और तमाम विध्वंस को भूल जाएँ, और एक ग्लानि के साथ कहें कि हाँ, धिक्कार है इस लोकतंत्र पर जो इन उद्वेलित हृदयों के आक्रोश को मार्ग देने के लिए चार अतिरिक्त गाड़ियाँ और दो अतिरिक्त ट्रेनें ना उपलब्ध करा सका। वामपंथी आँदोलनस्थल पर पैदल सैनिकों को उत्साह देकर अपने लेखों- भाषणों से ऐसा माहौल खींचता है मानो सरकारी बसें संविधान की रक्षकों उतरे सेनानियों को देख स्वयं बोल उठीं हों कि हे सखि, ऐसे क्रांति के समय में क्या यह धर्मसंगत होगा कि हम अपने स्पीड गवर्नर को धता बताते हुए निकल पड़े जब कि मुख्यमंत्री ही गवर्नर को भाव नहीं दे रहे हैं। हे सखी, क्यों ना हम आत्मदाह ही कर लें।
कॉमरेड जनता को समझा ही लेते हैं कि यह धर्मनिरपेक्ष शाँतिपूर्ण आंदोलन है। यह शुक्रवार को उग्र रूप सिर्फ़ इसलिये पकड़ लेता है क्योंकि माँ संतोषी के भक्त आज कल काफ़ी उग्र रहते हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं है। परंतु संघर्ष स्थल से दूर होने के अपरिहार्य संकट आंदोलन के खिंचने की स्थिति में उभरने लगते हैं। जिन्हें धर्म युद्ध बता कर कॉमरेड धरना स्थल में बिठा कर कट लिए होते हैं, वे सैनिक भी उनके प्रचार से चिंतित हो उठते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं शर्मा जी के बेटे का विवाह के नेग के ग्यारह रुपए हम ग़लत पंडाल में घुसकर वर्मा जी के बेटे को थमा आए? ठंड के समय एक और संकट होता है कि अवकाश और त्योहारों का मौसम होता है। विदेश यात्राओं का भी संयोग इसी काल में बनता है।
जब शाहीन बाग में ठिठरता आंदोलनकारी शैम्पेन ले कर नववर्ष मनाते कॉमरेड को देखता है तो भड़क उठता है। व्याकुल हृदय कह उठता है कि भाड़ में गए तुम्हारे मार्क्स बाबा, अब तो सब बुत उठाए जाएँगे। सहसा ही युद्ध क्षेत्र में तख्ता पलट जाता है। कॉमरेड जब इंस्टाग्राम पर रेसिस्टेंस के फ़ोटो अपनी बिल्ली का आलिंगन लेते हुए डाल कर ठहरते हैं तो पाते हैं कि आंदोलन भूमि में विद्रोह हो चुका है। धर्मनिरपेक्षता का तंबू जो वे आंदोलनकारियों पर तान के फ्राँस गए थे, उसे चीर कर धार्मिक कट्टरता के संकेत निकल रहे हैं। महीनों खींचे संवैधानिक संघर्ष की मारीचिका जब छँटती है तो समाजवादी बँधु की स्थिति ठंड की भोर में शॉवर के नीचे धकेले उस व्यक्ति की सी हो जाती है जो निर्वस्त्र होकर पाता है कि गीज़र तो चालू ही नहीं था। अब उसके पास इसी ठंडे पानी में नहाने के अलावा कोई चारा नहीं है।
इस शोध का निष्कर्ष यही है कि सर्दियाँ समाजवाद के बिल्कुल भी अनुरूप नहीं है। समाजवादियों को जाड़े में मार्क्स बाबा की पुस्तक और बुड्ढे बाबा का गिलास लेकर रज़ाई में रहना चाहिए। प्रिय कॉमरेडों के लिए संघर्ष का शुभ समय ग्रीष्म ऋतु है। अत: हे कॉमरेड, तुम अपने होस्टलों के और कान्फ्रेंस हॉलों के गर्म कमरों में सिधारो और पुन: पोस्टर ले कर तब प्रकट हो जब शीत लहर पलायन पर हो। सर्दियों में समाजवाद पर तब तक मेरा शोध पूर्ण हो कर प्रकाशित हो चुका होगा और मैं एक महान नेता के रूप में तुम्हें पथभ्रमित करने को उपलब्ध हो जाऊँगा।
मैं तब गरारे कर करके तुम्हारे पक्ष में नैरेटिव बुनूँगा और तुम वीर सेनापति की भाँति अपनी सेना का नेतृत्व करना। तुम देखना मैं एक चुनावी चिंतक बन कर उभरूँगा और बीच-बीच में डिंग-डाँग करते हुए चुनाव भी लड़ ज़ाया करूँगा और चुनाव हार कर पुन: निष्पक्ष चिंतक बन ज़ाया करूँगा। एक डूबते हुए व्यंग्यकार के कैरियर की रक्षा के लिए आवश्यक है, हे कॉमरेड, कि तुम सर्दियों में बाहर आने से परहेज़ रखो और हमारे महान लेनिन के महान आंदोलन की सार्वजनिक का-का-छी-छी ना होने दो।