कोरोना के आगमन के विभिन्न लोगों पर विभिन्न प्रभाव हो रहे हैं। अंग्रेज़ी की विश्व विनाश पर कई फ़िल्में बनी हैं जिसमें तोरई समान खलनायक दूसरे ग्रह से आ कर मानव समाज को समाप्त करने की घोषणा करता है और अमरीकी राष्ट्रपति अपनी विशाल एवम् अपरिमित बुद्धिबल का उपयोग करते हुए संसार की रक्षा करते हैं। ऐसी हर फ़िल्म में एक व्यक्ति कहीं न कहीं बोर्ड ले कर खड़ा रहता है जिसपर विश्व विनाश की चेतावनी लिखी होती है। एक प्रमुख नेता कोरोना के आगमन पर उसी व्यक्ति की भूमिका निभा रहे हैं। मदर टेरेसा के चमत्कारों के मुरीद विज्ञान की ओर मुड़ गए हैं। कुछ शेरदिल नौजवान मानते हैं कि इस्लामिक देश ईरान में सर्वाधिक प्राण लेने वाला कोरोना उनके मज़हबी हुस्न से प्रभावित होकर कोरोना जान बनकर ‘लिल्लाह’ पुकारेगा और लब-ए-नाज़ुक को दाँतो तले दबा कर सरकार के चश्म-ए-नूर पर बोसा धर देगा। बहरहाल, आम भारतीय घरों में है, सोशल डिस्टेंसिंग में है।
आम भारतीय पतियों का पत्नियों पर अफ़सरी का रोब समाप्त हो चुका है, और उनके दफ़्तरी निखट्टूपन की खबर घरों तक पहुँच चुकी है। पंद्रह दिन की घरों में गिरफ़्तारी और उस में पतियों की स्थिति यह बाक़ायदा बताती है कि क्यों प्रभु श्रीराम पत्नी सीता को वन में नहीं ले जाना चाहते थे, जबकि पत्नी तीन तीन सासों के घर से निकलने को हठ पर थी। पति की ना आज चली है ना तब चली, ख़ैर ये कहानी फिर सही।
पति सब्ज़ी बना रहे हैं, घरों की सफ़ाई कर रहे हैं, बर्तन माँज रहे हैं। महिला उत्थान का जो काम सुश्री वर्जीनिया वुल्फ़, सरोजिनी नायडू, इंदिरा गांधी यहाँ तक कि लेडी माउंटबेटन तक ना कर सकी, वो आज कोरोनाजान ने कर दिखाया। इस परिवर्तन के काल ने मुझ जैसे कई पतियों को अपनी सुप्तप्राय प्रतिभा के प्रति जागरूक किया है। मैं एक बुरा व्यंग्यकार हो सकता हूँ परंतु आज मैंने इस सत्य का साक्षात्कार किया कि बर्तन माँजने में मेरा कोई सानी नहीं है। तनिक अभ्यास से बर्तन प्रक्षालन के क्षेत्र में मैं नए कीर्तिमान स्थापित कर सकता हूँ, गति और गुणवत्ता दोनों में।
बर्तन माँजते हुए मुझे उनमें कई राजनैतिक चरित्र दिखे। बर्तन भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे तवा काले रंग का होता है। तवा भारतीय राजनीति के कुछ हैदराबादी की भाँति होता है, जिसपर पराठे को कितना ही जलाएँ उसके चिन्ह परिलक्षित नहीं होते। तवे की पीठ का ढीठ कालापन ऐसी सांप्रदायिक पार्टियों के सेक्युलरिज्म की भाँति होता है, जिसके ऊपर उनकी स्वयं की मतांधता छुपी रहती है।
कुछ नेता नॉन स्टिक प्रवृत्ति के होते हैं। यह किसी दल या विचारधारा से नहीं चिपकते। यह एक दल से दूसरे दल भटकते रहते हैं। आप इनके ऊपर डोसा बनाएँ या चीला, अनुभवहीन हाथों में प्रत्येक प्रकार के खाद्य की परिणति भुर्जी स्वरूप में होती है। जिस प्रकार विभिन्न योनियों से गुजरता हुआ मनुष्य अंतत: ब्रह्म में लीन होता है, दर्द हद से गुज़र के दवा होता है, नॉनस्टिक नेता पार्टी दर पार्टी भटक कर अंततः भाजपाई होता है। अंतरात्मा की पूँछ पकड़ कर वह अपने राजनीतिक निर्वाण को प्राप्त करता है।
एक होता है बेलन। इस बर्तन का शास्त्रों में एक विशेष ही स्थान बताया गया है। यही एक बर्तन है जिसका पाक कला के साथ साथ सामरिक मामलों में भी विशेष दखल है। यह भारतीय राजनीति के ताहिर हुसैन हैं। तवा नेता से एक कदम आगे यह जुझारू प्रकृति के होते हैं और वीर रस से ओतप्रोत होते है। इनका उत्साह विचारधारा तक सीमित नहीं होता है, वरन ये मैन-ऑफ-एक्शन होते हैं। बेलन नेता बेलनाकार होता है, सौंदर्यबोध से दूर रहता है, अक्सर एक ही स्वेटर कई कई दिनों पहनता है और जिस प्रकार प्रकार बेलन भिन्न भिन्न प्रकार की सुंदर कारीगरी, कशीदाकारी के लिए नहीं जाना जाता है, यह भी अपने आकार, मारक शक्ति एवम् सौंदर्यहीनता के लिए जाना जाता है।
फिर आते हैं चम्मच। इनके अस्तित्व का ध्येय भारतीय भोजन पद्धति में दाल मे घी मिलाने तक होता है। घी मिलाने के बाद इन्हें थाली में किनारे रख दिया जाता है। ऐसी प्रवृत्ति के नेता, दरअसल नेता होने का आभास भर देते हैं, पूछता इन्हें इन्हीं की पार्टी में कोई नहीं है। इनका मुख्य कार्य भोजन के क्षेत्र में ना होकर संगीत के क्षेत्र में होता है। कीर्तनों में ये ढोलक पर बजाए जाते हैं और ख़ुशी के समय यह थाली-सम बड़े नेताओं के संसर्ग में आ कर शोर मचाते हैं। जब तक यह किसी दल में नहीं होते, ट्रोल कहलाते हैं और किसी फ़्लू की भाँति अपमानित होते रहते हैं। जिस प्रकार गरीब सा शेरू नामधारी कुत्ता साहब के घर पहुँच कर सभ्य विलायती टॉमी हो जाता है, यह एक शक्तिशाली थाली के संपर्क में आकर आम नजले से कोरोना-सम सशक्त बैकरूम बॉय एवम् राजनैतिक विश्लेषक बन जाते हैं। उसके बाद यह एक चैनल से दूसरे चैनल, एक अख़बार के दूसरे अख़बार तक संक्रमित करते हैं।
जिस प्रकार कुछ अच्छी गुणवत्ता के चम्मच डाइनिंग टेबल की शोभा बढ़ाते हैं, और ऐसे टेबल पर बैठते हैं मानो उन्हें भोजन से कुछ लेना देना ही नहीं है, वैसे ही ऐसे चम्मच वर्ग के कुछ मनोहारी और छबीले सदस्य होते हैं, जो काम तो अन्य चम्मचों के समान ही करते हैं परंतु स्वयं तो निष्पक्ष पत्रकार या अराजनैतिक बुद्धिजीवी के रूप में स्थापित करते हैं और परोक्ष रुचि को छुपा कर भोजन से उदासीनता प्रदर्शित करते रहते हैं। अंत में आता है प्रेशर कुकर। यह वास्तव में एक कड़ाही या भगोना ही होता है परंतु अभिजात्य परिवार में पैदा होने के कारण अलग ठसके में रहता है और अन्य बर्तनों की ओर ‘यू ब्लडी इंडियन’ के भाव से देखता है। इसकी यह प्रबल धारणा रहती है कि यह अन्य बर्तनों पर शासन करने के लिए बना है और यदि अन्य बर्तन इसे शासन में नहीं लाते, यह इसे उनका ही दुर्भाग्य मानता है।
जिस प्रकार प्रेशर कुकर वर्ग के नेता अपने उपनाम एवम् दादी जैसा नाक के लिए चहुँओर सराहे और सम्मानित किए जाते हैं, एक कुलीन प्रेशर कुकर अपनी संभ्रांत सीटी और सेफ़्टी वाल्व के लिए जाने जाते हैं। जो काम इनके गाँव वाले गरीब कज़िन जैसे कड़ाही और पतीला बिना आवाज़ करते हैं, ये ज़ोर ज़ोर से सीटी बजा बजा के करते हैं। इनकी एक और महान प्रतिभा यह होती है कि जब इन्हें सत्ता के स्टोव से उतार दिया जाता है, उसके बाद भी इनमें अपनी कुलीनता का इतना प्रेशर बना रहता है कि ये रूक रूक कर सीटी मारते रहते हैं। ये अपनी चमक, रूप और अदा में अन्य बर्तनों से भिन्न होते हैं और जनता का बहुत प्रेम पाते हैं। ये स्वयं को बर्तन समाज को परमात्मा का दिया गया वरदान मानते हैं, और मानते हैं कि यदि बर्तन समाज मूर्खतावश इन्हें सत्ताच्युत करता है तो देर-सबेर ऐसे समाज का पतन सुनिश्चित है।
आज के कोरोना देवी की सेवा मे किए गए गृहकार्य के दौरान अर्जित विचारों को पाठकों सो बाँट कर मन हर्षित है। आशा है कोरोना देवा के प्रस्थान की मँगल घड़ी तक, नया व्यंग्य संग्रह तैयार हो जाएगा। इन दिनों पाठकगण घर पर रहें, सुरक्षित रहें। जब आप बाहर आएँगे, एक असफल व्यंग्यकार और सफल बर्तनकार आपके समक्ष अपने लेख के साथ होगा।