एक हज़ार से अधिक समोसे और करीब दो क्विंटल से अधिक जलेबियाँ जब्त कर ली गईं। किसी हलवाई की दुकान पर खाद्य विभाग का छापा नहीं पड़ा कि मैदे की ख़राब क्वालिटी की वजह से ऐसा हुआ। इसलिए भी नहीं कि खाद्य क़ानून के अनुसार समोसे और जलेबी स्टॉक करना अपराध है। दरअसल ये ज़ब्ती उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव लड़ रहे एक प्रत्याशी के घर से हुई है।
क्या ज़माना आ गया है। चुनाव के मौसम में छापे मारने पर समोसे और जलेबियाँ बरामद हो रही हैं! जब ज़माना अच्छा था और सब ख़ुशी से जीवनयापन करते थे तब चुनावी मौसम में पड़ने वाले छापे में शराब जैसे चुनावी पेय पदार्थ बरामद होते थे। छापा मारने वालों को तो मजा आता ही था, खबर छापने और उसे पढ़ने वालों को भी मज़ा आता था। अब पता नहीं लोकतंत्र की ऐसी कौन सी मजबूरी है कि पुलिस मेहनत करके छापा मारती है और शराब बरामद न होकर समोसे और जलेबी बरामद होते हैं! पर कर क्या सकते है, ज़माना ख़राब है तो यही सब होना है।
अस्सी-नब्बे के दशक वाले अच्छे जमाने और सरल लोकतंत्र के दिनों में वोटरों में बँटवाने के लिए शराब वग़ैरह रखना मजबूत चुनावी संस्कृति का हिस्सा माना जाता था। प्रत्याशीगण निर्भीक होकर शराब का स्टॉक मज़बूत किवाड़ वाले गोदाम में रखवा लेते थे और सही महूरत देखकर वोटरों के हवाले कर दिया करते थे। चुनाव लोकसभा का हो या विधानसभा का, प्रत्याशी लेन-देन में ईमानदारी के क़ायल होते थे। मानो कह रहे हों; भैया वोट तो हमें आपका चाहिए पर हम ऐसे न लेंगे। आपको चाहे जितना बुरा लगे पर आपके वोट के एवज में हम आपको बिना कुछ दिए न मानेंगे। अब देखिए, आपके वोट का सही वैल्यूएशन करवाने के लिए चुनाव आयोग ने वैल्यूअर नियुक्त नहीं किए हैं इसलिए हमें पता नहीं कि आपके वोट का वैल्यू कितने रुपए है। ऐसे में मेरे और आपके धरमसंकट का एक हल यह है कि पैसा न देकर वोट के एवज़ में हम आपको शराब दें। आप भी ख़ुश, हम भी ख़ुश और लोकतंत्र भी ख़ुश।
कुछ चुनावी विद्वान आज भी उन भले दिनों को याद करते हुए बताते हैं; शराब बाँटें बिना चुनावी प्रक्रिया पूर्ण नहीं मानी जाती थी। लगता था जैसे वोट लेने के लिए शराब न बाँटी गई तो वोट की पर्ची वोटर के हाथ से निकल कर विरोधी नेता की पॉकेट में जा घुसेगी। वैसे भी कई नेताओं का लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास इतना प्रगाढ़ होता था कि बिना कुछ दिए वोट लेने के विचार से भी उनकी आत्मा परेशान रहती थी। कुछ देकर वोट लेने से लोकतंत्र का सांस्कृतिक अर्थशास्त्र न केवल जीवित रहता था पर कुलाँचे भी मारता था।
विद्वान बताते हैं कि वोट के एवज़ में पैसे बाँटने का कार्यक्रम भी होता था पर वह उन दिनों बहुत पॉप्युलर नहीं था। कई बार लोकसभा चुनावों में दिल्ली से आए आलाकमान के प्रतिनिधि वोटर को पैसे देने के कार्यक्रम पर भरोसा करते तो थे पर वे अंक गणित में लोकल नेताओं की निपुणता को लेकर शंकित रहते थे। उन भले दिनों को याद करते हुए एक विद्वान बताते हैं; एक उप चुनाव में दिल्ली से आए आलाकमान के मैनेजर के सामने बाँटने के लिए लोकल नेताओं ने पैसे का एस्टिमेट रखा तो पता चला कि प्रति वोटर जो रक़म बताई गईं थी, उसके अनुसार उस लोकसभा क्षेत्र में करीब 67 लाख वोटर थे।
राहुल गाँधी भले ही अपने बालसुलभ भाषणों में दक्षिण भारत को उत्तर भारत से महान बताएँ पर वोट के एवज़ में लेन-देन का कार्यक्रम दक्षिण भारत के लिए भी पुराना ही है। कहते हैं एक नेत्री को वोट के एवज़ में लड्डू बाँटने में बहुत सुख मिलता था। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनके विश्वास की पोल तब खुली जब पता चला कि दरअसल वे वोट के एवज़ में लड्डू नहीं बल्कि सोना बाँटती थीं। लड्डू इतना बड़ा रहता था कि उसमें सोने के छोटे गहने के साथ ही भारत का लोकतंत्र भी समा जाता था।
कितने अच्छे दिन थे जब लेन-देन के ये काम छिप-छिपाकर किए जाते थे। एक तरह का अड्वेंचर होता था। पकड़े जाने पर प्रत्याशी के बारे में लोग जान जाते और निश्चिंत हो लेते थे कि उसके बारे में क्या विचार बनाना है। अब छिपाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अब प्रत्याशी अपनी पार्टी के घोषणापत्र में ही लिखवा देता है कि जीतने पर क्या-क्या फ़्री में देगा। ऐसी भीषण पारदर्शिता की वजह से लोकतंत्र से रोचकता कम होती जा रही है।
विशेषज्ञ बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में इस बार बहुत कड़ाई बरती जा रही है। शायद सही ही कह रहे हैं। तभी तो प्रत्याशी समोसे और जलेबी जैसी चीज़ों के साथ धर लिए जा रहे हैं। वरना पिछले पंचायत चुनावों में मेरे गाँव के एक प्रत्याशी गाँव के कई लोगों को चुनाव से पहले प्लेज़र ट्रिप पर गोवा ले गए थे। यह बात और है कि वे अपना एक कार्यकाल समाप्त करके दूसरी बार प्रत्याशी बने थे। मुझे पूरा विश्वास है कि जिस प्रत्याशी के यहाँ से समोसे और जलेबी बरामद हुई है वह पहली बार चुनाव में खड़ा हुआ है और आगे चलकर जैसे-जैसे अनुभवी होगा, अगली बार वोटरों के साथ गोवा से ज़ब्त किया जाएगा।