मैथिली लोककथाओं में एक छोटे से परिवार की कहानी आती है। जी हाँ, आम तौर पर जैसा स्थापित मिथकों को गढ़ने वाले बताते हैं, वैसा नहीं होता। हो सकता है विदेशों में कहीं किस्से-कहानियाँ या लोककथाएँ और किम्वदंतियाँ राजा-रानियों की होती हों, मगर भारत में मामला बिलकुल अलग रहा है। हमारी लोककथाएँ आम आदमी के जीवन के ही चारों ओर घूमती हैं। राजा और आम आदमी के रहन सहन में संभवतः ज्यादा अंतर भी नहीं था। इसलिए जितने राजा हुए होंगे, उतने महल भी खुदाई में नहीं निकलते।
खैर तो हमारी कहानी थी एक छोटे से परिवार की, जहाँ पति-पत्नी और एक बच्चा होते हैं। एक रोज सुबह-सुबह खाना पकाने के लिए वो साधारण सा आदमी कुछ मांस ले आता है। साधारण सा परिवार था और लोग भी कम थे तो वो पाव भर (250 ग्राम) मांस लाया और पकाने के लिए पत्नी को देकर काम पर चला गया। मांस पकाती पत्नी ने एक टुकड़ा चखकर देखना चाहा कि वो ठीक से पका है या नहीं। उसने पहले एक टुकड़ा खाकर देखा, फिर दूसरा, और भुनते-भुनते ही सारा मांस ख़त्म हो गया!
पाव भर मांस में टुकड़े ही कितने होते हैं! अब तो बेचारी की बरी बुरी दशा हुई। लौटकर पति को नजर आता कि वो सारा मांस अकेले खा गई है तो भूखे आदमी को गुस्सा तो आता ही। जो कहीं बात हंसी-मजाक में आस-पड़ोस, देवर-भाभियों तक पहुँचती तो पूरी जिन्दगी के लिए भुक्खड़ होने का ठप्पा भी लगता। महिला ने आस-पास देखा और उसे वहीं खेलता एक कुत्ते का पिल्ला नजर आया। उसने आव देखा ना ताव और उसे ही काटकर पका डाला। जब पति लौटा तो उसे वो वही पिल्ला परोसकर बैठ गई।
घर का बच्चा जो सारी घटना देख रहा था, वो अब घबराने लगा। अगर वो बताता कि हुआ क्या है तो बाद में उसकी पिटाई निश्चित थी। अभी बताता तो पिल्ला काटकर परोस देने पर उसकी माँ पिटे बिना नहीं रहती। वो बाप को पिल्ला खाते भी नहीं देख सकता था तो आखिर उसने गाना शुरू किया “कही त मैय मारल जै, नै कही त बाप पिल्ला खाय… कही त मैय मारल जै, नै कही त बाप पिल्ला खाय…” (कह दूँ तो माँ मारी जाएगी, ना कहूँ तो बाप पिल्ला खाएगा)! तो ये कहावत के पीछे की कहानी थी।
आज के दौर में देखें तो उर्दू शायरी में “इक तरफ उसका घर, एक तरफ मैकदा” या “ना बोलूँ कुछ तो कलेजा फूँके, जो बोल दूँ तो जबाँ जले है” जैसे वाक्यों में ऐसा ही भाव दोहराया जाता है। अफ़सोस कि हिन्दी में इसकी टक्कर का कुछ इतनी आसानी से याद नहीं आता। ऐसा शायद इसलिए भी है क्योंकि कविताएँ और भाव शायद हिन्दी कवियों को राजनैतिक विचारधारा से कम महत्वपूर्ण लगे। उन्होंने किसी दौर में छंद के बदले एजेंडा परोसना शुरू कर दिया।
संभवतः यही वजह है कि आज हम अगर हिन्दी काव्य की चर्चा करने बैठ जाएँ तो कवि अपनी रचनाओं के कारण नहीं बल्कि विवादों के कारण याद आते हैं। इस क्रम में विदेशों से शुरू हुए अभियान #मीटू की भी खासी भूमिका रही है। इसके लपेटे में तो कई दिग्गज और मठाधीश अपने ऊँचे सिंहासनों से गिरकर कीचड़ में लोटते पाए गए। जब #मीटू की आँधी कुछ थमने लगी थी तभी एक नया विवाद सामने आया है। गुनगुन थानवी नामक किसी कम ख्यात स्त्री ने जाने-माने जनवादी कवि बाबा नागार्जुन पर बाल यौन शोषण का अभियोग मढ़ दिया है।
आरोप बरसों पहले का है और कुछ लोगों का मानना है कि बाबा नागार्जुन उस समय भी अस्सी वर्ष से ऊपर की अवस्था के और अशक्तता से ग्रस्त रहे होंगे। वहीं दूसरे धड़े (और अधिकांश महिलाओं) का मानना है कि आरोप सच भी हो सकते हैं। इस पूरे मामले में हिन्दी की राजनीति करने और उसे बेच-बेच खाने वालों की जरूर “कही त मैय मारल जै…” वाली दशा हो गई है। अगर वो चुप रहें तो उन पर स्त्री-विरोधी और जरूरत के समय नारीवाद के साथ खड़े ना दिखने का अभियोग ठहरता है। जो बोल पड़ें तो इतने दिन जिसे जनवादी और क्रांतिदूत कहते आ रहे हैं वो आइकन ही ढह जाएगा!
बाकी भाषा और साहित्य को राजनीति का अखाड़ा बनाने से खुद के लिए ही क्या-क्या विकट समस्याएँ उपजती हैं, ये भी साथियों, कॉमरेडों को अब खूब समझ आ रहा होगा! “दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना”