ठिठुरती हुई ठण्ड विदा लेने लगती है, प्रकृति में एक नई स्फूर्ति का आगमन होने लगता है और फिर अलसाई रात्रि को दूर करते हुए सूर्य एक नए उत्साह के साथ उदित होता है। बसंत के आगमन के साथ ही प्रकृति में नए बदलाव होने लगते हैं, किन्तु भारत माता के बंधनों को तोड़ने वाली सुबह कब होगी, इसकी प्रतीक्षा करते हुए न जाने कितनी ही रातें बीत गईं। ‘क्रांतिदूत’ शृंखला की 5वीं पुस्तक ‘बसंती चोला’ बसंती आवरण के साथ ही आई है।
पिछली चार पुस्तकों में हमने क्रांति युद्ध के कई अध्याय पढ़े तथा भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते युवाओं के जोश को देखा। सशस्त्र क्रांति के युद्ध में सम्मिलित हो कई वीर बलिवेदी पर अपने शीश चढ़ा चुके थे, पर उसका हासिल कुछ नहीं हुआ था। अब तक के उनके संघर्षों को आतंकवाद और भटके हुए नौजवान की संज्ञा दे दी गई थी। ‘गदर आंदोलन’ ने भारत के पश्चिमी छोर पर एक नई उम्मीद, एक नई उमंग को जन्म दिया था।
भारत माता की बेड़ियों को दासत्व के बंधन से मुक्त कराने के लिए वहाँ कसमें खाई जा रही थीं। लाला लाजपत राय जैसी महान विभूतियाँ इस बदलते हुए वातावरण की अग्नि की ताप को समझ रहे थे। इस ताप की अग्नि से तपते युवाओं को दिशा देने के ही उद्देश्य से ‘नेशनल कॉलेज’ की स्थापना की गई थी। ‘नेशनल कॉलेज’ में उन्होंने ऐसे शिक्षकों को रखा, जो युवाओं में राष्ट्र प्रेम की भावना को जगाने के साथ-साथ उनका सही मार्गदर्शन भी कर सकें।
और, फिर यहीं से आरम्भ होता है भारत में साम्राज्यवादी बेड़ियों को तोड़कर बसंत लाने का संग्राम। अब अपने राष्ट्र को अपने विचारों से परिचित करवाने का समय आ चुका था। ये बदलाव की राह थी, ये इंकलाब की राह थी। एक राष्ट्र की पहचान उसके विचारों से होती है, यदि आप पर किसी दूसरे राष्ट्र के विचार हावी रहेंगे तो आप स्वतंत्र होते हुए भी उनके गुलाम ही रहोगे। विचारों में परिवर्तन लाने के लिए ही बसंत को आना था।
‘नेशनल कॉलेज’ में इन्हीं विचारों की शिक्षा दी जा रही थी। इस कॉलेज के छात्र थे भगत सिंह, सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल, जयदेव आदि और शिक्षक थे भाई परमानंद, छबीलदास, जयचन्द विद्यालंकार आदि। जयचन्द विद्यालंकार को भगत सिंह का राजनितिक गुरु भी कहा जाता है। क्रांतिदूत शृंखला की पुस्तकों को यदि लेखन की दृष्टी से क्रमबद्ध किया जाए तो इसका स्थान दूसरा रहेगा, पहले पर ‘झाँसी‘ ही रहेगी और तीसरे पर ‘मित्रमेला‘।
इसका कारण है, और वह यह है कि ये पुस्तक अपने विचार रखने में सफल रही है, इसमें कहीं भी कथा में दोहराव नहीं हुआ है। पिछली पुस्तक में कहानी कई जगह दोहरा दी गई थी, जिससे कथा के प्रवाह में बाधा पड़ती थी। उसमें कई स्थानों पर अतिरिक्त जोश का प्रदर्शन होता हुआ भी दिख रहा था। लेकिन, बसंती चोला की कहानी एक प्रवाह में बहे जा रही है, इसलिए पढ़ते हुए कहीं दिक्कत नहीं आई। कहानी भगत सिंह के जीवन से जुड़े कई अध्यायों को बताती हैं, उनके परिवार उनके मित्र, उनके अध्ययन और देश के प्रति उनकी लगन को दिखाती है।
महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भगत सिंह के पूर्वज खालसा सरदार थे। उनके दादा जी श्री अर्जुन सिंह, उनके पिता श्री किशनसिंह, चाचा श्री अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह ने कैसे समय-समय पर अंग्रेजों से लोहा लिया, उसकी कहानी है बसंती चोला। ‘पगड़ी संभाल ओ जट्टा’ गीत तो आपने सुन ही रखा होगा, इसके पीछे की क्या कहानी है यदि ये जानने में आपकी दिलचस्पी है, तो क्रांतिदूत शृंखला की ये पुस्तक आपके लिए है। वैसे तो इस कहानी को आप और भी जगह से पढ़ सकते हैं, पर जिस अंदाज़ में ये शृंखला लिखी गई है, वह स्कूल जाने वाले छात्रों तक ये कथा पहुँचाने का श्रेष्ठ माध्यम है।
युवाओं में राष्ट्र के प्रति जागृति और राष्ट्र प्रेम जगाने का प्रयास समय समय पर होता रहा है। लाला जी उसे नेशनल कॉलेज के माध्यम से करने का प्रयास करते हैं, तो मनीष श्रीवास्तव उसे ‘क्रांतिदूत’ शृंखला लिख कर करने का प्रयास कर रहे हैं। एक और अध्याय है ‘पुरजा पुरजा कट मरे’, गीत तो सुना ही होगा, भाई मतिदास और भाई सतिदास की कथा कैसे क्रांतिदूत से जुड़ती है, यहाँ पढ़िए।
आपके समक्ष प्रस्तुत है डॉ मनीष श्रीवास्तव (@Shrimaan) जी की #क्रांतिदूत श्रृंखला की ५ पुस्तकें :
— Padhega India (Bodhi Tree Knowledge Services) (@PadhegaIndia_) November 5, 2022
१. झांसी फाइल्स / #Jhansi_Files
२. काशी / #Kaashi
३. मित्रमेला / #MitraMela
४. गदर / #Gadar
५. बसंती चोला / #BasantiChola#BuyFromPI #PIRecommends 💮🔱
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बसंत विदा लेने लगी थी, बसंत में आए परिवर्तन से अंग्रेजों की नींद हराम होने लगी थी। फिर अंग्रेजों ने बौखलाहट में ऐसी गलती कर डाली, जिसने उनके साम्राज्य के कभी न डूबने वाले सूर्य को अस्ताचल की ओर मोड़ दिया था। जलियाँवाला बाग में उस दिन रक्त से सनी भूमि पर से जब बसंत विदा ले रही थी, तब एक हाथ की मुठ्ठी ने उस भूमि से तिलक कर विदा होती बसंत की मिट्टी को एक बोतल में क़ैद कर लिया था। उसने कसम खाई थी कि या तो इन राक्षसों से इस भूमि को मुक्त कराऊँगा या आने वाले वर्षों में वसंत के साथ ही विदा ले जाऊँगा।
ये हाथ थे भगत सिंह के और बदलाव की राह उन्होंने अपने लिए चुन ली थी। उन्होंने उस बदलाव को नाम दिया ‘इंकलाब’। बसंती चोला की कहानी अगली पुस्तक के लिए पाठकों को बाँधे रखती है। चंद्रशेखर आज़ाद और गणेश शंकर विद्यार्थी, एक बल और पौरुष की मूर्ति तो दूसरे विचारों से सिंहासन हिलाने की ताकत रखने वाले व्यक्तित्व। अगली पुस्तक में नेशनल कॉलेज के ये छात्र जब इनसे मिलेंगे, तो क्या समा बनेगा उसकी प्रतीक्षा रहेगी।