भारत में सेकुलरिज्म के नाम पर दशकों से एक पूरा नैरेटिव तैयार हुआ है। इसी कारण लोग इको-फ्रेंडली क्रिसमस की बात कर रहे हैं। इसी नैरेटिव का नतीजा है कि आज हिंदुओं के पर्व आते ही सोशल मीडिया पर नैतिकता की दुहाई दी जाने लगती है। सही-गलत की परिभाषाएँ तय होने लगती हैं और वहीं दूसरे धर्मों से संबंधित त्योहार पर पोस्टर जारी करके बधाई देने का सिलसिला शुरू हो जाता है।
25 दिसंबर आने से एक दिन पहले आपको ये सब खूब देखने को मिल रहा होगा। दिखे भी क्यों न? क्रिसमस कोई छोटा-मोटा फेस्टिवल थोड़ी है। ईसाईयों का सबसे बड़ा त्योहार है। पश्चिमी सभ्यता की सबसे बड़ी छाप है। हम दीवाली से ठीक पहले प्रदूषण का हवाला देकर पटाखों को कोसते हैं। देश के कई राज्यों में सूखा बताकर होली पर फेंके जाने पानी पर ज्ञान देते हैं। शिवरात्रि पर शिवलिंग पर चढ़ाए जाने वाले दूध से हमें गरीबों की याद आ जाती है।
मगर, क्रिसमस इतना बड़ा त्योहार है कि इस दिन के कारण होने वाले सभी दुष्परिणामों को हम नजरअंदाज कर देते हैं। हमारे भीतर का बुद्धिजीवी उसी समय सोता रहता है जब वैश्विक स्तर पर दुनिया के अधिकाँश लोग एक ट्रेंड के कारण अपना सबसे ज्यादा पैसा खर्च करते हैं और बिना गरीबों का ख्याल किए अपने अपने घर पर आम दिनों से अधिक और वैराइटी वाले व्यंजनों का आनंद लेते हैं।
हिंदुओं के त्योहारों को मनाने वाला वर्ग सीमित है, मगर क्रिसमस का जिस प्रकार बाजारीकरण करके उसे हर घर के भीतर प्रवेश करवाया गया, उस वजह से इसे लगभग सभी जगहों पर धूमधाम से मनाया जाता है। अब जब ये फेस्टिवल हर जगह धूमधाम से सेलीब्रेट हो रहा है तो मतलब साफ है कि इस दिन होने वाले नुकसान भी व्यापक हैं। यही कारण है कि हमें इको-फ्रेंडली क्रिसमस को ले कर लोगों में जागरूकता फैलानी चाहिए।
क्या मानवीय आधार पर हमारा फर्ज नहीं है कि हम दिवाली, होली जैसे त्योहारों पर ‘कल्याणकारी’ मुहीम छेड़ने के बाद अब मोर्चा क्रिसमस के लिए खोले और लोगों में जागरूकता फैलाएँ। आखिर पता होना चाहिए कि प्रकृति को इस एक दिन से कितना नुकसान होता है। क्रिसमस के बाद के दिन, दिल्ली के प्रदूषण का स्तर वैसा ही था जैसा कि दीवाली के अगले दिन, फिर भी दीवाली पर ज्ञान देने वाले बहुतायत होते हैं, क्रिसमस की आतिशबाजी पर कोई कुछ नहीं कहता।
मौजूदा जानकारी के मुताबिक क्रिसमस के इस पर्व पर अकेले यूके में पूरे साल के मुकाबले लोग 80% ज्यादा खाना खाते हैं। 370 मिलियन मिंस पाइस (कीमे से तैयार डिश) चबा जाते हैं। 250 मिलियन पिंट बियर और 35 मिलियन वाइन गटक ली जाती है और 10 मिलियन टर्की को शुभ मानकर काटकर ओवन में पका दिया जाता है। पेटा की एक रिपोर्ट के अनुसार यूएस में पूरे साल में 245 मिलियन टर्की मारे जाते हैं, जिसमें सिर्फ क्रिसमस पर 22 मिलियन की हत्या की जाती है।
एक अनुमान के मुताबिक 170 पाउंड (भारतीय पैसे के अनुसार 17 हजार रुपए) एक घर सिर्फ खाने पर खर्च करता है, दिलचस्प बात यह है कि वहाँ 35 प्रतिशत लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि वह आम दिनों से ज्यादा इस दिन पर खाना फेंकते हैं।
इसके अलावा विभिन्न किस्म के मीटों का सेवन क्रिसमस के दिन मानो अनिवार्य होता है। हर डिश में मीट यूज होता है। जिसका बड़ा नुकसान अपना पर्यावरण झेलता है। जी हाँ, लगभग 15-20000 लीटर पानी 1 किलो मीट प्रोटीन के उत्पादन में खर्च होते हैं। अगर लोग इको-फ्रेंडली क्रिसमस अपना लें, और भोजन की खपत कम करें, मीट कम खाएँ तो पर्यावरण के लिए यह मददगार साबित हो सकता है।
इसके बाद इतनी अधिक मात्रा में जब खाना घरों में लाया जाता है तो उनकी सामग्री को पैक करने में जो कागज इस्तेमाल होता है उसकी भी बर्बादी होती है। साल 2016 की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ यूके में अंदाजन 227,000 मील ऐसे कागज वेस्ट हुए जिनसे खाना, गिफ्ट आदि हर साल रैप किया जाता है। इस आँकड़े का मतलब समझते हैं? एक आइलैंड इसमें पूरा लपेटा जा सकता है। साथ ही लगभग एक अरब क्रिसमस कार्ड्स भी इस दिन भेजे जाते हैं जिसके लिफाफे का वजन लगभग 3 लाख टन होता है।
क्रिसमस के मौके पर कार्ड दिए जाते हैं? उनका बाद में क्या होता है। सोचा है क्या किसी ने? गिफ्ट में इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक उसकी बर्बादी भी इस मौके पर धड़ल्ले से होती है जबकि ये बात सबको पता है कि प्लास्टिक से हमारी प्रकृति को कितना नुकसान होता है और रैपिंग पेपर से किस तरह किलो के हिसाब से कार्बन डायक्साइड निकलती है। इसे बनाने में कोयले जैसे संसाधन जो इस्तेमाल होते हैं उनकी बर्बादी का आँकड़ा वो अलग है। कहते हैं कि 1 किलो रैपिंग पेपर बनाने में साढ़े 3 किलो कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।
क्रिसमस ट्री इस मौके पर घर की सजावट में चार चाँद लगाता है। कुछ लोग असली क्रिसमस ट्री को प्राथमिकता देते हैं, मगर बड़ी मात्रा में लोग आर्टिफिशियल पेड़ को घर में सजा देते हैं। अब दिक्कत ये है कि ऐसे लोगों के कारण क्रिसमस ट्री के नाम पर इतने पर बड़ी मात्रा में आर्टिफिशियल क्रिसमस ट्री का उत्पाद किया जाता है कि क्रिसमस जाने के बाद इसमें इस्तेमाल प्लास्टिक का सारा दुष्प्रभाव हमारे पर्यावरण को हजार सालों तक झेलना पड़ता है। इस कारण भी इको-फ्रेंडली क्रिसमस समय की माँग है।
इनमें से 80 % क्रिसमस ट्री चीन में बनते हैं। बाकी का निर्माण भी साउथ कोरिया आदि शहरों में होता है। चिंता की बात यह है कि इन ट्री में नॉन-बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक और संभवत: मेटल टॉक्सिन, जैसे लेड आदि का, इस्तेमाल होता है। सैंकड़ों लोग ऐसे सामान में अपनी आमदनी खुले आम खर्च करते हैं कि बड़े स्तर पर पैसों की बर्बादी होती है।
द नेशनल क्रिसमस ट्री एसोसिएशन नाम के एक व्यापार समूह, का अनुमान है कि अमेरिकियों ने साल 2016 में 27.4 मिलियन असली क्रिसमस पेड़ खरीदे, जिसमें $2.04 बिलियन खर्च हुए। वहीं अनुमानित 18.6 मिलियन आर्टिफिशियल पेड़ 1.86 बिलियन डॉलर में खरीदे गए थे। एक तरफ जहाँ विश्व पेड़ों को लगाने के लिए प्रयासरत है, जंगल जल रहे हैं, आबादी बढ़ रही है, वैसे में एक दिन के लिए करोड़ों पेड़ों का हर साल कटना बताता है कि हम सँभलने की जगह और नुकसान पहुँचा रहे हैं।
हम देखते हैं कि क्रिसमस पर लोग मोमबत्ती जलाकर घरों की साज सज्जा करते है। लाइटों का इस्तेमाल करते हैं। हालाँकि ये ध्यान कोई नहीं देता कि इन मोमबत्तियों को पैराफिन से निर्मित किया जाता है जो पेट्रोलियम का ही बायप्रोडक्ट है। यानी जीवाश्म ईंधन को जलाने से जो प्रदूषण फैलता है उसकी परवाह भी क्रिसमस के खुमार में कोई नहीं करता। क्रिसमस लाइट से जो घरों को सजाया जाता है उस समय भी इलेक्ट्रिसिटी का दुरुपयोग करना अधिकार समझ लिया जाता है।
अब बात करते हैं भारत की। केवल पश्चिमी शहरों में ही क्रिसमस पर ऐसे कार्य नहीं किए जाते जिनसे नेचर को नुकसान पहुँचे। बल्कि भारत में भी इस त्योहार का क्रेज बहुत ज्यादा है। दिवाली पर प्रदूषण को कोसने वाले अक्सर क्रिसमस तक पटाखों पर लगे बैन को हटा देते है जबकि क्रिसमस पर आई 2018 की इस खबर पे नजर मारें तो पता लगता है कि क्रिसमस पर दिवाली जितना ही पॉल्यूशन होता है।
कुल मिलाकर सच्चाई यही है कि जितने तर्क हिंदुओं के त्योहारों की आलोचना करने में दिए जाते हैं, अगर वैसी ही तर्क 25 दिसंबर के मौके पर उठाए जाएँ तो स्पष्ट होता है कि क्रिसमस का बाजारीकरण, इस त्योहार का महिमामंडन केवल संस्तृतियों को ध्वस्त नहीं कर रहा है बल्कि देश, सीमा, धर्म की परवाह किए बिना जेबों को खाली करवा रहा और हमारे पर्यावरण को भी खोखला कर रहा है। आज हालात ये हैं कि भारत के स्कूलों में भी क्रिसमस के नाम पर बच्चों से प्रोजेक्ट बनवाए जाते हैं। अच्छा खासा पैसा खर्च करवाकर इस त्योहार के प्रति उनके मन में रूचि पैदा की जाती है। नतीजा यह होता है कि पर्यावरण विरोधी पश्चिमी ट्रेंड से हम खुद को अपने घरों में ढालना शुरू कर देते हैं।
23 दिसंबर को दुनिया भर के जागरूक लोगों ने ट्विटर पर #EcoFriendlyChristmas ट्रेंड करवाया जो कि पूरे दिन बातचीत का हिस्सा बना रहा। कुल 82,731 ट्वीट्स के साथ, 27.8 मिलियन लोगों तक की पहुँच के साथ इको-फ्रेंडली क्रिसमस का हैशटैग नंबर एक पर ट्रेंड करता रहा। यह बताता है कि लोगों में अब पर्यावरण को ले कर एक घबराहट है कि बाजारवाद के नाम पर कितनी बरबादी फैलाई जाती रही है।