मानव संस्कृति का आधार वेद है। वेद अर्थात् ज्ञान। ज्ञान से ही मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति संभव है और उस ज्ञान का आदिस्रोत ऋग्वेद आदि चार संहिताएँ हैं। ऋग्वेद को सम्पूर्ण विश्व ने बिना किसी संशय के विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना है। आदिकाल में ज्ञानार्जन श्रवण मात्र से होता था, अत: ज्ञान को श्रुति कहा गया। धीरे-धीरे श्रुति परंपरा से ज्ञानार्जन तथा पठन-पाठन में शिथिलता आई और परिणामस्वरूप अन्य वेद-व्याख्या ग्रंथों का आविर्भाव हुआ।
सभी ग्रंथों का उद्देश्य वेदार्थ को यथार्थ में समझाना और तदनुकूल आचरण को सिखाना था। उन्हीं ग्रंथों की शृंखला में वेदांग नाम से जाने वाले छ ग्रन्थ हैं– शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छंद और ज्योतिष। इन्हें ‘षडंग’ भी कहा जाता है। वेदांग का अर्थ है- वेद का अंग। अंगी वेद है और छ वेदांग शास्त्र उसके अंग हैं, अर्थात् उपकारक हैं। ‘अंग्यन्ते ज्ञायन्ते अमीभिरिति अंङ्गानि’ अर्थात किसी भी वस्तु के स्वरूप को जिन अवयवों या उपकरणों के माध्यम से जाना जाता है, उसे अंग कहते हैं।
वेद को समझाने के सहायक ग्रंथों को ‘पाणिनीय शिक्षा’ में इस प्रकार बताया गया है;
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
निरुक्त श्रौतमुच्यते, छन्द: पादौतु वेदस्य ज्योतिषामयनं चक्षु:॥
अर्थात् ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त ‘श्रोत्र’ है, शिक्षा ‘नासिका’, व्याकरण ‘मुख’ तथा कल्प ‘हस्त’ और छन्द ‘पाद’ हैं। षड् वेदांगों में से चार वेदांग (व्याकरण, निरूक्त, शिक्षा और छन्द) भाषा-बोध से सम्बन्धित हैं। अन्य दो वेदांग कल्प तथा ज्योतिष वेदों का याज्ञिक (व्यवहारिक तथा प्रयोगात्मक) ज्ञान का बोध कराते हैं।
‘कल्पौ वेद विहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्’ अर्थात् ‘कल्प’ वेद प्रतिपादित कर्मों का प्रायोगिक रूप प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है, तथा ज्योतिष उन कर्मों के अनुकूल समय आदि बताने वाला शास्त्र है। ज्योतिष पूर्णत: वैज्ञानिक पद्धति से कालविधान कारक तथा भारतीय मनीषा की सर्वोच्च उपलब्धियों में से एक विशेष उपलब्धि है। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जैसे आज किसी भी नवीन खोज के न्यूनतम दो स्तर अवश्य होते हैं- Theory and practical, यानी, सिद्दांत और प्रयोग। ठीक उसी प्रकार वेदवर्णित विज्ञान के भी दो स्तर हैं- मन्त्र तथा यज्ञ। वेद में वर्णित ज्ञान के प्रयोगात्मक (practical) रूप को ‘यज्ञ’ कहा जाता है।
किसी भी प्रयोग अर्थात, यज्ञ को करने के लिए उचित काल तथा अनुकूल मौसम को जानना बहुत आवश्यक है। वेद में समयानुसार यज्ञ-विधान किया गया है। अत: वेद को समझने के लिए काल, मास, पक्ष, ऋतु तथा मौसम आदि के सम्यक बोधक, सूक्ष्म अध्ययन अथवा दर्शन कराने वाले ‘ज्योतिष शास्त्र’ (ज्योति, अर्थात् प्रकाशपुंज, संबंधी विवेचन) का ज्ञान नितांत आवश्यक तथा उपादेय है-
वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालानुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः।
तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्येतिषं वेद स वेद यज्ञान्॥
ज्योतिष वेदांग का सर्वप्राचीन तथा प्रामाणिक लगधाचार्य-रचित ‘वेदांगज्योतिष’ नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में पंचांग के प्रारम्भिक नियम, त्रैराशिक नियम, युग-गणना, नक्षत्र- गणना, उनकी स्थिति आदि का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इसके बाद नारद, पराशर, वसिष्ठ आदि ॠषियों के ग्रन्थ तथा वाराहमिहिर, आर्यभट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं।
चारो वेदों के पृथक्पृथक् ज्योतिषशास्त्र थे। उनमें से सामवेद का ज्योतिषशास्त्र अप्राप्य है, शेष तीन वेदों के ज्योतिषशास्त्र प्राप्त होते हैं-
(1) ऋग्वेद का ज्योतिष शास्त्र – आर्चज्योतिषम्, इसमें 36 पद्य हैं।
(2) यजुर्वेद का ज्योतिष शास्त्र – याजुषज्योतिषम्, इसमें 39 पद्य हैं।
(3) अथर्ववेद का ज्योतिष शास्त्र – आथर्वणज्योतिषम्, इसमें 162 पद्य हैं।
वेदाङ्ग ज्योतिष के उपलब्ध तीनों ही शास्त्रों में खगोलीय पिंडों की स्थिति, उनके गतिशास्त्र तथा उनकी भौतिक रचना आदि के ज्ञान के अतिरिक्त गणितशास्त्र के कई प्रमुख विषय यथा- संख्याओं का उल्लेख, जोड़, घटा, गुणा, भाग, त्रैराशिक नियमादि का उल्लेख भी मिलता है। इसलिए आचार्य लगध प्रणीत ‘वेदांग ज्योतिष’ में ज्योतिषशास्त्र की महत्ता बताते हुए ज्योतिष को गणित कहा है;
यथा शिखा मयूराणां , नागानां मणयो यथा ।
तद् वेदांगशास्त्राणां , गणितं मूर्ध्नि वर्तते ॥
अर्थात, जैसे मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे ऊपर है, वैसे ही सभी वेदांग शास्त्रों मे गणित अर्थात ज्योतिष का स्थान सबसे ऊपर है। स्पष्ट है कि उस समय गणितशास्त्र नक्षत्रविद्या के अन्तर्गत ही परिगणित होता था।
ज्योतिष शास्त्रों में आकाशीय पिंडों (ग्रह, नक्षत्र) की स्थिति से त्रुटि से लेकर कल्पकाल तक की कालगणना, आयन, अब्द, ग्रहगतिनिरूपण, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य व चन्द्रमा के ग्रहण प्रारम्भ एवं अस्त, ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्षस्थिति, देशभेद, देशान्तर, पृथ्वी का भ्रमण, पृथ्वी की दैनिक व वार्षिक गति, ध्रुव प्रदेश, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्र संस्थान, भगण, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथ्वी की छाया, पलभा समस्त विषय परिगणित है।
जहाँ प्रयोग-स्थल अर्थात् यज्ञ-वेदी के निर्माण हेतु वेदांग के कल्प शुल्ब सूत्रों से ज्यामिति, त्रिकोणमिति तथा क्षेत्रमिति का ज्ञान होता है, वहीं ज्योतिष वेदाङ्ग ने गणितशास्त्र के सर्वाङ्गीण विकास में भी महती योगदान दिया। ज्योतिषशास्त्र के महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त में ज्या (Sine), उत्क्रमज्या (Versine), कोटिज्या (Cosine) त्रिकोणमितीय फलनों का उल्लेख मिलता है।
500 ई. से 1200 ई. के मध्य गणितशास्त्र का विकास अतुलनीय है। यही वह समय है जब भास्कर (द्वितीय) आर्यभट्ट सदृश विद्वानों ने इस शास्त्र की परम्परा को और भी अधिक सुदृढ़ किया। वैदिक ऋषियों ने इन शास्त्रों के अध्ययन तथा निरीक्षण के उपरान्त सौरमास, चंद्रमास और नक्षत्रमास की गणना की और सभी को मिलाकर पृथ्वी का समय निर्धारण करते हुए संपूर्ण ब्रह्मांड का समय भी निर्धारण कर पूर्णत: वैज्ञानिक कैलेंडर/पंचांग के द्वारा एक सटीक समय मापन पद्धति विकसित की है।
इसमें समय की सबसे छोटी ईकाई ‘अणु’ से लेकर सबसे बड़ी ईकाई ‘दिव्य वर्ष’ तक का मान तथा प्रत्येक काल-मान को एक नाम भी दिया गया है –
*1 परमाणु = काल की सबसे सूक्ष्मतम अवस्था
*2 परमाणु = 1 अणु
*3 अणु = 1 त्रसरेणु
*3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि
*10 त्रुटि = 1 प्राण…………………………………….. *360 वर्ष = 1 दिव्य वर्ष अर्थात देवताओं का 1 वर्ष।
* 71 महायुग = 1 मन्वंतर
* 14 मन्वंतर = एक कल्प (अब 7वाँ वैवस्वत मन्वंतर काल चल रहा है)
* एक कल्प = ब्रह्मा का एक दिन = सृष्टि (4 अरब 32 करोड़ वर्ष)
* ब्रह्मा का वर्ष = ब्रह्मा दिन(4 अरब 32 करोड़ वर्ष) + ब्रह्मा रात(4 अरब 32 करोड़ वर्ष) अत: ब्रह्मा का अहोरात्र, यानी 864 करोड़ वर्ष हुआ।
ब्रह्मा की 100 वर्ष की आयु = ब्रह्मांड की आयु- 31 नील 10 अरब 40 अरब वर्ष (31,10,40,00,00,00,000 वर्ष)। काल की इस गणना को जीवंत रखने हेतु एक अद्भुत व्यवस्था भी की गई है। हमारे देश में किसी भी शुभ कार्य से पूर्व संकल्प कराया जाता है। उस संकल्प मंत्र में सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक की काल-गणना, वर्तमान युग, अयन, ऋतु, मास आदि काल की प्रत्येक कला तथा देश-स्थिति का वाचन किया जाता है।
यह लेख डॉ. सोनिया द्वारा लिखा गया है। डॉ. सोनिया वर्तमान में विश्वविद्यालय के हिन्दू महाविद्यालय में संस्कृत विभाग में सहायकाचार्या हैं