गीता प्रेस गोरखपुर आज किसी परिचय की मोहताज नहीं है- धर्मशास्त्रों के मुद्रण (छपाई) और वितरण में अग्रणी इस प्रकाशक की माली हालत भले ऊपर-नीचे चलती रहती हो, जो किसी भी व्यवसायिक संस्थान के साथ होता ही रहता है, लेकिन हिन्दू समाज में इसके जितना सम्मान शायद ही किसी संस्थान का हो। और गीता प्रेस को इस मुकाम तक पहुँचाने में जिनका योगदान सबसे अधिक रहा, उनमें से एक हैं हनुमान प्रसाद पोद्दार- गीताप्रेस की मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ के संस्थापक सम्पादक, और इसे अखिल-भारतीय विस्तार देने वाले स्वप्नदृष्टा, जिन्होंने यह मिथक तोड़ा कि धर्म के प्रचार-प्रसार के काम में आर्थिक हानि ही होती है, या इसमें पैसे का निवेश घाटे का सौदा ही होता है।
अंग्रेजों ने मोड़ा राष्ट्रवाद की ओर
17 सितंबर, 1892 को जन्मे हनुमान प्रसाद पोद्दार की राष्ट्रवादी और राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी जीवन के शुरुआती दौर में न के बराबर थी। जैसा कि उनके मारवाड़ी समुदाय में उस समय का प्रचलन था, उन्होंने कम उम्र में ही शादी की, पत्नी को माँ-बाप की सेवा में बिठाया और काम-धंधा सीखने कलकत्ते निकल पड़े। लेकिन उन दिनों का कलकत्ता राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आन्दोलन का गढ़ था। युवा पोद्दार के हॉस्टल के भी कुछ युवक क्रांतिकारी निकले, और अंग्रेज़ पुलिस ने लगभग पूरे हॉस्टल के नौजवानों को बिना चार्ज जेल में ठूँस दिया- अंडरट्रायल के नाम पर सड़ने के लिए। इस अन्याय, और जेल में क्रांतिकारियों-राष्ट्रवादियों की संगति, ने पोद्दार को बदल दिया- वे जेल से छूटने के बाद शुरू में तो व्यापार के सिलसिले में बम्बई चले गए, लेकिन उनकी रुचि धीरे-धीरे अर्थ से अधिक धर्म और राष्ट्र की तरफ झुकने लगी थी।
बाइबिल के बराबर गीता का प्रसार करने के लिए शुरू की प्रेस
अलीपुर जेल में श्री ऑरोबिंदो (उस समय बाबू ऑरोबिंदो घोष) के साथ बंद रहे पोद्दार ने जेल में ही गीता का अध्ययन शुरू कर दिया था। वहाँ से छूटने के बाद उन्होंने ध्यान दिया कि कैसे कलकत्ता ईसाई मिशनरी गतिविधियों का केंद्र बना हुआ था, जहाँ बाइबिल के अलावा ईसाईयों की अन्य किताबें भी, जिनमें हिन्दुओं की धार्मिक परम्पराओं के लिए अनादर से लेकर झूठ तक भरा होता था, सहज उपलब्ध थीं। लेकिन गीता- जो हिन्दुओं का सर्वाधिक जाना-माना ग्रन्थ था, उसकी तक ढंग की प्रतियाँ उपलब्ध नहीं थीं। इसीलिए बंगाली तेज़ी से हिन्दू से ईसाई बनते जा रहे थे।
मारवाड़ी अधिवेशन में पड़ी कल्याण की नींव
1926 में हुए मारवाड़ी अग्रवाल महासभा के दिल्ली अधिवेशन में पोद्दार की मुलाकात सेठ घनश्यामदास बिड़ला से हुई, जिन्होंने आध्यात्म में पहले ही गहरी रुचि रखने वाले पोद्दार को सलाह दी कि जन-सामान्य तक आध्यात्मिक विचारों और धर्म के मर्म को पहुँचाने के लिए आम भाषा (आज हिंदी, उस समय की ‘हिन्दुस्तानी’) में एक सम्पूर्ण पत्रिका प्रकाशित होनी चाहिए। पोद्दार ने उनके इस विचार की चर्चा जयदयाल गोयनका से की, जो उस समय तक गोबिंद भवन कार्यालय के अंतर्गत गीता प्रेस नामक प्रकाशन का रजिस्ट्रेशन करा चुके थे। गोयनका ने पोद्दार को अपनी प्रेस से यह पत्रिका निकालने की ज़िम्मेदारी दे दी, और इस तरह ‘कल्याण’ पत्रिका का उद्भव हुआ, जो तेज़ी से हिन्दू घरों में प्रचारित-प्रसारित होने लगी। आज कल्याण के मासिक अंक लगभग हर प्रचलित भारतीय भाषा और इंग्लिश में आने के अलावा पत्रिका का एक वार्षिक अंक भी प्रकाशित होता है, जो अमूमन किसी-न-किसी एक पुराण या अन्य धर्मशास्त्र पर आधारित होता है।
गीता प्रेस की स्थापना के पीछे का दर्शन स्पष्ट था- प्रकाशन और सामग्री/जानकारी की गुणवत्ता के साथ समझौता किए बिना न्यूनतम मूल्य और सरलतम भाषा में धर्मशास्त्रों को जन-जन की पहुँच तक ले जाना। हालाँकि गीता प्रेस की स्थापना गैर-लाभकारी संस्था के रूप में हुई, लेकिन गोयनका-पोद्दार ने इसके लिए चंदा लेने से भी इंकार कर दिया, और न्यूनतम लाभ के सिद्धांत पर ही इसे चलाने का निर्णय न केवल लिया, बल्कि उसे सही भी साबित करके दिखाया। 5 साल के भीतर गीता प्रेस देश भर में फ़ैल चुकी थी, और विभिन्न धर्मग्रंथों का अनुवाद और प्रकाशन कर रही थी। गरुड़पुराण, कूर्मपुराण, विष्णुपुराण जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन ही नहीं, पहला शुद्ध और सही अनुवाद भी गीता प्रेस ने ही किया।
While Gita Press was and is not for profit, thanks to the business acumen that came naturally to the two Marwari cousins, coupled with Dharma at heart, within the first 5 years in operation, Gita Press spread out into a successful large catalogue and a vast distribution network
— Sarvesh Tiwari (@bhAratenduH) July 7, 2018
बम्बई से आई गोरखपुर, गोरखधाम बना संरक्षक
गीता प्रेस ने श्रीमद्भागवत गीता और रामचरितमानस की करोड़ों प्रतियाँ प्रकाशित और वितरित की हैं। इसका पहला अंक वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ, और एक साल बाद इसे गोरखपुर से ही प्रकाशित किया जाने लगा। उसी समय गोरखधाम मन्दिर के प्रमुख और नाथ सम्प्रदाय के सिरमौर की पदवी को प्रेस का मानद संरक्षक भी नामित किया गया- यानी आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और नाथ सम्प्रदाय के मुखिया योगी आदित्यनाथ गीता प्रेस के संरक्षक हैं।
गीता प्रेस की सबसे खास बात है कि इतने वर्षों में कभी भी उस पर न ही सामग्री (‘content’) की गुणवत्ता के साथ समझौते का इलज़ाम लगा, न ही प्रकाशन के पहलुओं के साथ- वह भी तब जब 60 करोड़ से अधिक प्रतियाँ प्रेस से प्रकाशित हो चुकीं हैं। 96 वर्षों से अधिक समय से इसका प्रकाशन उच्च गुणवत्ता के कागज़ पर ही होता है, छपाई साफ़ और स्पष्ट, अनुवाद या मुद्रण (printing) में शायद ही कभी कोई त्रुटि रही हो, और subscription लिए हुए ग्राहकों को यह अमूमन समय पर पहुँच ही जाती है- और यह सब तब, जबकि पोद्दार ने इसे न्यूनतम ज़रूरी मुनाफे के सिद्धांत पर चलाया, और यही सिद्धांत आज तक वर्तमान में 200 कर्मचारियों के साथ काम कर रही गीता प्रेस गोरखपुर में पालित होता है। न ही गीता प्रेस पाठकों से बहुत अधिक मुनाफ़ा लेती है, न ही चंदा- और उसके बावजूद गुणवत्ता में कोई कमी नहीं।
‘भाई जी’ कहलाने वाले पोद्दार ने ऐसा सिस्टम बना और चला कर यह मिथक तोड़ दिया कि धर्म का काम करने में या तो धन की हानि होती है (क्योंकि मुनाफ़ा कमाया जा नहीं सकता), या फिर गुणवत्ता की (क्योंकि बिना ‘पैसा पीटे’ उच्च गुणवत्ता वाला काम होता नहीं है)। उन्होंने मुनाफ़ाखोरी और फकीरी के दोनों चरम छोरों पर जाने से गीता प्रेस को रोककर, ethical business और धर्म-आधारित entrepreneurship का उदाहरण प्रस्तुत किया।
ठुकराया राय बहादुर और भारत रत्न, आज भी जारी अखंड रामचरित मानस पाठ
हनुमान प्रसाद पोद्दार उन चुनिन्दा सार्वजनिक हस्तियों में रहे, जिन्होंने अंग्रेजों का राय बहादुर और आज़ादी के बाद भारत सरकार का भारत रत्न दोनों ही मना कर दिए। 22 मार्च, 1971 को उनकी मृत्यु हो जाने के बाद प्रेस के जिस कमरे में, जिस डेस्क पर बैठकर वह प्रेस के संचालन और ‘कल्याण’ के सम्पादन के साथ-साथ ‘शिव’ के छद्म नाम से पत्रिका में लेखन भी करते थे, वह डेस्क और कमरा आज भी अक्षुण्ण रखे गए हैं। उनके कमरे में आज भी अखंड रामचरित मानस पाठ बदस्तूर चलता रहता है, जिसके लिए लोग पालियों में भागीदारी करते हैं।