आज आपको एक पुरानी घटना की याद दिलाते हैं। याद इसीलिए भी दिलानी पड़ रही है, क्योंकि हम हिन्दू हैं और हम भूलते बहुत ज्यादा हैं। 16 अप्रैल, 2020 को महाराष्ट्र के पालघर में जिस तरह से मिशनरी प्रेरित भीड़ ने 2 साधुओं और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी, ये घटना हमारे जेहन में ताज़ा है। लेकिन, हमें 23 अगस्त, 2008 को ओडिशा के कंधमाल में हुई एक घटना को भी याद करना होगा। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके 4 शिष्यों की हत्या वाली घटना। जन्माष्टमी के दिन उनके शरीर को कुल्हाड़ी से काट डाला गया था।
इस हत्याकांड की गवाह थीं 130 बच्चियाँ, जो तुमुदिबंध के ‘कन्या आश्रम’ में पढ़ती थीं और जन्माष्टमी के मौके पर वहाँ आई हुई थीं। मृतकों में एक लड़का भी शामिल था। हत्यारों के पास AK-47 राइफल थे। साथ ही कई देशी कट्टे से लैस थे। इस हत्याकांड में जिनके नाम सामने आए, उनमें अधिकतर माओवादी ईसाई थे। कइयों ने इन गिरफ्तारयों को ‘कवर-अप’ भी बताया, क्योंकि ईसाई मिशनरियों की जगह इसे सिर्फ माओवादियों की करतूत बता कर धर्मांतरण कराने वाले गिरोह को बचाया गया।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या: माओवादियों की आड़ में ईसाई मिशनरियों को दे दिया गया ‘क्लीन चिट’
जैसा कि ये किसी से छिपा नहीं है, ईसाई मिशनरी सामान्यतः गरीब और पिछड़े इलाकों को अपना निशाना बनाते हैं। उन्हें इलाज के नाम पर चमत्कार दिखाया जाता है, चावल-दाल का लालच दिया जाता है और हिन्दू देवी-देवताओं को उनकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहरा कर उनके भीतर हिन्दुओं के लिए घृणा भरी जाती है। इस तरह दलितों और जनजातीय समाज के लोगों का ईसाई धर्मांतरण कराने में वो सफल होते हैं। ये आज से नहीं, वर्षों से चल रहा है।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के पीछे भी वही ईसाई मिशनरी थे, उनके द्वारा फैलाई गई वही हिन्दू घृणा थी। माओवादी नेता साब्यसायी पांडा ने इस हत्या की जिम्मेदारी ली थी। इससे आपको अंदाज़ा लग सकता है कि सालों तक लोगों का खून बहाने वाले माओवादी संगठनों में भी ईसाई मिशनरियों की कितनी पैठ थी। तभी महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगाँव हिंसा के मामले में फादर स्टेन ‘स्वामी’ जैसे लोग जेल में थे। कंधमाल हत्याकांड के बाद पांडा ने यहाँ तक कहा था कि वो लालकृष्ण आडवाणी, अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया की भी हत्या करेंगे।
याद हो कि ये तीनों तब हिंदुत्व के फायरब्रांड नेता हुआ करते थे। माओवादी नेता के इस बयान के बाद लिबरल गिरोह के ये कह कर ईसाई मिशनरियों को ढकने का बहाना मिल गया कि ये तो माओवादियों का काम है, माओवादी हिन्दू ही हैं। लेकिन, ईसाई मिशनरियों की उनमें जो पैठ थी – उसकी बात कोई नहीं करता। आज तो स्थिति ये हो गई है कि कई पिछले इलाकों में हिन्दुओं (दलितों/जनजातीय लोगों) और ईसाईयों में भेद करना भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि धर्मांतरण के बाद भी वो पहली की तरह ही रहते हैं। एक ही नई चीज जुड़ती है – हिन्दू घृणा।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के RSS से करीबी रिश्ते थे और वो ‘विश्व हिन्दू परिषद (VHP)’ से जुड़े हुए थे। वो चकापाद में आश्रम बना कर 35 वर्षों से जनजातीय समाज के बीच हिन्दू धर्म को लेकर जागरूकता फैला रहे थे। उन्होंने ‘गुरुकुल संस्कृति विद्यालय’ भी खोल रखा था, जिसके माध्यम से स्नातक तक की शिक्षा दी जाती थी। ईसाई धर्मांतरण को लेकर वो मुखर थे और यही बात मिशनरियों को रास नहीं आ रही थी। इलाके में धर्मांतरण की राह में स्वामी उनके लिए रोड़ा बन रहे थे। गोहत्या के खिलाफ स्वामी जी आंदोलन चला रहे थे, ईसाई मिशनरी गोमांस का धंधा।
2008 वो साल था, जब माओवादियों की हिंसा ओडिशा में चरम पर थी। विशेष सुरक्षा बल ‘ग्रे हाउंड्स’ के 28 कमांडो को माओवादियों ने घात लगा कर मार डाला था। इसके कुछ ही महीने की अंतराल पर हुए हमले में 17 पुलिस के जवान फिर से मार डाले गए। इसके लिए बारूदी सुरंग विस्फोट का सहारा लिया गया। इसके अगले साल सांसद सुदामा मरांडी पर भी हमला हुआ, जिसमें उनके 3 सुरक्षा कर्मी मारे गए। इन सभी के बीच में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की भी हत्या हुई।
एक वृद्ध संत और उनके 4 शिष्यों की हत्या पर चर्चा नहीं, विरोध प्रदर्शन के बाद हिन्दुओं को बदनाम करने पर मीडिया का था ध्यान
लेकिन, 2008 में उस दौर के साक्षी रहे लोग जानते हैं कि इस हत्याकांड को मीडिया ने प्रमुखता नहीं दी। न तो ईसाई धर्मांतरण को लेकर बेहद हुई और न ही माओवादियों में मिशनरियों के प्रभाव की। तब सोशल मीडिया का जन्म ही हुआ था, ऐसे में वो प्रभावी नहीं था। आमजनों को वही पता चलता था, जो गिरोह विशेष के पत्रकार उन्हें बताते थे। और इस हत्याकांड के बाद उन्हें क्या बताया गया? यही कि हिन्दुओं ने ईसाईयों पर अत्याचार किया है।
अर्थात, स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके 4 अनुयायियों के नरसंहार को प्राथमिकता नहीं दी गई ख़बरों में, लेकिन इसके बाद हिन्दुओं ने विरोध प्रदर्शन किया तो वो मुद्दा बन गया। हिन्दुओं के विरोध प्रदर्शन को हिंसक बता कर इस हत्याकांड को ही भुला दिया गया। लेखकों ने इसकी तुलना गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में दंगों से की। आज भी गोधरा में 59 रामभक्तों, जिनमें महिलाएँ-बच्चे भी थे, उन्हें ज़िंदा जलाने वाली घटना और इसके पीछे के दोषियों की बात नहीं की जाती है, लेकिन इसके बाद हुए दंगों के लिए हिन्दुओं को दोषी ज़रूर ठहराया जाता है।
स्वामी लक्ष्मानन्द सरस्वती भी ओडिशा के वनवासी समाज से ताल्लुक रखते थे। वो कन्द वनवासी समाज के थे, जिन्हें काफी शक्तिशाली माना जाता है। हिमालय पर तपस्या के बाद समाज की भलाई के लिए वो वापस आ गए थे। संघ प्रचारक श्याम जी जब उनके आश्रम में गए थे तो उन्होंने देखा था कि कितने संघर्षों से वो ये काम कर रहे हैं। खाना बनाने के लिए पर्याप्त बर्तन नहीं थे, जिससे भोजन पकाने में ज्यादा समय लगता था। प्रकाश के लिए पर्याप्त लालटेन की व्यवस्था नहीं थी, जिस कारण रात में पढ़ाई में दिक्कतें आती थीं।
उस समय इन दोनों ने मिल कर गाँवों में भगवान जगन्नाथ की यात्रा निकाली और जनजातीय समाज को फिर से अपनी जड़ों की तरफ मोड़ा। भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्था के पुनर्जीवित होने के कारण कई धर्मांतरित ईसाई वापस हिन्दू धर्म में आए। स्वामी जी शंख बजाते थे और जल छींटते थे, जिससे औपचारिक रूप से वापस घर-वापसी होती थी। अब आप समझ सकते हैं कि इस नव-जागरण के कारण ईसाई मिशनरियों में कैसी खलबली मची होगी।
2008 में आज ही के दिन,
— pankaj kumar (@iampankaj_kumar) August 23, 2022
इसाई मिशनरीज + वाम आतंक ने उडीसा के कंधमाल में
वेदांत केसरी स्वामी #लक्ष्मणानंद सरस्वती की उनके आश्रम मे घुसकर नृशंस हत्या की थी,#SwamyLakshmananandaJi
यह उन पर प्राणघातक 9वां हमला था,
विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏼 व पुण्य स्मरण, धर्म की जय हो अधर्म का नाश हो pic.twitter.com/sptNFzJjgV
यही कारण है कि वनवासी समाज स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद उग्र हो गया और जिन लोगों ने ईसाई धर्मांतरण कर लिया था, उनके प्रति उनमें आक्रोश भर गया था। इसके बाद विरोध प्रदर्शन और हिंसा हुई, जिसके लिए हिन्दुओं को जिम्मेदार ठहराते हुए मीडिया गिरोह ने स्वामी जी की हत्या को भुला दिया। 80 से अधिक उम्र के एक समाजसेवी और उनके 4 शिष्यों के नरसंहार के बारे में हमें उस तरह से चीजें पता नहीं चल पाईं, जैसा पालघर में हुआ था।
कॉन्ग्रेस-BJD के सांसदों पर स्वामी जी पर हमले के थे आरोप, माओवादियों को गिरफ्तार कर हो गई कार्रवाई की इतिश्री
स्वामी जी की हत्या करने के लिए करीब 30 लोगों की टोली आई थी और सभी ने अपने चेहरे ढक रखे थे। 1966 में हिमालय से वापस लौटने के 1 साल बाद ही उन्होंने आश्रम का संचलान शुरू कर दिया था। ये भी जानने लायक बात है कि जब उनकी हत्या हुई, तब माओवादियों की जिला कमिटी में 70% ईसाई ही थे। हालाँकि, ये पहली घटना नहीं थी जब उन पर हमले हुए। 2007 में क्रिसमस के दिन ब्राह्मणीगाँव में ईसाईयों ने मंदिर के सामने अपना दरवाजा लगाने का काम शुरू कर दिया था।
इससे हिन्दू भी भड़क गए और दोनों पक्षों में संघर्ष में 5 लोगों की मौत हुई थी। मौके पर पहुँचे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती पर भी हमला कर दिया गया था। हत्या से पहले उन पर 8 बार हत्या के प्रयास हो चुके थे। 8 हमलों के बावजूद स्थानीय पुलिस-प्रशासन उनकी सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं था। जब उनकी हत्या हुई, उस समय उनका बॉडीगार्ड छुट्टी पर था और उनकी सुरक्षा में लगे 4 कॉन्स्टेबल बाजार गए हुए थे। उन कॉन्स्टेबलों के पास हथियार तक नहीं थे। स्वामी जी को गोलियों से भून डाला गया, फिर कुल्हाड़ी से काट डाला गया।
उससे पहले उन पर हुए हमलों में BJD और कॉन्ग्रेस के नेता भी शामिल थे। कॉन्ग्रेस के राज्यसभा सांसद रहे राधाकांत नाइक का उन पर हुए हमलों में हाथ था, जो ‘वर्ल्ड विज़न’ नामक एक ईसाई संस्था हुआ था। जब वो बस से जा रहे थे, तब BJD के ही एक ईसाई लोकसभा सांसद ने उनके रास्ता रोक कर उन पर हमला किया था। हत्या से एक सप्ताह पहले उन्होंने हत्या की धमकी की FIR पुलिस में दायर की थी। उनकी हत्या के बाद स्थानीय एसपी और थाना प्रभारी को सस्पेंड कर के सरकारी कार्रवाई की इतिश्री हो गई।
1999 में ओडिशा में ही हुई थी ईसाई मिशनरी की हत्या, बॉलीवुड ने बना दी फिल्म भी
हिन्दू साधु-संतों की हत्याओं के मामले में भले ही उसके बाद हुई प्रतिक्रिया को हाइलाइट कर के हिन्दुओं को ही दोषी ठहराया जाता है, लेकिन बाकी मजहबों को लेकर ऐसा नहीं होता। इसके लिए हमें जाना होगा 1999 में, जब ग्राहम स्टेंस नाम के एक ईसाई मिशनरी और उसके दो बच्चों की हत्या कर दी गई थी। इसे खूब मीडिया कवरेज मिला और हिन्दुओं को विलेन बनाया गया। बॉलीवुड ने तो 2019 में ‘The Least of These: The Graham Staines Story’ नाम से एक फिल्म भी बना डाली।
सोचिए, 1999 में हुई एक घटना को लेकर बॉलीवुड ने हिन्दुओं को दोषी ठहराते हुए फिल्म बना दिया, लेकिन इसके 9 साल बाद हुई घटना को लेकर कहीं कोई चर्चा ही नहीं हुई। ऑस्ट्रेलिया से आया ग्राहम स्टेंस केंदुझार जिले में सक्रिय था और उस पर दलितों एवं जनजातीय समाज का बलपूर्वक धर्मांतरण कराने के आरोप भी लगे थे। यूपीए-1 की सरकार ने उसकी पत्नी को पद्मश्री भी दिया। 2016 में उसे मदर टेरेसा के नाम वाला एक अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड भी मिला।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती द्वारा जनजातीय समाज के उत्थान के लिए साढ़े 4 दशकों तक किए गए कार्यों के बदले उन्हें क्या मिला? क्या हत्याकांड के बाद भी मीडिया ने उनके योगदान को याद किया अथवा सरकारों ने कोई सम्मान दिया? ग्राहम स्टेंस पर तो ग्रामीणों को बीफ खिला कर धर्मभ्रष्ट करने तक के आरोप थे। आज आपको मीडिया में ग्राहम स्टेंस को याद करते हुए कई आर्टिकल मिल जाएँगे, कई पुस्तकें मिल जाएँगी, लेकिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को लेकर कुछ नहीं मिलेगा।
ग्राहम स्टेंस हत्याकांड को हिन्दुओं को बदनाम करने की एक साजिश भी बताया जाता है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज डीपी वधवा की अध्यक्षता वाली कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि मुख्य आरोपित का किसी संगठन से ताल्लुक नहीं है। लेकिन, अल्पसंख्यक आयोग ने इसे नकारते हुए खुद की जाँच में ‘बजरंग दल’ को दोषी बताया। न्यायिक कमिटी की जाँच में ये भी पाया गया था कि जिस कैंप में हत्या हुई, वहाँ ईसाई धर्मांतरण का काम चल रहा था और बाइबिल वगैरह की शिक्षा दी जा रही थी।
आज ये सवाल उठता है कि माओवादियों के जिन क्षेत्रों में पुलिस-परेशान भी नहीं जा पाता, वहाँ ईसाई मिशनरी बेख़ौफ़ होकर कैसे पहुँच जाते हैं? तो इतिहास के विश्व में इस सवाल पर भी मंथन कीजिए कि जहाँ स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती पैदल भी सुरक्षित नहीं थे, वहाँ ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस कैसे बीवी-बच्चों के साथ बेख़ौफ़ घूमता था? स्वामी जी को न पद्मश्री मिला, न कोई इंटरनेशनल अवॉर्ड और न ही हत्या पर कोई फिल्म ही बनी।