Monday, December 23, 2024
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विभीषण द्वारा स्थापित 1000 स्तंभों वाला श्री रंगनाथस्वामी मंदिर: तुगलक ने 12000 भक्तों का सिर कलम करवा दिया था, रामानुजाचार्य ने यही किया था देह-त्याग

मार्च 1311 में मलिक कफूर की फौज ने पाण्ड्या साम्राज्य में घुसने में कामयाबी पाई और कुलशेखरा पाण्ड्या के बेटे वीर पाण्ड्या को अपने कब्जे में लेने का प्रयास किया, हालाँकि इसमें वो नाकाम रहा। गुस्से में उसने चिदंबरम मंदिर को निशाना बनाया और फिर श्रीरंगम की ओर बढ़ गया। वहाँ पहुँचकर मलिक काफूर की फौज मंदिर में तोड़-फोड़ करने लगी और खजाने को लूट लिया।

भारत को मंदिरों का देश का कहा जाता है। यहाँ विभिन्न स्थापत्य कला के भवनों का निर्माण सदियों से आया है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में श्रीरंगम में स्थित विश्व प्रसिद्ध श्री रंगनाथस्वामी मंदिर ऐसा ही एक प्राचीन मंदिर है। यह मंदिर तिरुचिरापल्ली के श्रीरंगम नामक द्वीप पर बसा है, जो अनुपम कला एवं अद्वितीय सौंदर्य का नमूना है। इसके सौंदर्य की वजह से इसे ‘भूलोक वैकुण्ठ’ कहा जाता है।

भगवान विष्णु को दक्षिण में श्री रंगनाथ स्वामी के नाम से जाना जाता है। श्री रंगनाथस्वामी मंदिर में भगवान विष्णु की शेषनाग की शैय्या पर लेते हुए विशाल मूर्ति है। यह मूर्ति भी उन्हीं को समर्पित है। यह मंदिर 108 दिव्य देश्मों में से एक है। इस मंदिर को ‘श्रीरंगम मंदिर’, ‘भूलोक वैकुण्ठ’, ‘तिरुवरंगम तिरुपति’, पेरियाकोइल’ जैसे कई नामों से जाना जाता है।

इस मंदिर में लकड़ी की एक मूर्ति है। इसे यान वाहन (Yana Vahan) के नाम जाता है। यह मस्टोडोन्टोआडिया (Mastodontoidea) जैसा दिखता है। इसी पर भगवान विष्णु बैठे हुए हैं। मस्टोडोन्टोआडिया एक प्रागैतिहासिक काल का एक विशाल हाथी है, जो लगभग 1.5 करोड़ वर्ष पहले लुप्त हो चुका है।

कहा जाता है कि मंदिर के मुख्य देवता की मूर्ति की आँख में बड़ा हीरा जड़ित था। इसका वजन 189.62 कैरेट यानी 37.924 ग्राम था। फ्रांस के सैनिकों द्वारा युद्ध के दौरान मूर्ति की आँख से हीरा चोरी हो गया था। इसके बाद यह ऑरलोव हीरा मॉस्को क्रेमलिन के डायमंड फंड में संरक्षित है।

मंदिर और स्थापत्य कला

श्री रंगनाथस्वामी मंदिर देश के सबसे विशाल मंदिरों में एक है। इसका क्षेत्रफल लगभग 156 एकड़ यानी 6,31,000 वर्गमीटर है। मंदिर का परिसर 7 प्रकारों और 21 गोपुरम (द्वार) को मिलाकर बना हुआ है। मंदिर के मुख्य गोपुरम को राजगोपुरम के नाम से जाना जाता है। यह द्वार 236 फीट यानी लगभग 72 मीटर ऊँचा है।

अगर मंदिर के वास्तुशिल्प की बता करें तो यह बेहद खूबसूरत है। यह तमिल शैली में बना हुआ है। मंदिर 1000 स्तंभों पर बना है। हालाँकि, आज इसमें 953 स्तंंभ ही दिखते हैं। इसे ग्रेनाइट के पत्थरों से विजयनगर काल (1336-1565) में किया गया था। स्तंभों में जंगली घोड़े और बाघों जैसे जीवों की मूर्तियाँ बनाई गई हैं, जो देखने में प्राकृतिक नजर आते हैं।

मंदिर परिसर में चंद्र पुष्करिणी और सूर्य पुष्करिणी, नाम के दो टैंक हैं। मंदिर का सारा पानी इन्हीं टैंकों में एकत्रित हो जाता। इनमें से हर टैंक की क्षमता करीब 20 लाख लीटर है।

निर्माण निर्माण के पीछे पौराणिक कहानी

कहा जाता है कि इस मंदिर में भगवान राम ने लंबे समय तक पूजा की थी। जब भगवान राम आततायी रावण पर विजय हासिल कर लौट रहे थे, तब उन्होंने यह स्थान विभीषण को सौंप दिया था। जब विभीषण लंका जाने लगे तो भगवान विष्णु रास्ते में उनके समक्ष प्रकट हुए और उस स्थान पर रहने की इच्छा व्यक्त की।

इसके बाद विभीषण ने इस मंदिर में भगवान विष्णु को श्री रंगनाथस्वामी के रूप में स्थापित किया। कहा जाता है कि तब से भगवान विष्णु यहाँ वास करते हैं। इसलिए इसे श्री बैकुण्ठ धाम भी कहा जाता है। इस मंदिर को भगवान विष्णु के 108 मुख्य मंदिरों में से एक माना जाता है।

इस मंदिर के निर्माण को लेकर कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। किवदंती के अनुसार, चोल वंश के एक राजा को एक तोते का पीछा कर रहे थे। तोता उड़ता हुआ घने जंगलों में चला गया। राजा भी तोते के पीछे दौड़ते रहे। इसी दौरान उन्हें भगवान विष्णु की मूर्ति मिली। इसके बाद राजा ने उस स्थान पर इस मंदिर की स्थापना की।

इस मंदिर का उल्लेख संगम युग (100 ईस्वी से 250 ईस्वी) के तमिल साहित्य और शिलप्पादिकारम (तमिल साहित्य के पाँच श्रेष्ठ महाकाव्यों में से एक) में भी किया गया है। यह भी माना जाता है कि इस मंदिर के गर्भगृह को सर्वप्रथम 817 ईस्वी में हंबी नाम की एक नर्तकी ने बनवाया था। सन 894 ईस्वी गंग वंश के शासक थिरुमलायरा ने इसके निर्माण में सहयोग दिया।

10वीं शताब्दी के मिले हैं शिलालेख

हालाँकि, मंदिरों में जो शिलालेख मौजूद हैं उनमें चोल, पांड्या, होयसल और विजयनगर के राजवंशों का उल्लेख किया गया है। इस आधार पर मानाता जाता है कि विभिन्न समय काल में विभिन्न राजाओं ने इस मंदिर का पुनर्रुद्धार और विस्तार कराया था। पुरातात्विक शिलालेखों में इसे 10वीं शताब्दी का बताया गया है।

वैष्णव संप्रदाय के दार्शनिक रामानुजाचार्य वृद्धावस्था में सन 1117 ईस्वी में यहाँ आ गए थे। उस समय राजा विष्णुवर्धन ने रामानुजाचार्य को धन और आठ गाँवों की भूमि दान की। वे करीब 120 वर्ष की आयु तक यहाँ और यही उन्होंने देह-त्याग किया था। माना जाता है कि उनके मूल शरीर को मंदिर में दक्षिण-पश्चिम दिशा के एक कोने में आज भी संभालकर रखा गया है।

ब्राह्मणों के आशीर्वाद से जीता था टीपू सुल्तान

इस मंदिर से मैसूर के कट्टरपंथी मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान का भी गहरा संबंध है। कहा जाता है कि टीपू सुल्तान का यहाँ के ब्राह्मणों से घनिष्ठता थी। युद्धों में टीपू सुल्तान की जीत के लिए यहाँ के ब्राह्मण नियमित पूजा-पाठ करते थे। अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में जीत हासिल होने के बाद टीपू सुल्तान ने मंदिर के ब्राह्मणों को धन्यवाद दिया था। इसके साथ ही उसने इन्हें उपहार में आर्थिक सहयोग भी दिया था।

इतना ही नहीं टीपू सुल्तान का श्रृंगेरी मठ के ब्राह्मणों से घनिष्ठता थी। वह मठ के ब्राह्मणों को धन देता था। बदले में ब्राह्मण उसकी मदद करते थे। कहा जाता है कि वह सिर्फ जीत के लिए ही अनुष्ठान नहीं करता था, बल्कि भूत-प्रेत और जादू-टोना में वह गहरा विश्वास रखता था। इन मामलों वह इनसे मदद लेता था। श्रृंगेरी मठ को वह अक्सर पत्र भी लिखता था। टीपू सुल्तान का प्रधान सलाहकार एवं मंत्री पुरन्नैया नाम का एक ब्राह्मण था।

मंदिर पर पहला इस्लामी हमला

सन 1310 में मलवेरमान कुलशेखरम पाण्ड्या की मृत्यु हो गई। उधर दिल्ली सल्तनत की फौजें दक्षिण भारत पर चढ़ाई करने बढ़ चलीं। अलाउद्दीन खिलजी का गुलाम और उसका प्रमुख कमांडर मलिक काफूर ने 1311 में काकतिया, यादव और होयसाला साम्राज्यों को अपने आधीन कर लिया।

मार्च 1311 में मलिक कफूर की फौज ने पाण्ड्या साम्राज्य में घुसने में कामयाबी पाई और कुलशेखरा पाण्ड्या के बेटे वीर पाण्ड्या को अपने कब्जे में लेने का प्रयास किया, हालाँकि इसमें वो नाकाम रहा। गुस्से में उसने चिदंबरम मंदिर को निशाना बनाया और फिर श्रीरंगम की ओर बढ़ गया। वहाँ पहुँचकर मलिक काफूर की फौज मंदिर में तोड़-फोड़ करने लगी और खजाने को लूट लिया। इसके बाद वो वापस दिल्ली लौट आया।

दूसरा इस्लामी आक्रमण

खिलजी वंश में पंजाब का गर्वनर गाजी मलिक ने तुगलक वंश की स्थापना की और अपने बेटे उलुग खान के नेतृत्व में 1321 में एक विशाल फ़ौज दक्षिण भारत भेजा। यही उलुग खान आगे चलकर मोहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। हालाँकि, इसमें वह असफल रहा। इसके बाद 1323 में एक बार फिर वह हमला किया और इस बार वह श्रीरंगम की ओर बढ़ा।

उलुग खान की फौज श्रीरंगम पहुँची तब वहाँ मंदिरों में एक मेला चल रहा था। श्रीरंगनाथस्वामी की प्रतिमा को मुख्य मंदिर से कावेरी नदी के तट पर स्थित एक मंदिर में ले जाया जा रहा था। 12,000 भक्त इस यात्रा में शामिल थे। जैसे ही वहाँ इस्लामी फौज के आने की खबर फैली, श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर की प्रतिमा को बाहर भेज दिया गया। वो प्रतिमा तिरुमल पहुँची। इधर प्रतिमा ना पाकर उलुग खान ने सभी भक्तों की हत्या करने का आदेश जारी कर दिया। इस तरह 12,000 लोगों का सिर कलम कर दिया गया।

सन 1371 में विजयनगर साम्राज्य ने इस्लामी आक्रान्ताओं के मंसूबों को ध्वस्त कर श्रीरंगम पर अधिकार किया और श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में प्रतिमा को पुनः स्थापित किया। इस तरह 48 वर्ष भगवान अपने मंदिर में पहुँचे। इधर बुक्का राय ने श्रीरंगम के श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर को इस्लामी आक्रान्ताओं से बचा कर इसका पुराना वैभव को वापस लाने में सफलता पाई और उसके बाद विजयनगर के संगम वंश ने भी इसे जारी रखा। 

पेशवाओं के नेतृत्व में हमला

सन 1696 में जब मराठा सैनिकों की एक टुकड़ी ने तमिलनाडु में गिंजी किले पर कब्जा करने जाने के दौरान रास्ते में पड़ने वाले श्रीरंगपटना के खजाने को लूटने की कोशिश की तो वाडेयार राजा ने उन्हें करारी हार दी। 1726 ईस्वी पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में मराठों ने फिर से रंगपट्टनम पर आक्रमण किया। मराठों के भयानक तबाही से डर कर स्थानीय लोगों ने ‘चौथ’ के रूप में राज्य की कुल आय का एक चौथाई देने का वादा किया।

इस दौरान वाडियार राजा को फिरौती भी देनी पड़ी। 1750 ईस्वी में मराठों के फिर आक्रमण के दौरान वाडियार राजा ने फिर से 1 करोड़ रुपए की फिरौती दी। मैसूर साम्राज्य का ज्यादा हिस्सा मराठों के कब्जा में आ गया। इस तरह रंगम की जनता अगल-बगल के क्षेत्रों में पलायन कर गई और रंगपट्टन एक प्रमुख तीर्थ और व्यवसायिक केंद्र के रूप में बुरी तरह तबाह हो गया।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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