Friday, October 11, 2024
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12000 वैष्णव भक्तों के सिर कलम, 48 साल तक भटकते रहे थे भगवान: श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर पर हुए इस्लामी हमलों की दास्ताँ

जैसे ही उलुग खान वहाँ पहुँचा, वो मूर्ति को न पाकर पागल हो गया और उसने 12000 वैष्णव भक्तों का सिर कलम करने का आदेश जारी कर दिया। इस्लामी आक्रान्ताओं से बचने के लिए प्रतिमा को मंदिर के धन के साथ दक्षिण की तरफ भेज दिया। अगले 48 साल तक भगवान अपने मंदिर की प्रतीक्षा में...

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए हुए भूमिपूजन के साथ ही इसके लिए दशकों से चल रहा आंदोलन समाप्त हो गया है। राम मंदिर भूमिपूजन की खासियत ये रही कि यहाँ देश भर के कई पवित्र हिन्दू तीर्थों से मिट्टी और जल लाया गया – कन्याकुमारी से तीनों समुद्रों के संगम का जल, रामेश्वरम की मिट्टी, POK में स्थित शरद पीठ की मिट्टी और कई अन्य स्थलों से भी ये चीजें आईं। श्रीरंगम (श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर) से कावेरी नदी का पवित्र जल भी ले जाया गया। क्या आपको पता है यहाँ इस्लामी आक्रांताओं ने कभी तबाही मचाई थी?

श्रीरंगम की मिट्टी का वहाँ जाना बहुत बड़ी बात है क्योंकि ये वैष्णवजनों के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है। वैष्णव, यानी भगवान विष्णु की उपासना करने वाले हिन्दू। भगवान राम विष्णु के 7वें अवतार हैं। इस पृथ्वी पर 106 वैष्णव दिव्य देशम हैं और श्रीरंगम का श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर उनमें से सबसे पुराना माना जाता है। 12 अलवरों की कृति ‘नलाईरा दिव्य प्रबंधम’ में इन सबका जिक्र मिलता है। ये फिलहाल दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर है, जो अभी सक्रिय है।

इस मंदिर के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को ‘कोविल ओलुगू’ में दर्ज किया गया है। कोविल ओलुगू में इस मंदिर के इतिहास का पूरा विवरण है। काफी बड़ी अवधि में इसका विस्तार किया गया है – चोला साम्राज्य के दौरान इसके इतिहास से लेकर 18वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा इस पर कब्जा किए जाने तक। ये तमिल के मणिप्रवला लिपि में लिखित है। इसे श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर के इतिहास का सबसे पुष्ट स्रोत माना जाता है।

जिस मंदिर का इतना बड़ा इतिहास डॉक्यूमेंट कर के रखा गया हो, आश्चर्य की बात है कि आजकल के किसी भी इतिहासकार ने दिल्ली सल्तनत के दौरान मंदिर पर हुए हमलों को लेकर कुछ नहीं लिखा है और न ही इसका ठीक तरह से अध्ययन किया गया। चोला और पाण्ड्या साम्राज्य के समय श्रीरंगम का श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर पूरी दुनिया के वैष्णव भक्तों का सबसे बड़ा स्थल था। उस समय युद्ध और अनिश्चितता का दौर आता-जाता रहता था लेकिन जो भी सत्ता में रहा, उसने मंदिर के प्रबंधन का अच्छी तरह ध्यान रखा।

श्रीरंगम के श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में पहला इस्लामी हमला

उस समय युद्ध और तनावों के बावजूद किसी ने भी श्रीरंगम को नुकसान नहीं पहुँचाया और न ही इसकी प्रतिष्ठा में कोई कमी आने दी। लेकिन, सन 1310 में मलवेरमान कुलशेखरम पाण्ड्या की मृत्यु हो गई, जिसके बाद उनके बेटों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया। लेकिन, उन्हें ये पता होना चाहिए था कि उसी समय दिल्ली सल्तनत की फौजें दक्षिण भारत पर चढ़ाई करने बढ़ रही थी।

मलिक कफूर, जो अलाउद्दीन खिलजी का सबसे प्रमुख दास फौज कमांडर था, 1311 में उसने काकतिया, यादव और होयसाला साम्राज्यों को अपने आधीन कर के उन्हें दिल्ली सल्तनत के अंदर आने के लिए मजबूर कर दिया। इसके बाद उसकी नजर पाण्ड्या साम्राज्य की ओर पड़ी, जिसे आमिर खुसरो ने बार-बार मालाबार कह कर संबोधित किया है। यहाँ के धन-वैभव से दिल्ली सल्तनत की जीभ लपलपाने लगी।

आखिरकार मार्च 1311 में मलिक कफूर की फौज ने पाण्ड्या साम्राज्य में घुसने में कामयाबी पाई और कुलशेखरा पाण्ड्या के बेटे वीर पाण्ड्या को अपने कब्जे में लेने का प्रयास किया। वो लोग थोप्पूर से होकर वहाँ घुसे थे। हालाँकि, वो ऐसा करने में असफल रहे और उन्होंने गुस्से में चिदंबरम मंदिर को निशाना बनाया और फिर श्रीरंगम की ओर बढ़ गए। वो श्रीरंगम में उत्तरी छोर से घुसे थे। श्रीरंगम उस समय अपने धन-वैभव के लिए भी प्रसिद्ध था।

वहाँ घुसते ही मलिक कफूर की फौज ने वैष्णव संतों के साथ अत्याचार शुरू किया और उन्हें आसानी से हरा दिया। इसके बाद मंदिर में तोड़-फोड़ शुरू हुई और खजाना लूट लिया गया। मंदिर से कई बहुमूल्य चीजें चोरी कर ली गईं। इसके बाद मई 1311 में वो वापस दिल्ली की तरफ कूच करने लगा। हालाँकि, पाण्ड्या के सत्ताधीशों ने अगले एक दशक में श्रीरंगम और श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर का पुराना धन-वैभव वापस लाने में कामयाबी पाई।

जब मारे गए 12000 हिन्दू और 48 साल तक भटकते रहे भगवान: दूसरा हमला

1320 में पंजाब के गवर्नर गाजी मलिक की मदद से राज्य के वफ़ादारों ने ही खिलजियों को सत्ता से उखाड़ फेंका। भारतीय-तुर्की दासों के वंशज मलिक ने इसके बाद गियाशुद्दीन तुगलक के नाम से गद्दी पर बैठ कर तुगलक वंश की स्थापना की। खिजलियों के अंतर्गत डेक्कन में कुछ राज्य थे लेकिन तुगलक ने उन पर सम्पूर्ण रूप से कब्ज़ा करने का मन बनाया। वो वहाँ पूर्ण फौजी नियंत्रण चाहता था।

उसने 1321 में एक बहुत ही विशाल फ़ौज भेजी, ताकि पूरी दक्षिण भारत पर कब्ज़ा कर सके। इस फ़ौज का नेतृत्व उसका सबसे बड़ा बेटा उलुग खान कर रहा था, जो बाद में मोहम्मद बिन तुगलक के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। हालाँकि, 1321 में उसका ये सपना ध्वस्त हो गया क्योंकि तुगलकों की फ़ौज को वारंगल में बुरी हार मिली। इसके बाद भी 2 साल बाद उसने वारंगल फतह कर के मालाबार की और कूच किया।

तमिलनाडु को ही तब मालाबार के नाम से जाना जाता था। पहले तो उसने तोडाइमंडलम पर कब्ज़ा किया और उसके बाद वो श्रीरंगम की ओर बढ़ा। यह एक ऐसा आक्रमण था, जिसकी चर्चा वैष्णव जगत के कई साहित्यों में होती है। श्रीरंगम के श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में उलुग खान द्वारा मचाई गई तबाही का जिक्र गुरूपरम्पराई, प्रपन्नमित्रं और कोविल ओलुगू में विस्तृत रूप से मिलती है। ये सभी आक्रमण की अवधि 1323 ही बताते हैं।

जब उलुग खान की फौज श्रीरंगम पहुँची, तब वहाँ मंदिरों में एक मेला और त्योहार चल रहा था। श्रीरंगनाथस्वामी की प्रतिमा (उरचवार आझागिया मानवला पेरूमाल) को मुख्य मंदिर से कावेरी नदी के तट पर स्थित एक मंदिर में ले जाया जा रहा था। 12000 वैष्णव भक्त इस यात्रा में शामिल थे। जैसे ही वहाँ इस्लामी फौज के आने की खबर फैली, श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर के मुख्य पुजारी श्रीरंगराजनाथम वदुलदेशिका ने यात्रा को समाप्त कर दिया।

उन्होंने प्रतिमा को मंदिर के धन के साथ दक्षिण की तरफ भेज दिया। इसके बाद जैसे ही उलुग खान वहाँ पहुँचा, वो मूर्ति को न पाकर पागल हो गया और उसने 12,000 वैष्णव भक्तों का सिर कलम करने का आदेश जारी कर दिया। इसे कोविल उलुगू में एक ऐसे आक्रमण के रूप में बताया गया है, जिसने 12,000 सिर का बलिदान ले लिया। इस्लामी आक्रान्ताओं से बचने के लिए श्रीरंगनाथस्वामी की प्रतिमा मंदिर-मंदिर घूमती रही।

अंत में वो प्रतिमा तिरुमल पहुँची, जहाँ उसे कोई खतरा नहीं था और वहाँ वो सुरक्षित थी। इस्लामी आक्रान्ताओं से बचने के लिए प्रतिमा को 48 वर्ष अपने मंदिर से बाहर बिताने पड़े। इसके बाद 1371 में विजयनगर साम्राज्य ने इस्लामी आक्रान्ताओं के मंसूबों को ध्वस्त कर श्रीरंगम के श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर में प्रतिमा को पुनः स्थापित किया। दूसरा वाला आक्रमण भयंकर इसलिए थे क्योंकि तुगलकों ने दिल्ली से मलाबार पर नियंत्रण कर लिया था।

एक दशक तक वो ऐसे ही राज करते रहे। इसे वैष्णव इतिहास का सबसे अँधकार भरा युग माना जाता है। इस्लामी आक्रांता उलुग खान का एक प्रतिनिधि तो श्रीरंगम में ही रहता था और उसने पवित्र श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर के सामने ही अपना घर बना लिया था। उसने श्रीरंगम के आसपास के गाँवों पर कुछ वर्ष तक राज किया। कहते हैं कि मंदिर में रहते-रहते उसे तरह-तरह की बीमारियाँ हो गई थीं। बाद में वो कन्नूर गया, जहाँ उसने पॉयसलेसवार मंदिर को नुकसान पहुँचाया।

इधर बुक्का राय ने श्रीरंगम के श्रीरंगनाथस्वामी मंदिर को इस्लामी आक्रान्ताओं से बचा कर इसका पुराना वैभव को वापस लाने में सफलता पाई और उसके बाद विजयनगर के संगम वंश ने भी इसे जारी रखा। लेकिन, वामपंथी इतिहासकारों ने इन घटनाओं को हमारी किताबों में जगह नहीं दी क्योंकि वो चाहते थे कि हमें गलत इतिहास पढ़ाया जाए। इस्लामी आक्रान्ताओं के कृत्यों को छिपाने की कोशिश हुई।

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Satish Viswanathan
Satish Viswanathan
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