लोक आस्था के महापर्व छठ को लेकर आजकल तरह-तरह के सवाल पूछे जाते हैं। अब ये केवल बिहार में मनाया जाने वाला स्थानीय पर्व नहीं रहा, बल्कि वैश्विक हो चुका है। इसी बीच छठ को लेकर पूछा जाता है कि क्या ये हिन्दू धर्म में एक सर्व-स्वीकार्य त्योहार है? क्या इसका इतिहास सचमुच बहुत पुराना है? शास्त्रों में इसका कहाँ जिक्र है? यहाँ हम इन सबका जवाब तलाशने का प्रयास करेंगे, साथ ही एक बड़ी ही रोचक कथा को भी आप तक लेकर आएँगे।
छठ पर्व में होता क्या है? अस्ताचलगामी और उदयीमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है, जल में खड़े होकर। निर्जला उपवास का व्रत रखा जाता है। ये भगवान सूर्य की उपासना का पर्व है। सूर्य वैदिक देवता हैं। वेदों में उन्हें ब्रह्माण्ड का नेत्र कहा गया है, अर्थात उनके बिना प्राणी देखने को असमर्थ होंगे। चूँकि वो प्रकाश के स्रोत हैं, समस्त जन-जीवन के संचालन के लिए उनका होना ज़रूरी है – इसीलिए कृतज्ञ भाव से वेदों में उनकी स्तुति की गई है।
ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 7वें सूक्त के तीसरे मन्त्र को देखिए – ‘इन्द्रो॑ दी॒र्घाय॒ चक्ष॑स॒ आ सूर्यं॑ रोहयद्दि॒वि। वि गोभि॒रद्रि॑मैरयत्॥’, जिसमें बताया गया है कि परमेश्वर ने सूर्य का निर्माण किया, ताकि हम सभी पदार्थों को देख सकें। इसमें स्पष्ट लिखा है कि सूर्य ही पृथ्वी पर से जल को ऊपर खींच कर पवन के द्वारा स्थापित करते हैं और संसार में वर्षा बरसाते हैं। सोचिए, आज हम वॉटर सायकल पढ़ते हैं और ये चीजें बताई जाती हैं। हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पहले वेदों में ये चीजें लिख दी थीं।
ये तो सिर्फ एक उदाहरण था, वेदों में कई बार भगवान भास्कर का जिक्र है। छठ का पर्व 4 दिनों का होता है – नहाय-खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और प्रातः अर्घ्य। पहले दिन व्रती महिलाएँ (ये व्रत पुरुष भी करते हैं) सुबह स्नान कर के सामान्यतः चावल और लौकी की सब्जी कहती हैं। दूसरे दिन उपवास के बाद शाम को गुड़ और साठी के चावल की खीर का भोग लगाया जाता है और व्रती भगवान सूर्य का ध्यान धरती हैं। फिर प्रसाद ग्रहण करती हैं। संध्या अर्घ्य वाले दिन भी निर्जला उपवास होता है।
यानी, व्रती जल भी ग्रहण नहीं कर सकतीं। शाम के समय जल में खड़े होकर अस्त होते सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया जाता है। अगले दिन सुबह उदित हो रहे सूर्य को अर्घ्य के साथ पर्व का समापन होता है और लोगों में प्रसाद का वितरण किया जाता है। ये व्रत निर्जला होने के कारण कठिन है, कई लोग दण्डवत करते हुए भी नदी के घाट तक जाते हैं। तालाब या पानी के छोटे पोखर बना कर भी व्रत किए जाते हैं। छठी मैया के गीत गए जाते हैं, जिन्हें भगवान सूर्य की बहन माना गया है।
महाभारत में एक कथा है, जो छठ पर्व की तरफ इशारा करती है। असल में जुए में सब कुछ हारने के बाद पाँचों पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी और माँ कुंती के साथ वन को जाने को उद्यत थे, उस दौरान कुछ ब्राह्मण भी स्नेहवश उनके साथ लग गए। धर्मराज युधिष्ठिर बड़े भाई थे, अतः उन्हें ये चिंता खाए जा रही थी कि जंगल में वो अपने भाइयों और माँ-पत्नी का भरण-पोषण कैसे करेंगे। अन्न कहाँ से लाएँगे। राजमहल से अचानक वन वाला जीवन आसान नहीं होता, रहने-खाने की समस्या खाती है, वन में साँप, कीड़े-मकोड़े और जानवरों का खतरा होता है।
ऐसे में युधिष्ठिर ने उनसे आग्रह किया कि वो उनका सत्कार नहीं कर सकते, ऐसे में उन्हें वापस लौट जाना चाहिए। इस पर ब्राह्मण कहने लगे कि वो अपने लिए भोजन की व्यवस्था करने में सक्षम हैं, वो तो बस साथ चल कर युधिष्ठिर और उनके परिवार को कथाएँ सुनाएँगे, उनका उत्साहवर्धन करेंगे। युधिष्ठिर असमंजस में पड़ गए। पहुँच गए अपने पुरोहित धौम्य के पास। इसी दौरान धौम्य ने उन्हें भगवान सूर्य की आराधना करने का उपदेश दिया, ताकि वन में उनके लिए अन्न और भोजन की समस्या नहीं रहे।
जिस घटना की हम बात कर रहे हैं, वो महाभारत के वन पर्व के तीसरे अध्याय में वर्णित है। पुरोहित धौम्य के पास जाकर युधिष्ठिर ने पूछा कि कई ब्राह्मण उनके साथ चल रहे हैं, ऐसे में वो उनके पालन-पोषण में सक्षम नहीं हैं, उन्हें क्या करना चाहिए? तब धौम्य ने उन्हें बताया कि प्राचीन काल में भगवान सूर्य ने भूख से व्याकुल जनता की समस्या का समाधान किया था। उन्होंने समझाया कि उत्तरायण में धरती का रस खींच कर सूर्य ने इन्हें दक्षिणायन में धरती पर बरसाया, जिससे फसलों-औषधियों का उत्पादन हुआ।
फिर वो इसमें चन्द्रमा के योगदान की भी बात करते हैं कि कैसे उसके माध्यम से आने वाली सूर्य की किरणें उन फसलों, औषधियों को पुष्ट करती हैं। उत्तरायण अर्थात जनवरी से लेकर जून, और दक्षिणायन अर्थात जून से जनवरी। दोनों 6-6 महीने का होता है। सूर्य की किरणें जब कर्क रेखा पर सीधी पड़ती हैं और जब मकर रेखा पर सीधी पड़ती हैं – इन दोनों के बीच की अवधि ही दक्षिणायन कहलाती है। वहीं उत्तरायण में सूर्य उत्तरी गोलार्ध में होते हैं।
उत्तरायण खत्म होते ही वृष्टि शुरू हो जाती है। बारिश के कारण फसलें अच्छी होती हैं। धरती को पोषण मिलता है, जमीन उपजाऊ बनती है। आज विज्ञान भी मानता है कि बारिश में एक प्रतिशत ही सही, लेकिन चन्द्रमा का भी योगदान है। धौम्य ने महाभारत में मेघ को सूर्य का तेज कहा है। आशय ये है कि सूर्य की गर्मी से धरती पर से उठ कर उच्च ऑल्टीट्यूड पर स्थित होने वाले बादल ही बरसते हैं। सूर्य के बिना ये संभव नहीं। धौम्य ने इस दौरान युधिष्ठिर को भगवान सूर्य के 108 नाम बताए और फिर उनकी आराधना की सलाह दी।
इसके बाद युधिष्ठिर स्नान कर के स्वयं को शुद्ध करते हैं, अपनी वाणी को वाणी को वश में किया, चित्त को एकाग्र किया, इन्द्रियों को संयमित किया और फिर सिर्फ वायु पीकर रहने लगे। अर्थात, निर्जला व्रत। सूर्य के सम्मुख खड़े होकर उन्होंने उपासना की। सूर्य की स्तुति करते हुए उन्होंने उन्हें प्राणियों की आत्मा और जगत का नेत्र बताया। वेदों में यही कहा गया है। युधिष्ठिर ने सूर्य को समस्त ज्योतियों का स्वामी बता कर और समस्त सात्विक गुणों का अधिष्ठाता बता कर उनकी स्तुति की है।
युधिष्ठिर ने सूर्य को सांख्य योगियों का प्राप्तव्य और कर्म योगियों का आश्रय बताया गया है। सांख्य एवं कर्म योगी बुद्ध के जन्म के हजारों वर्ष पूर्व से अस्तित्व में है और इन पर ऋषिगण शोध में रत रहते थे। पंच महाभूत से बनी प्रकृति और पुरुष अर्थात जीवात्मा – जड़ और चेतन के संयोग पर शोध सांख्य से ही निकला है। इस जगत के 3 गुणों सत्, रजस् तथा तमस् का अध्ययन कर के शंकाओं का समाधान किया गया। इसी तरह कर्म सिद्धांत कहता है कि हमारा स्वरूप बहुत व्यापक है और हम जन्म-जन्मांतर से कर्म-फल चक्र में फँसे हुए हैं।
इसमें आत्मा के अमर होने का सिद्धांत दिया गया और हमारी क्रियाएँ आत्मा से चिपकी हुई हैं। युधिष्ठिर इसीलिए सूर्य की उपासना करते समय सांख्य और कर्म का जिक्र करते हैं। नवबौद्धों को समझ नहीं आएगा। अतः, साफ़ है कि सूर्य की उपासना का छठ पर्व वैदिक काल से ही अस्तित्व में है। युधिष्ठिर ने भी षष्ठी और सप्तमी को ही ये व्रत किया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें भगवान सूर्य ने तांबे का ‘अक्षय पात्र’ प्रदान किया, जिसके कारण जंगल में पांडवों को अन्न की समस्या नहीं आई।
आखिर ये अन्न का ‘अक्षय पात्र’ क्या हो सकता है? पांडव जहाँ भी जाते थे, वहाँ उन्हें खुद से अन्न उपजा कर खाना पड़ा होगा। 12 वर्षों का वनवास छोटी अवधि नहीं होती है। जंगल में वो जहाँ भी गए, वहाँ जमीन को उपजाऊ बना कर उस पर खेती की, अन्न उपजाया और खाया। सूर्य के सिद्धांत को समझना, चन्द्रमा के प्रकाश के महत्व को जानना और मौसम चक्र का ज्ञान – उत्तम कृषि के लिए पांडवों को धौम्य का ये ज्ञान ज़रूर काम आया। उन्होंने ऋषियों की सेवा की, खुद के लिए भी भोजन का इंतजाम किया।
सार ये कि सनातन धर्म के हर पर्व-त्योहार के पीछे विज्ञान है। छठ पर्व भी ऐसे समय में आता है जब ठंड का मौसम दस्तक दे रहा होता है। अर्घ्य में इस्तेमाल की जाने वाली चीजें मौसमी होती हैं। हम भगवान सूर्य से प्रार्थना करते हैं कि वो अपनी कृपा हम कर बनाए रखें। हम भोजन और प्रकाश के लिए उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। प्रकृति के सबसे करीब है हमारा धर्म, इसीलिए हमारे हर त्योहार में प्रकृति रची-बसी है। छठ का व्रत ठंड का मौसम आने से पहले शरीर को शुद्ध करने और नए मौसम के लिए ढालने के लिए भी तैयार करता है।