Sunday, November 17, 2024
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गैर-ब्राह्मण को गुरु बनाया, महिलाओं को सशक्त किया: जानिए कौन थे ‘Statue Of Equality’ वाले संत रामानुज

उन्होंने हर वर्ग के लोगों के बीच 'मुक्ति और मोक्ष' के मंत्रों के बारे में सार्वजनिक रूप से बताया। उनका कहना था कि ये चीजें गोपनीय नहीं रहनी चाहिए, सभी वर्गों के लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए।

हैदराबाद में संत रामानुजाचार्य (Ramanujacharya) की प्रतिमा का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों होने वाला है, जिसे ‘Statue Of Equality’ नाम दिया गया है। 11वीं सदी के महान दार्शनिक और समाज सुधारक रामानुज (Ramanuja) की ये प्रतिमा 216 फ़ीट की है। कर्नाटक के रंगा रेड्डी जिले के मुचिंतल स्थित ‘चिन्ना जीयर स्वामी आश्रम’ में इस प्रतिमा का निर्माण किया गया है। 1017 ईस्वी में जन्मे संत रामानुजाचार्य की 1000वीं जन्म जयंती पर ये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है।

इस प्रतिमा को ‘पंचलौह’ (सोना, चाँदी, ताम्बा, पीतल और जस्ता) से तैयार किया गया है। धातुओं से बनी विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमाओं में इसका स्थान होगा। 54 फिट ऊँचे ‘भद्रा वेदी’ को इसका आधार बनाया गया है। उसके अंदर एक वैदिक डिजिटल लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर भी है। इसमें प्राचीन सनातन ग्रंथों से लेकर रामानुजाचार्य के जीवन से सम्बंधित दस्तावेज होंगे। आइए, आज हम आपको बताते हैं कि भक्ति काल को नई दिशा देने वाले संत रामानुजाचार्य थे कौन और उनका जीवन कैसा था।

संत रामानुजाचार्य का जीवनकाल 120 वर्षों का था। उन्होंने 1137 ईस्वी में अपने शरीर का त्याग किया था। वैष्णव समाज के प्रमुख संतों में उनका नाम लिया जाता है। 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने विद्वान यादव प्रकाश को कांची में अपना गुरु बनाया था। हालाँकि, वो अपने गुरु के ‘अद्वैत वेदांत’ के सिद्धांतों से सहमत नहीं थे। उन्होंने तमिल के ‘अलवर’ परंपरा के संतों नाथमुनि और यमुनाचार्य के नक्शेकदम पर चलने का निर्णय लिया। उन्हें ‘विशिष्ट अद्वैत’ सिद्धांत का जनक माना जाता है।

रामानुजाचार्य ने जाति विभेद के खिलाफ अभियान चलाया और महिलाओं को सशक्त करने के लिए जीवन भर परिश्रम किया। इस्लामी आक्रांता जब भारत में पाँव पसारने के लिए बेताब थे, ऐसे समय में उन्होंने भारत की जनता के भीतर की धार्मिक भावनाओं को और प्रबल किया। उन्होंने हर वर्ग के लोगों के बीच ‘मुक्ति और मोक्ष’ के मंत्रों के बारे में सार्वजनिक रूप से बताया। उनका कहना था कि ये चीजें गोपनीय नहीं रहनी चाहिए, सभी वर्गों के लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए।

खुद बाबासाहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने लिखा है कि हिन्दू धर्म में समता की दिशा में संत रामानुजाचार्य ने महत्वपूर्ण कार्य किए और उन्हें लागू करने का प्रयास भी किया। उनकी 1000वीं जयंती पर डाक टिकट जारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जिक्र भी किया था। उन्होंने गैर-ब्राह्मण कांचीपूर्ण को अपना गुरु माना। उनके भोजन करने के पश्चात पत्नी द्वारा घर को शुद्ध करते हुए देख कर वो विचलित हुए। संन्यास लेकर उन्होंने जनसेवा को अपना ध्येय बना लिया।

डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं, “तिरुवल्ली में एक दलित महिला के साथ शास्त्रार्थ के बाद उन्होंने उक्त महिला से कहा कि आप मेरे से ज्यादा ज्ञानी हैं। इसके बाद संत रामानुजाचार्य ने उक्त महिला को दीक्षा दी और उसकी मूर्ति बना कर मंदिर में स्थापित किया। उन्होंने धनुर्दास नाम के पिछड़े समाज के व्यक्ति को अपना शिष्य बनाया। नदी में स्नान करने के बाद वो अपने इसी शिष्य के माध्यम से वापस आते थे।” अब समता का सन्देश देने वाले रामानुजाचार्य की प्रतिमा पूरे विश्व को उनके सिद्धांतों का साक्षात्कार करने की प्रेरणा देगी।

रामानुजाचार्य ने वेदों की परंपरा को भक्ति से जोड़ा। जगद्गुरु शंकराचार्य के बाद उनका ही नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उन्होंने भक्ति आंदोलन से पिछड़े समाज को जोड़ कर कुलीन वैदिक आंदोलन के साथ उसके सेतु का निर्माण किया। उनका जन्म मद्रास से कुछ दूरी पर स्थित ‘पेरबुधूरम’ में हुआ था। उनके पिता का नाम आसुरीदेव दीक्षित और माता का नाम काँतिमति था। उनका मामा शैलपूर्ण एक संन्यासी थे और माँ के नाना यमुनाचार्य एक बड़े संत थे।

8 वर्ष की उम्र में जनेऊ संस्कार के साथ ही उन्हें वेदों की शिक्षा देने का कार्य शुरू कर दिया गया था। बाल्यकाल में ही सब उनकी बुद्धिमत्ता और स्मरणशक्ति के कायल हो गए थे। 16 वर्ष की उम्र में रक्षाम्बा नामक की लड़की से उनका विवाह हुआ था। उन्हें वैष्णव संप्रदाय की दीक्षा दी गई। श्रीरंगम में अपने निधन से पहले यमुनाचार्य ने रामानुजाचार्य के लिए तीन सन्देश छोड़े थे – वेदांत सूत्रों के भाष्य की रचना करो, आलवारों के भजन संग्रह को संकलित कर ‘पंचम वेद’ के नाम से लोकप्रिय बनाओ और मुनि पराशर के नाम पर किसी विद्वान का नामकरण करो।

इसके बाद उन्होंने कांची लौट कर उन्होंने द्रविड़ भाषा में आलवारों द्वारा रचित 4000 भजन का एक संग्रह तैयार किया। यामुनाचार्य की रिक्त गद्दी पर उन्हें ही स्थान मिला। भगवान रंगनाथ के मंदिर के प्रबंधन की पूरी जिम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गई, जिसे उन्होंने अच्छी तरह सँभाला। मंदिर की पूरी आय को वो मंदिर के लिए ही खर्च करते थे और खुद भिक्षा से जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें कुछ रहस्य मंत्र इस शर्त पर मिले थे कि वो किसी को बताएँगे नहीं, लेकिन एक सभा में उन्होंने ये मंत्र जनता के लिए सार्वजनिक कर दिया।

उन्होंने कहा कि जब इस मंत्र से स्वर्ग प्राप्त होता है तो ये सभी को सुनना चाहिए। वो इसके लिए संतों द्वारा दंड के लिए तैयार हो गए। उन्होंने वेदांत सूत्रों पर ‘श्री भाष्य’ की रचना की और अपने एक शिष्य कुरेश के बेटे का नाम पराशर रखा। उन्होंने भक्ति को मुक्ति का साधन बताते हुए इसे ज्ञान के ऊपर तरजीह दिया। उन्होंने भारत यात्रा कर के कई विद्वानों से सशस्त्र किया। जब वो श्रीरंगम वापस लौटे, तब तक भारत के कई हिस्सों में उनके असंख्य शिष्य हो गए थे।

उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता पर ही भाष्य लिखा। ‘वेदांत सार’ में उन्होंने अपने सिद्धांतों को आम लोगों को सरल भाषा में समझाया। उन्होंने ईश्वर को सगुण माना और ये भी कहा कि उसमें कोई अवगुण नहीं है। उन्होंने ईश्वर को श्रेष्ठों से भी श्रेष्ठ करार दिया। उन्होंने कहा कि दोषहीन, शुद्ध, सर्वश्रेष्ठ, निर्मल और एकरूप ब्रह्म को जानने वाले को ही सच्चा ज्ञानी बताया। उन्होंने शंकराचार्य के कई सिद्धांतों का खंडन कर के अपने सिद्धांत भी दिए। सनातन परंपरा में ऐसा होता रहा है।

रामानुजाचार्य ने अपने बोधयानवृत्ति को कंठस्थ करने वाले एक शिष्य की मदद से श्रीभाष्य की रचना की थी। उत्तर भारत में श्रीराम की आराधना के पीछे भी उनका योगदान माना जाता है। उनकी ही शिष्य परंपरा की 14वीं पीढ़ी में संत रामानंद हुए थे, जिनके शिष्य कबीर थे। रामानुज तमिल ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते थे। कांचीपुरम के वरदराज पेरुमल मंदिर में वो वर्षों तक पुजारी रहे। वो जीवन भर वैष्णव समाज के स्तंभ रहे। ईर्ष्या और उनके बढ़ते प्रभाव के कारण कई बार उनकी हत्या की भी कोशिश हुई।

रामानुजाचार्य की 1000वीं जयंती उत्सव के मौके पर 2 फरवरी से समारोह का आयोजन किया जाएगा। इसे ‘रामानुज सहस्राब्दी समारोहम’ नाम दिया गया है। इस मौके पर रामानुजाचार्य की दो मूर्ति का अनावरण किया जाएगा। 216 फीट ऊँची मूर्ति सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल और जस्ते की बनी हुई है। जबकि दूसरी मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाएगी। जो रामानुजाचार्य के 120 सालों की यात्रा की याद में 120 किलो सोने से निर्मित की गई है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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