Sunday, November 17, 2024
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बॉलीवुड की रीत पुरानी: ‘उन्हें’ रखो सिर-माथे पर, हिंदुओं की भावना ठेंगे पर

दीपिका ने सीएए, हैदराबाद एनकाउंटर, निर्भया फ़ैसला और मुस्लिमों के आतंक पर कुछ नहीं बोला। लेकिन चूँकि उनकी फ़िल्म का रिलीज डेट नजदीक है, जेएनयू में उनकी उपस्थिति ने वो काम कर दिया, जो उनके बयान देने से भी नहीं होता।

ख़बरों का क्या है! कुछ पुष्ट सूत्रों से आती हैं तो कुछ अपुष्ट सूत्रों से। फ़िल्मों का सही है। हर शुक्रवार कोई न कोई आ ही जाती है। अब आने वाले शुक्रवार (जनवरी 10, 2020) को ही ले लीजिए। दक्षिण के 70 वर्षीय महानायक रजनीकांत उस दिन ‘दरबार’ लेकर आ रहे हैं। इसमें वे सुनील शेट्टी से फाइट करते दिखेंगे। उसी दिन हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार अजय देवगन मराठा योद्धा पर बनी फ़िल्म ‘ताण्हाजी’ लेकर आ रहे हैं। जहाँ रजनीकांत अपनी फ़िल्मों का प्रचार करने के लिए किसी शो वगैरह में जाते नहीं, अजय देवगन ने हर बड़े टीवी शो में जाकर अपनी फ़िल्म का प्रचार किया है। अजय देवगन आक्रामक प्रचार के लिए जाने भी जाते हैं।

हालाँकि, यहाँ बात हम इन दो फ़िल्मों की नहीं करेंगे, क्योंकि इन दो बड़ी फ़िल्मों के साथ एक तीसरी फ़िल्म भी आ रही है। उसका नाम है- छपाक। फ़िल्म की कहानी वास्तविक बताई गई है। एसिड अटैक का सामना करने वाली हमारे देश की बेटी लक्ष्मी अग्रवाल की कहानी इस फ़िल्म में दिखाई गई है। लक्ष्मी को क्या कुछ झेलना पड़ा, वो जान कर कोई भी रो पड़ेगा। उनका पूरा चेहरा जल गया। फिर भी वो लड़ीं, एक योद्धा की तरह। तमाम मुश्किलों का सामना कर वो महिला सशक्तिकरण की आवाज़ बन कर उभरीं।

बायोपिक बॉलीवुड का फैशन रहा है और मात्र 1 रुपए में अपनी कहानी देने वाले मिल्खा सिंह पर बनी फिल्मों ने भी 100 करोड़ की कमाई की है। मेरीकॉम पर बनी फ़िल्म ने भी अच्छी-ख़ासी कमाई की। लेकिन, ठीक उसी तरह वास्तविकता पर फ़िल्में बनाने का दावा कर सच्चाई से छेड़छाड़ करना भी बॉलीवुड का फैशन रहा है। जब फ़िल्म के बारे में चर्चा नहीं हो रही हो तो जबरदस्ती उसे विवादों में घसीटने का भी एक ट्रेंड रहा है। जब टॉपिक कंट्रोवर्सियल होता है तो उस पर चर्चा होती है, वो लोगों तक पहुँचता है। ‘छपाक’ का सामना भी दो बड़ी फ़िल्मों से है।

सबसे पहले ये जानते हैं कि लक्ष्मी अग्रवाल के साथ हुआ क्या था? किशोरावस्था में लक्ष्मी भी आम लड़की की तरह थी। घंटों ख़ुद को आईने में देखती थीं, क्योंकि उनका सपना था कि वो टीवी पर आए। 32 वर्ष के नईम ख़ान ने 15 साल की लक्ष्मी पर सिर्फ़ इसीलिए तेज़ाब फेंक दिया क्योंकि उसने शादी से इनकार कर दिया था। नईम उर्फ़ गुड्डू लगातार एसएमएस कर लक्ष्मी को परेशान करता था। लक्ष्मी की माँ तक को यकीन नहीं हुआ कि नईम ने ऐसा किया है, क्योंकि नईम जान-पहचान वाला था। वो लक्ष्मी की दोस्त का भाई था। लक्ष्मी ने कविताएँ लिखीं, फैशन को लेकर दुनिया के नजरिए को बदला, टीवी पर आईं और एसिड अटैक पीड़ितों के लिए उन्होंने अभियान चलाया।

जब फ़िल्म ‘छपाक’ के वास्तविकता से प्रेरित होने और सच्ची घटना पर आधारित होने की बात कही जाती है, तब ये तो पूछा जाएगा कि इस घटना के दोषियों को इसमें किस रूप में दिखाया गया है। सिनेमा वाले ऐसे किसी भी विवाद में नहीं पड़ना चाहते, जिससे उन्हें इस बात का ख़तरा हो कि उनके ख़िलाफ़ एक भी, एक भी मुस्लिम सड़क पर निकल कर विरोध-प्रदर्शन कर सकता है। अभी हमने देखा कि फराह ख़ान, रवीना टंडन और भारती सिंह को रोमन कैथोलोक बिशप से मिल कर माफ़ी माँगनी पड़ी, क्योंकि ईसाई समुदाय उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा था। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगने से भी काम नहीं चला तो उन्होंने लिखित में अलग-अलग माफ़ीनामा सौंपा। क्यों सौंपा? क्योंकि वो विवादों से दूर भागना चाहते थे। वो ऐसा क्यों चाहते थे?

क्योंकि विवाद ईसाई समुदाय से जुड़ा था। लेकिन जैन मुनि तरुण सागर पर विवादित टिप्पणी करने वाला संगीतकार तब उनकी चौखट पर पहुॅंचा जब उसे पुलिसिया कार्रवाई का डर सताने लगा। लेकिन, जब मामला ईसाई या मुस्लिम धर्म से जुड़ा रहता है तो इन्हें माफी मॉंगने में सेकेंड भर देरी नहीं लगती। विवाद मुस्लिम अथवा ईसाई समुदाय से जुड़ा हो अथवा उनके विरोध का डर हो तो एक भी बॉलीवुड सितारा रिस्क नहीं लेना चाहता। वहीं जब बात बहुसंख्यक समुदाय की हो, तब लाख प्रदर्शनों के बावजूद वो माफ़ी नहीं माँगते और दिखाते हैं कि ‘देखो, हम उपद्रवियों के सामने नहीं झुक रहे।’ वो ऐसा क्यों करते हैं?

जब विश्वरूपम में कमल हासन दिखाते हैं कि आतंकी इस्लामी टोपी पहने गोलियाँ चला रहे हैं तो उन्हें इतना परेशान किया जाता है कि वो देश छोड़ कर जाने की बातें करने लगते हैं। ‘चक दे इंडिया’ में मीर रंजन नेगी को कबीर ख़ान बना दिया जाता है। पूरा लब्बोलुआब ये है कि जब किसी ने अच्छा कार्य किया हो तो उसे हिन्दू से मुस्लिम बनाने में बॉलीवुड वालों को कोई समस्या नहीं होती। लेकिन, जब किसी ने कोई बुरा कार्य किया हो तो उसके किरदार को मुस्लिम से हिन्दू बना दिया जाता है। क्यों? क्योंकि मामला ‘उनका’ हो तो रिस्क नहीं लेना है।

अगर आप सोच रहे हैं कि ये सब नया है तो शायद आप ग़लतफहमी में हैं। दरअसल, ये तो बॉलीवुड का ट्रेंड रहा है। सलीम ख़ान और जावेद अख्तर की कहानियों में ढोंगी, लालची, चाटुकार, लुटेरा और ठग जैसे किरदारों को पंडित दिखाया जाता था। ठीक इसके उलट, देश के लिए क़ुरबानी की बात करने वाले, वफ़ादार दोस्त, दूसरों का भला करने वाला और कुछ ज्यादा ही ईमानदार किरदारों को मुस्लिम दिखाया जाता था। ये ट्रेंड शुरू से चला आ रहा है। ‘पद्मावत’ में एक पंडित को चाटुकार और गद्दार दिखाया गया। ‘शोले’ में एक ‘बेचारा’ मौलवी, जो अपने बेटे को ‘कुर्बान कर देने’ की बात करता है। ‘वास्तव’ में परेश रावल का किरदार, एक ईमानदार दोस्त जो रघु के लिए जान दे देता है। लम्बा इतिहास रहा है ऐसा।

जेएनयू में दीपिका पादुकोण ने जाकर उस कंट्रोवर्सी को जन्म दे दिया, जिससे फ़िल्म की चर्चा हो और जिस पर लाख विवादों के बावजूद माफ़ी न माँग कर ख़ुद की छवि और ‘मजबूत’ दिखाई जा सके।

पीआर एजेंसियों के इशारों पर नाचने वाली बॉलीवुड सेलेब्रिटी होते ही ऐसे हैं। जब फलाँ मुद्दा ख़ूब चल रहा है तो उस पर उनसे बयान दिलवाया जाता है। विवाद में पड़े बिना जब पब्लिसिटी की जरूरत होती है तो यही अभिनेता या अभिनेत्री सोशल मीडिया में’संविधान की प्रस्तावना’ को शेयर कर देते हैं। वैसे ही दीपिका ने सीएए, हैदराबाद एनकाउंटर, निर्भया फ़ैसला और मुस्लिमों के आतंक पर कुछ नहीं बोला। लेकिन चूँकि उनकी फ़िल्म का रिलीज डेट नजदीक है, जेएनयू में उनकी उपस्थिति ने वो काम कर दिया, जो उनके बयान देने से भी नहीं होता। यही बॉलीवुड की रीत है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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