Sunday, December 22, 2024
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प्रशांत वर्मा से प्रशिक्षण लें ‘आदिपुरुष’ वाले: ‘हनुमान’ फिल्म में दिखती है बनाने वालों की श्रद्धा, सैकड़ों करोड़ फूँक कर जो नहीं हो पाया वो कम बजट में कर दिखाया

गाँव में हो रही राजनीति, हीरो और विलेन के साथ एक-एक कॉमेडियन, ताकतवर द्वारा कमजोरों का शोषण, प्रेमिका की रक्षा करता प्रेमी - ये सब साउथ की फिल्मों में हम पहली बार नहीं देख रहे। फिर, इस फिल्म में नया क्या है? जानिए।

बॉक्स ऑफिस पर एक नई फिल्म ने दस्तक दी है – ‘हनुमान’। भारत में शायद ही कोई होगा, या विश्व में शायद ही कोई हिन्दू होगा जो इस नाम से परिचित न हो। ‘रामायण’ सीरियल के बाद ये बच्चों के भी पसंदीदा किरदार हैं। ‘हनुमान’ केवल एक नाम मात्र नहीं है, बल्कि ईश्वर भक्ति, निश्छल प्रेम, चातुर्य और युद्धकला-निपुणता के मिश्रण से जो भी शब्द बनते होंगे उनका पर्यायवाची है। अब ‘HanuMan’ फिल्म के माध्यम से एक बार फिर ये प्रयास किया गया है कि लोग इस नाम को जानें, फिल्म ने लोगों को भगवान हनुमान को लेकर अपने मनोभाव को जागृत करने का मौका दिया है।

यहाँ हम फिल्म की तकनीकी या परंपरागत समीक्षा नहीं कर रहे, क्योंकि ये कई समीक्षक कर चुके हैं। संक्षेप में फिल्म के बारे में जानें तो मूल रूप से तेलुगू में बनी इस फिल्म के निर्देशक प्रशांत वर्मा है। बतौर डायरेक्टर ये उनकी चौथी ही फिल्म है। 2018 में ‘Awe’ नामक साइकोलॉजिकल थ्रिलर से फीचर फिल्मों में डेब्यू करने वाले प्रशांत वर्मा ने तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री की पहली जॉम्बी मूवी ‘जॉम्बी रेड्डी’ (2021) भी बनाई है। ‘हनुमान’ को पहली तेलुगू सुपरहीरो फिल्म के रूप में प्रचारित किया गया है।

‘हनुमान’: प्रशांत वर्मा से प्रशिक्षण लें ‘आदिपुरुष’ वाले

वहीं फिल्म में मुख्य किरदार निभाया है तेजा सज्जा ने, जो प्रशांत वर्मा की जॉम्बी वाली फिल्म में भी लीड रोल में थे। बतौर मुख्य अभिनेता ये उनकी पहली ही फिल्म थी। हालाँकि, बचपन में ही अभिनय के क्षेत्र में कदम रख चुके तेजा सज्जा इससे पहले कई फिल्मों में काम कर चुके थे। तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े अभिनेताओं के साथ काम करने का अनुभव उनके पास है। प्रशांत वर्मा द्वारा निर्देशित ही Sci-Fi रोमांटिक फिल्म ‘अद्भुतम्’ (2021) में भी उन्होंने लीड रल निभाया था।

34 वर्षीय निर्देशक और 29 वर्षीय अभिनेता की ये जोड़ी अब ‘HanuMan’ लेकर आई है। चूँकि दोनों साथ में पहले सफल फ़िल्में दे चुके हैं, उनकी ये बॉन्डिंग ‘हनुमान’ में भी दिखती है। शुरू में तेजा सज्जा कद-काठी के हिसाब से सुपरहेरो फिल्म के लायक नहीं लगते, लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है उनका किरदार और विश्वसनीय होता चला जाता है। ‘सुपरहीरो’ वाले अवतार में ढलने के बावजूद वो एक आम आदमी होता है – उसका एक दोस्त, एक बहन, एक प्रेमिका और एक गाँव होता है।

जहाँ तक फिल्म के निर्देशन की बात है, प्रशांत वर्मा का तरीका तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री में मास-मसाला फ़िल्में बनाने वालों और गाँव के सेटअप में क्लासिक फ़िल्में बनाने वालों के मिश्रण जैसा है। वो एक गाँव की खूबसूरती को अच्छे से उकेरते हैं, चीजों को सिंपल रखने का प्रयास करते हैं और गानों का दृश्य के हिसाब से सही इस्तेमाल करते हैं। फिल्म एक दृश्य में ‘कार्तिकेय 2’ के उस दृश्य की याद दिलाती है जिसमें अनुपम खेर एक नेत्रहीन प्रोफेसर के रूप में भगवान श्रीकृष्ण की खूबियों को समझाते हैं।

कहानी की बात करें तो इसे भी पेचीदा नहीं रखा गया है, जो इसे बच्चों के देखने वाली या परिवार संग देखने वाली एक अच्छी फिल्म बनाता है। गाँव में हो रही राजनीति, हीरो और विलेन के साथ एक-एक कॉमेडियन, ताकतवर द्वारा कमजोरों का शोषण, प्रेमिका की रक्षा करता प्रेमी – ये सब साउथ की फिल्मों में हम पहली बार नहीं देख रहे। फिर, इस फिल्म में नया क्या है? तो इसका सीधा सा जवाब है, फिल्म में जो भी नया है वो फिल्म के नाम में ही है – हनुमान।

ऐसा नहीं है कि फिल्म में हनुमान जी का इस्तेमाल सिर्फ दर्शकों की भावनाओं को निचोड़ कर निकालने के लिए किया गया है। ऐसा नहीं है, फिल्म में शुरू से अंत तक ये नाम आपको सुनने को मिलता तो है, लेकिन जब भी ये नाम आता है तब दिखता है कि फिल्म बनाने वालों के मन में हनुमान जी के लिए कितनी श्रद्धा है, कितना सम्मान है। ये वही चीज है, जो ‘आदिपुरुष’ बनाने वालों के भीतर गायब थी। ‘आदिपुरुष’ के निर्माता-निर्देशकों को प्रशांत वर्मा से प्रशिक्षण लेना चाहिए।

हनुमान – सिर्फ एक नाम नहीं, श्रद्धा और सम्मान का विषय है

ये प्रशांत वर्मा की कला ही है कि वो एक बंदर और एक चिड़िया को भी एक किरदार के रूप में इस्तेमाल कर लेते हैं, वो भी पूरी फिल्म में। ये प्रकृति के साथ मानवीय समाज की तारतम्यता को समझाने और इसे प्रदर्शित करने का एक तरीका है, जिसे उन्होंने उपयोग में लाया है। हनुमान जी के मुख से जब ‘राम’ शब्द निकलता है तब आपके भीतर एक अलग ही अनुभूति का संचार होता है। इतनी शक्तिशाली आवाज़, इतनी ओजस्वी ऊर्जा, वो आवाज़ सीधा हृदय के भीतर ऐसे जाती है जैसे कोई सुपरसोनिक साउंड हो और हम उसे सुनने की क्षमता रखते हों।

‘हनुमान’ फिल्म की सिनेमाटोग्राफी और VFX इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो इसमें चार चाँद लगाता है। VFX कहीं भी नकली नहीं लगता। इसका कारण – जितनी ज़रूरत है, उतनी ही चादर रखी गई है। एक कम बजट की फिल्म को सैकड़ों करोड़ रुपए फूँक कर बनाई जाने वाली फिल्मों से बेहतर बना दिया गया है। नदी-झील-पहाड़ के दृश्य हों या फिर पानी के भीतर का दृश्य, गुफा के भीतर का दृश्य हो या फिर जंगल का, फिल्म प्राकृतिक सुंदरता को रहस्यों के महासागर के रूप में दिखाती है।

ये उन विरले फिल्मों में से एक है जहाँ सब कुछ सटीक बैठता है और पार्श्व संगीत उन सभी सटीक चीजों का भरपूर साथ देता है। हिंदी डबिंग बहुत अच्छी की है। गीत-संगीत साधारण हैं लेकिन फिल्म में कहीं भी ठूँसे हुए से नहीं लगते। पार्ट-2 के लिए अंत में काफी सस्पेंस क्रिएट किया गया है और इसका इशारा भी मिल जाता है कि अगला हिस्सा कहीं अधिक बजट वाला, अधिक भव्य और ज़्यादा एक्शन से भरपूर होने वाला है। आज के ज़माने में असुरों और मानवों का युद्ध – अगर सब कुछ पार्ट-1 जैसा ही अच्छा बन पड़ा तो अगली फिल्म और भी तगड़ी बनेगी।

बॉलीवुड से सवाल पूछने का भी समय

‘हनुमान’ इसीलिए भी देखिए ताकि आप ये सवाल पूछ सकें कि संसाधन और प्रतिभा होने के बावजूद बॉलीवुड में इस तरह की फिल्म क्यों नहीं बनाई गई? क्या बॉलीवुड ने बैटमैन, सुपरमैन और स्पाइडरमैन की आभा में मगन होकर अपने ही एक ऐतिहासिक किरदार को इस लायक नहीं समझा कि उस पर फिल्म बना कर दुनिया भर में अपनी संस्कृति का डंका बजाया जाए, या फिर उसे डर था कि इससे एक वर्ग विशेष के भीतर बॉलीवुड को लेकर नाराज़गी फैल जाएगी?

यहाँ मैं उन फिक्शनल सुपरहीरोज से हनुमान जी की तुलना नहीं कर रहा और ये होनी भी नहीं चाहिए, लेकिन ये सवाल पूछा जाना चाहिए कि भारत में जिन चीजों को ‘Mythology’ कह-कह कर ख़ारिज किया जाता रहा, उन्हीं से प्रेरित होकर विदेश में हजारों करोड़ रुपए कमाने वाली फ़िल्में कैसे बन गईं? क्या ‘हनुमान’ जैसी फिल्म बॉलीवुड में इसीलिए भी नहीं बन सकती क्योंकि इसमें ‘अच्छा मुसलमान’ वाला किरदार घुसाने की कोई गुंजाइश नहीं है?

आजकल रील्स का ज़माना है, जो स्क्रीन पर दिखता है वही चर्चा में होता है। जब बच्चे हनुमान जी से संबंधित कुछ नहीं देखेंगे ही नहीं तो हमारी अगली पीढ़ी पौराणिक इतिहास के एक पूरे के पूरे अध्याय के ज्ञान से वंचित रह जाएगी। जब ऐसी फ़िल्में आएँगी, बच्चे उसे देखेंगे, उसके क्लिप्स सोशल मीडिया पर वायरल होंगे, बच्चे उन नामों के बारे में सर्च कर के इंटरनेट पर पढ़ेंगे – तभी तो उन्हें रामायण और इसके किरदारों के बारे में पता चलेगा। ‘कार्तिकेय 2’ और ‘हनुमान’ तेलुगू फिल्म इंडस्ट्री का इसी दिशा में किया गया एक प्रयास साबित हो सकता है।

असल में भारत में समृद्ध पौराणिक कथाओं के मायने हैं, इनके अर्थ हैं, सामाजिक सन्देश हैं और भविष्य को लेकर इनमें निर्देश हैं। इस समुद्र को जितना मथा जाएगा, उतना ही अमृत निकलेगा। अफ़सोस कि हमारी फिल्म इंडस्ट्री के लोगों ने पहले इसे इस लायक समझा ही नहीं। क्लब्स, पार्टियाँ, बिकनी, आइटम सॉन्ग्स, अश्लील कॉमेडी और परिवार विरोधी भावनाओं से सनी बॉलीवुड फिल्मों ने पाश्चात्य संस्कृति के नक़ल की चक्कर में अपनी शकल तो बिगाड़ी ही, कई पीढ़ियों को भी अपने ही देश, इतिहास और संस्कृति को लेकर हीन भावना से भर दिया।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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