भारतीय गीतकार जावेद अख्तर को सोशल मीडिया के माध्यम से बधाइयाँ मिल रही हैं। रविवार (जून 7, 2020) को ख़बर आई कि उन्होंने ‘रिचर्ड डॉकिन्स पुरस्कार’ जीता है। साथ ही इस तरह से पेश किया गया कि वो ऐसा कारनामा करने वाले पहले भारतीय हैं। रिचर्ड डॉकिन्स ब्रिटिश जीवविज्ञानी और लेखक हैं। ये अवॉर्ड 2003 से ही विज्ञान, रिसर्च, शिक्षा और मनोरंजन के क्षेत्र में प्रबुद्ध लोगों को दिया जाता रहा है।
लेकिन, सिर्फ यही एक क्राइटेरिया नहीं है इस अवॉर्ड को पाने का। यानी किसी ने अपने क्षेत्र में कितनी ही मेहनत क्यों न की हो, अवॉर्ड तभी मिलेगा जब आपने ‘लॉजिकल होकर धर्मनिरपेक्षता की रक्षा’ के लिए प्रयास किया हो। अब यहाँ धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलरिज़्म के नाम पर क्या-क्या खेल चलता है, ये किसी से छिपा नहीं है। जब किसी अवॉर्ड में सेक्युलरिज़्म का जिक्र आए और वो विदेशी भी हो, तो भारत के लिए ये कान खड़े होने वाली बात है।
इसकी पड़ताल की शुरुआत जावेद अख्तर की दूसरी बीवी और फरहान अख्तर की सौतेली अम्मी शबाना आजमी के बयान से करते हैं। अपने शौहर को अवॉर्ड मिलने की ख़ुशी जाहिर करते हुए शबाना ने लिखा कि आज सभी धर्मों के कट्टरपंथी सेक्युलरिज़्म पर हमला कर रहे हैं, इसके मूल्यों की रक्षा के लिए जावेद अख्तर ने प्रयास किया और उन्हें ये अवॉर्ड मिला। साथ ही शबाना ने ये भी बताया कि जावेद अख्तर रिचर्ड डॉकिन्स से प्रेरणा लेते रहे हैं, उन्हें नायक मानते हैं।
@Javedakhtarjadu wins Richard Dawkins Award 2020 for critical thinking , holding religious dogma upto scrutiny,advancing human progress and humanist values. Awesome ❤️ https://t.co/tJy9CBDOzI
— Azmi Shabana (@AzmiShabana) June 7, 2020
वामपंथी गैंग में ख़ुशी की लहर दौड़ी और फर्जी इतिहासकारों से लेकर बॉलीवुड के लोगों तक, सबने बधाइयों का ताँता लगा दिया। अगर 79 वर्षीय रिचर्ड डॉकिन्स के ट्विटर प्रोफाइल को खँगालें तो पता चलता है कि फ़िलहाल वो अमेरिका में चल रहे ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ विरोध प्रदर्शन के समर्थन में लगे हुए हैं। हालाँकि, अब ये प्रदर्शन दंगों में तब्दील हो चुका है। अमेरिका में इसकी आड़ में आगजनी और लूटमार चल रही है।
रिचर्ड डॉकिन्स की वेबसाइट खँगालने पर पता चलता है कि भारत और यहाँ होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में वो और उनकी टीम उसी पूर्वग्रह से ग्रसित हैं, जिसके मद में सदानंद धुमे, बरखा दत्त और राणा अयूब जैसे लोग विदेशी पोर्टलों में लेख लिख कर अपने ही देश को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। फ़रवरी 2016 में उनकी वेबसाइट पर ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ की पत्रकार अपूर्वा मंडावली का एक लेख छपा था, जिसमें मोदी सरकार को विज्ञान-विरोधी बताया गया था।
नरेंद्र मोदी की सरकार को रूढ़िवादी और दक्षिणपंथी बताते हुए इस लेख में लिखा गया था कि शैक्षिक मसलों में सरकार का दखल और धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ते माहौल के कारण देश भर के प्रबुद्ध लोग इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। उस समय भारत में असहिष्णुता का राग चरम पर था और अवॉर्ड वापसी का नाटक भी चल रहा था। इस लेख में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक दक्षिणपंथी कट्टरवादी संगठन करार दिया गया था।
वही आरएसएस, जो कोरोना आपदा के वक़्त 3.17 करोड़ से भी अधिक लोगों तक भोजन पहुँचा चुका है और जिसके 3.42 लाख स्वयंसेवक ग्राउंड पर डटे हुए हैं, जनसेवा कर रहे हैं। वही संघ, जो देश भर में 67,336 स्थानों पर एक साथ राहत-कार्य चला रहा है। और ये पहली बार नहीं है। दशकों से हर आपदा में संघ ने ऐसे ही कार्य किया है। लेकिन, इस लेख में संघ और भाजपा के जुड़ाव को ‘अपवित्र गठबंधन’ बताते हुए इसे एक हिंसक पैरामिलिट्री समूह करार दिया गया था। भारत में संघ के आलोचक भी जानते हैं कि ये सच नहीं है।
अगर विज्ञान की ही बात करनी हो तो इसरो के लिए केंद्र सरकार के बजट को देख कर ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस मामले में कौन संवेदनशील है और कौन नहीं। 2013 में यूपीए के अंतिम पूर्ण बजट में भारतीय स्पेस एजेंसी इसरो के लिए 6792 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था जबकि 2020 में यही आँकड़ा लगभग दोगुना, अर्थात 13,479 करोड़ रुपया हो जाता है। लेकिन, माहौल बनाने के लिए आँकड़ों को छिपाना होता है।
अक्टूबर 2015 में रिचर्ड डॉकिन्स की वेबसाइट पर एक और लेख आया था, जिसमें यूपी के दादरी में अखलाक की मॉब लिंचिंग को एक कहानी की तरह पेश किया गया। इसमें पूछा गया कि अखलाक का अपराध क्या था और साथ ही जवाब दिया गया कि बीफ खाना ही उसका एकमात्र ‘अपराध’ था। इसमें भी मोदी सरकार को कंजर्वेटिव बताते हुए लिखा गया कि उसके सत्ता में आने के बाद ऐसी घटनाएँ बढ़ गई हैं। यही नैरेटिव जो वामपंथी मीडिया चलाता है।
Congratulations Javed sb for this prestigious Richard Dawkins Award. You are a strong voice in today’s shrinking space for critical thinking in religion, art, culture and politics.@Javedakhtarjadu
— S lrfan Habib (@irfhabib) June 7, 2020
यहाँ इस बात की चर्चा करनी ज़रूरी है कि अखलाक की हत्या के मामले में एक प्रत्यक्षदर्शी ने बताया था कि इसका कारण बीफ न होकर आपसी रंजिश हो सकती है। साथ ही उसने ये भी दावा किया था कि ये एक मॉब लिंचिंग नहीं थी क्योंकि इस हत्याकांड में भीड़ नहीं बल्कि कुछ ही लोग शामिल थे। हालाँकि, रिचर्ड डॉकिन्स जैसे लोगों की नज़र में इन सबका कोई महत्व नहीं। अखलाक की हत्या के बाद कई महीनों तक ‘डर का माहौल’ वाला नैरेटिव चला था।
उस पर भी जावेद अख्तर जैसे व्यक्ति को ये अवॉर्ड मिलना ठीक वैसा ही है, जैसे रवीश कुमार जैसों को मैग्सेसे मिलना। जावेद अख्तर अब एक ट्विटर ट्रोल बन चुके हैं, जो आए दिन ऑनलाइन लड़ाई-झगड़ों में व्यस्त रहते हैं। दिल्ली दंगों के समय उन्होंने ताहिर हुसैन का बचाव करते हुए यहाँ तक पूछा था कि दिल्ली पुलिस एक ही व्यक्ति के पीछे क्यों पड़ी है? अब वही पूरे दंगों और कई हत्याओं का मास्टरमाइंड निकला। जावेद अख्तर को बख्तियार और अलाउद्दीन खिलजी के बीच का अंतर तक नहीं पता।
ये वही जावेद अख्तर हैं, जिन्होंने फ़रवरी 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फासिस्ट कहा था। रिचर्ड डॉकिन्स की वेबसाइट पर सीएए को लेकर भी दिसंबर 2019 में एक लेख आया, जिसमें लिखा गया था कि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से ही देश के 20 करोड़ लोगों की स्थिति बिगड़ने लगी है। लिखा गया कि भारतीय संसद ने नया क़ानून बना कर उन पर ‘वज्रपात’ किया है। बताया गया कि समुदाय विशेष को सीएए की सूची से बाहर रखना कोई संयोग नहीं हो सकता।
रिचर्ड डॉकिन्स अपनी पुस्तक ‘गॉड इज नॉट ग्रेट’ में हिन्दू और बौद्ध धर्म पर हमला भी कर चुके हैं। उन्होंने इन दोनों धर्मों के ‘अन्धविश्वास’ को मुद्दा बनाया था और साथ ही सती प्रथा के लिए हिन्दू धर्म की आलोचना की थी। ये भी अंग्रेजों का बना-बनाया नैरेटिव है। ख़ुद को नास्तिक बताने वाला रिचर्ड हॉकिंस ईश्वर के अस्तित्व को नकारते रहे हैं। जावेद अख्तर को अवॉर्ड देना भारत में अपने विचार फैलाने का एक जरिया हो सकता है, जिसके लिए उन्हें एक ‘योग्य’ व्यक्ति मिला है।